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…..तो क्या इंदौर में चुनाव में नोटा जीतेगा?

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इंदौर लोकसभा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी द्वारा आखिरी क्षण में नाम वापसी और सूरत लोकसभा सीट पर भाजपा को छोड़ शेष सभी उम्मीदवारों द्वारा नाम वापस लेने के बाद मैदान में अकेले बचे ‘नोटा’ पर चर्चा तेज हो गई है।सवाल उठ रहा है कि क्या नोटा को सर्वाधिक वोट मिल सकने की स्थिति में विजेता कौन होगा? दूसरे, क्या नोटा को भी पूर्ण प्रत्याशी माना जाना चाहिए? तीसरे, अगर ‘राइट टू रिजेक्ट’ के तौर पर चुनाव में अगर नोटा की कोई वास्तविक अहमियत नहीं है तो ईवीएम में इसके प्रावधान का औचित्य क्या है?

एक अर्थ में भाजपा की राजनीतिक जोड़-तोड़ ने मतदाता से चयन का अधिकार ही छीन लिया है। अगर सचमुच इंदौर के वोटरों ने बड़ी संख्या में नोटा का बटन दबाया ( जिसकी संभावना कम है) तो क्या चुनाव में नोटा जीतेगा?

दरअसल, इंदौर और सूरत में फर्क यह है कि इंदौर में कुछ निर्दलीय प्रत्याशियों ने नामांकन वापसी से इंकार कर दिया तो सूरत में नोटा के रहते भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित कर दिया गया। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या नोटा को सर्वाधिक वोट मिल सकने की स्थिति में विजेता कौन होगा?दूसरे, क्या नोटा को भी पूर्ण प्रत्याशी माना जाना चाहिए? तीसरे, अगर ‘राइट टू रिजेक्ट’ के तौर पर चुनाव में अगर नोटा की कोई वास्तविक अहमियत नहीं है तो ईवीएम में इसके प्रावधान का औचित्य क्या है?

हालांकि, इंदौर और सूरत लोकसभा सीटों के मामले में थोड़ा फर्क है। इंदौर में सूरत पार्ट-1 तो हुआ, लेकिन पार्ट-2 नाकाम रहा। सूरत में चूंकि भाजपा को छोड़ सभी प्रत्याशियों ने किसी अदृश्य ‘डील’ के तहत नाम वापस ले लिए थे, इसलिए निर्वाचन अधिकारी ने उन्हें निर्विरोध निर्वाचित होने का प्रमाण पत्र मतदान के पहले ही सौंप दिया। जबकि इंदौर में कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति बम ने नामांकन वापसी के अंतिम दिन किसी रहस्यमय अंत:प्रेरणा के चलते भाजपा नेताओं के साथ जाकर न केवल चुनाव मैदान से अपना नाम वापस लिया, बल्कि लौटकर खुद भी भाजपा में शामिल हो गए।
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इधर, इसी दौरान इंदौर के चुनाव मैदान में शामिल 14 निर्दलीय उम्मीदवार तमाम दबाव के बावजूद डटे हुए हैं। यानी ईवीएम में भाजपा प्रत्याशी के साथ 14 निर्दलीय व नोटा का नाम रहेगा।
सियासत के चुनावी ड्रामे और राजनीतिक चेतना 

इंदौर के इस अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम से भड़की कांग्रेस ने अब मतदाताओं से अपील की है कि वो उनके अधिकृत प्रत्याशी के अभाव में नोटा को वोट दें। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने तो अपील की है कि मतदाता ज्यादा से ज्यादा नोटा को वोट देकर क्रांतिकारी रिकॉर्ड बनाएं।

दूसरी तरफ इस जबरिया तोड़-फोड़ से खुद भाजपा में भी नाराजी है, जिसे इंदौर की पूर्व सांसद सुमित्रा महाजन ने यह बयान देकर उजागर किया कि भाजपा कार्यकर्ताओं के गले यह बात उतर नहीं रही है कि इंदौर की जो लोकसभा सीट भाजपा के लिए जीती जिताई थी, उस पर कांग्रेस प्रत्याशी को रणक्षेत्र से हटवाकर भाजपा की बारात में शामिल करने का क्या औचित्य है? क्योंकि कांग्रेस के अक्षय कांति बम इतने दमदार भी नहीं थे कि कांग्रेस की जीत का विस्फोट कर पाते।

सुमित्राजी के अनुसार ऐसे में भाजपाई ही लोगों से नोटा के पक्ष में मतदान करने की अपील कर रहे हैं। इस बयान को सही मानें तो इंदौर में कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने-अपने कारणों से मतदाता से प्रत्याशी की जगह नोटा को वोट देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में संभव है कि मतदाता उदासीन होकर वोट देने से ही परहेज करें या फिर नोटा को वोट करें। 


वर्तमान नियमों के तहत यह संभव नहीं है, क्योंकि चुनाव आयोग का नियम कहता है कि अगर अपवाद स्वरूप किसी चुनाव में नोटा को सर्वाधिक वोट मिलते हैं तो चुनाव में प्राप्त वोटों की संख्या के हिसाब से नंबर दो पर रहा प्रत्याशी ही विजयी घोषित होगा।

