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समाजवाद या महाविनाश….‘विकसित भारत’ की डींगें और भूख से बिलखते बच्चे

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सरकारी नीतियों में अगर बच्चों का स्वास्थ्य प्राथमिकता पर रहेगा, तो हर देश के अंबानी-अडानी-टाटाओं का क्या होगा ? आर्थिक विषमता कैसे कम होगी ? रोग की इस मूल जड़ पर प्रहार करने की दिशा में, यूनिसेफ के अधिकारी एक क़दम भी आगे बढ़ते, तो वे निश्चित रूप से, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर ही पहुंचते, और तब उनकी ये हिमाक़त, उनके अमेरिकी आकाओं को नागवार गुजरती. इसलिए बस उतना ही लिखकर छोड़ दिया कि ‘आर्थिक विषमता कम की जाए ?’ हम ये कायरता नहीं दिखा सकते, बौद्धिक बेईमानी नहीं कर सकते, आधी हकीक़त, आधा फ़साना नहीं सुना सकते. दुनिया के सामने दो ही विकल्प हैं; समाजवाद या महाविनाश.

सत्यवीर सिंह

‘ऐसी दुनिया बनाना, जहां हर बच्चे के अधिकारों का सम्मान हो और जहां हर बच्चे का भरपूर विकास हो’, द्वितीय विश्व युद्ध के महा-विनाश के बाद, बच्चों के चहुंमुखी विकास और सुरक्षा के नेक मक़सद से 11 दिसंबर, 1946 को ‘संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय आपातकालीन कोष (यूनिसेफ)’ की स्थापना हुई थी. इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क में है.

दुनिया भर में कुल 93 देश हैं. सभी देशों में, इस बक़्त, पोलिटिकल इकोनोमी की एक जैसी प्रक्रिया लागू है, जिसे पूंजीवाद कहते हैं. इसके तहत सभी देशों में, चाहें वे विकसित हों या विकासशील, चंद मुट्ठी भर लोगों के हाथ में बेशुमार दौलत इकट्ठी होती जा रही है और दूसरी ओर, कंगाली, दरिद्रता के महासागर बनते जा रहे हैं. अमीर-ग़रीब के बीच की इस खाई के चौड़ा होने की प्रक्रिया की गति दिनोंदिन तेज़ होती जा रही है. अपने प्रतिद्वंदियों को पीछे धेकेलकर आगे निकल जाने और अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते हुए, अधिकतम मुनाफ़ा हूंचने की हवश, युद्धों को जन्म दे रही है. मासूम बच्चे तोपों का चारा बन रहे हैं.

ऐसे बिकट हालात का असर यूं तो, सारे मानव समाज पर ही बहुत भयानक पड़ रहा है, लेकिन मासूम बच्चे सबसे ज्यादा तादाद और स्वरूप में इस दावानल के भट्टी में झोंके जा रहे हैं, क्योंकि वे ख़ुद को बचाने के लिए कुछ भी करने में लाचार होते हैं. पिछले 8 महीने से लगातार, जंगखोर अमेरिका की शह और उकसावे पर, उसकी ख़ूनी पुलिस चौकी, इजराइल द्वारा, गाज़ा में चलाए जा रहे नरसंहार में 20,000 से ज्यादा बच्चे, भीषण बमबारी में मारे जा चुके हैं, हर रोज़ मारे जा रहे हैं और इनसे कहीं अधिक, भुखमरी से मर रहे हैं.

हमारा देश, ख़ासतौर पर मोदी राज़ में, जहां एक ओर दुनिया में किसी भी देश के मुक़ाबले, ज्यादा खरबपति पैदा कर रहा है, फोर्ब्स की दुनिया के सबसे अमीर 500 धन-पशुओं की लिस्ट में, जहां आज, 8 भारतीय विराजमान हैं, वहीं, ‘विश्व भुखमरी इंडेक्स’ द्वारा 2023 में किए गए सर्वे के अनुसार, भुखमरी के मामले में, सबसे कंगाल 125 देशों में, 111वें स्थान पर है. बह अपने सभी पडौसी देशों में भी सबसे पीछे, सोमालिया के नज़दीक है.