इसके अनुसार भाजपा के शंकर लालवानी ही दूसरी बार विजयी घोषित हो सकते हैं, बशर्तें वो सभी निर्दलीयों से ज्यादा वोट हासिल कर लें। हालांकि, यह जीत जश्न मनाने वाली नहीं होगी। कहने का आशय यही है कि नोटा सर्वाधिक वोट तो ले सकता है, लेकिन चुनाव नहीं जीत सकता।

नोटा ‘राइट टू रिजेक्ट’(नकारने के अधिकार) के तहत मतदाता के पास एक विकल्प है, जो किसी भी प्रत्याशी को वोट देना न चाहता हो, वो नोटा को वोट दे सकता है। लेकिन नोटा भौतिक प्रत्याशी नहीं है। चुनाव प्रत्याशी कोई हाड़ मांस का व्यक्ति ही हो सकता है। ऐसे में नोटा की मौजूदगी किसी को भी वोट न देने के अधिकार के तहत एक आभासी विकल्प के रूप में है। 

लोकतांत्रिक अधिकार और मूल्य 

यहां बड़ा मुद्दा लोकतंत्र में मतदाता किसी को भी चुनने अथवा न चुनने के अधिकार का है। लोकतंत्र की विशेषता यही है कि इसमें मतदान के रूप में हर नागरिक की राजनीतिक सहभागिता होती है। यह एक बड़ा महत्वपूर्ण अधिकार है, जो हमे संविधान ने दिया है।

यह अधिकार इस सकारात्मक भाव से जन्मा है कि देश की सत्ता का निर्धारण सामान्य नागरिक  भी बराबरी से करे। यानी यह अधिकार चुनने के लिए है, खारिज करने के लिए नहीं।

वजूद इसके अगर कोई वोटर चुनाव मैदान में मौजूद सभी प्रत्याशियों को अयोग्य अथवा अप्रिय मानकर नकारना चाहे तो उसके पास दो ही विकल्प बचते हैं। एक तो वह वोट करने ही न जाए। या फिर जाए तो ईवीएम/ बैलेट पेपर में कोई ऐसा प्रावधान हो कि वह किसी को वोट नहीं देना चाहता।

अंग्रेजी के नोटा संक्षिप्त रूप का अर्थ ही है ‘ नन ऑफ द अबोव’ यानी उपरोक्त में कोई भी नहीं। इसकी शुरुआत 1976 में अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य की सांता बारबरा काउंटी की म्यूनिसिपल इंफॉर्मेशन काउंसिल में लागू करने से हुई थी। बाद में भारत में पीयूसीएल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाकर यहां भी नोटा लागू करने की मांग की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकारते हुए आदेश दिया। जिसके बाद चुनाव आयोग ने पहली बार 2013 के विधानसभा चुनावों में चार राज्यों, जिनमें मध्य प्रदेश भी शामिल था, उसे लागू किया। बाद में इसे सभी चुनावों की ईवीएम में शामिल किया गया।

अब विवाद इस बात को लेकर है कि क्या नोटा को भी प्रत्याशी माना जाना चाहिए है या नहीं। अभी तक चुनाव आयोग नोटा को काल्पनिक प्रत्याशी मानता आया है, इसलिए उसका प्रतीकात्मक महत्व ही है। नोटा में पड़े वोटों से नतीजों पर असर नहीं पड़ता।

इधर, बहुत से लोगों का मानना है कि नोटा का विचार ही मूलत: नकारात्मक अथवा किसी को चिढ़ाने की सोच से उपजा है, ठीक वैसे ही कि भारत में कुछ चुनावो मतदाता ने किसी स्थापित राजनेता अथवा नए चेहरे के बजाए किन्नर को चुना। लेकिन समाज का एक वर्ग नोटा को भी ‘राइट टू रिजेक्ट’ के तहत पूर्ण प्रत्याशी मनवाने का आग्रही है।

जानें-मानें मोटिवेशनल स्पीकर शिवखेड़ा ने ‘सूरत कांड’ के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है कि नोटा को भी वास्तविक प्रत्याशी माना जाए। इस पर सुप्रीम कोर्ट क्या निर्णय देता है, देखने की बात है। यदि सुप्रीम कोर्ट ने यह याचिकाकर्ता की बात मान ली तो सूरत जैसे मामलों में भी चुनाव प्रत्याशी और नोटा के बीच होगा, भले ही एक को छोड़ बाकी प्रत्याशी नाम वापस ले लें।  

जहां तक मतदाताओं में नोटा की लोकप्रियता की बात है तो शुरू में इसके प्रति रूझान थोड़ा ज्यादा दिखाई पड़ा था। मध्यप्रदेश के 2018 के विधानसभा चुनाव में दो प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों का अंतर 1 प्रतिशत से भी कम था। इससे ज्यादा वोट नोटा को मिले थे। अगर ये वोट किसी एक पार्टी के पक्ष में जाते तो उसे पूर्ण बहुमत मिल सकता था।

2014 के लोकसभा चुनाव में जब पहली बार नोटा का प्रावधान किया गया था, उस वक्त नोटा में कुल वोटों का 1.08 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन 2019 में पहले की तुलना में ज्यादा वोटिंग के बावजूद नोटा की हिस्सेदारी घटकर 1.06 फीसदी रह गई। इस लोस चुनाव में कितने लोग नोटा को पसंद करते हैं, यह देखने की बात है। अगर ये शेयर ज्यादा बढ़ा तो राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी होगा।

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