देश में, 5 साल से कम उम्र के 34.7% बच्चे मरियल हैं, भूखे सोते हैं. एशिया के देशों में भी ये औसत 2.8% है. मतलब इंडिया, एशिया के गरीब देशों में भी सबसे ग़रीब है. ‘विश्वगुरु और ‘विकसित भारत’ होने की लफ्फाजी करते वक़्त ये हुक्मरान, देश के 115 करोड़ ग़रीबों को नहीं, बल्कि महा-अमीर कॉर्पोरेट लुटेरों, अडानी-अंबानी-टाटाओं और 25 करोड़ मध्य वर्ग को ही देश मान रहे होते हैं.

Child food poverty

दुनियाभर में, भुखमरी के शिकार हो रहे बच्चों का अध्ययन करने और उसका निराकरण सुझाने के मक़सद से, यूनिसेफ ने, ‘बाल भोजन दरिद्रता’ (child food poverty) नाम का विभाग प्रस्थापित किया. दुनिया के कुल 93 देशों में से, 37 ग़रीब देशों को चुना गया, जहां दुनिया के कुल 90% ग़रीब बच्चे रहते हैं. इस विभाग ने, इन देशों में बाल-भुखमरी व कुपोषण का व्यापक अध्ययन किया. चूंकि इन ग़रीब देशों के हुक्मरान, अपने देशों में फैल रही गुरबत को छुपाने के लिए, लंबी-लंबी डींगें हांकते हैं, इसलिए यूनिसेफ ने, इस अभियान के तहत, इन देशों के सरकारी आंकड़ों को भी परखा और कुल 670 सर्वे किए, जिनके आधार पर अपनी विस्तृत, 92 पृष्ठ की रिपोर्ट तैयार की और 6 जून 2024 को उसे इन्टरनेट पर डाला.

हमारा देश ग़रीबी, भुखमरी, बाल कुपोषण, जन्म के वक़्त मौतें, पीले, कमज़ोर, मरियल बच्चे और वैसी ही कमज़ोर, पीलिया की शिकार बाल-माताओं की तादाद के मामले में, कब का ‘विश्व गुरु’ बन चुका है. इसलिए यूनिसेफ की इस रिपोर्ट के हर पेज पर, ‘विकसित’ भारत छाया हुआ है.

हुक्मरान तो, मखमली कालीन पर, शाही ठाट-बाट से ‘शपथ ग्रहण’ में मशगूल हैं, जिसके बाद वे इस अप्रिय रिपोर्ट को, ‘देश के ख़िलाफ़ साज़िश बताते हुए सिरे से खारिज़ करने वाले हैं, लेकिन देश के मुस्तक़बिल, बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हर व्यक्ति को, यह रिपोर्ट गंभीरता से पढ़नी चाहिए और यह विचार भी करना चाहिए कि सरकार तो गरीबों को मरने के लिए छोड़ ही चुकी है, क्या हम अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे हैं ?

दुनिया भर में, 5 साल से कम उम्र के, हर चार बच्चों में 1 बच्चा भूख-कंगाली का शिकार है, उसे पेट भर खाना नहीं मिल रहा, जिसके कारण उनका विकास बाधित है. कुल बच्चों का 27% अर्थात, 18.1 करोड़ बच्चे, भयंकर भुखमरी के शिकार हैं, उनका विकास नहीं हो पा रहा, वे बार-बार बिमारियों के शिकार होते हैं और छोटी उम्र में ही मर जाते हैं.

ऐसे मरियल बच्चों के 65% बच्चे, दुनिया के जिन 20 सबसे दरिद्र देशों में रहते हैं, हमारा भारत महान, इनमें प्रमुख रूप से शामिल है !! इससे भी दु:खदायी आंकड़ा ये है कि इन 20 देशों में, 2012-22 के दशक में, भूखे बच्चों की दशा में रत्तीभर भी सुधार नहीं हुआ और 11 देशों में तो इसकी भयावहता और बढ़ गई. इन देशों के नाम नहीं दी गए, लेकिन इंडिया इनमें ज़रूर शामिल होगा.

इससे यह अंदाज़ ख़ुद ही लगाया जा सकता है कि कंगाली कितनी भयावह है और कितने गहरे तक पैठ चुकी है. जिस घर में बच्चे भूखे रहते हैं, वहां परिवार के बड़े तो निश्चित रूप से फ़ाके कर रहे होते हैं, क्योंकि कोई भी मनुष्य इतना नालायक नहीं हो सकता कि अपने बच्चे के मुंह का निवाला छीनकर खा जाए, या उसके हिस्से का दूध ख़ुद पी जाए !!

एक और दिलचस्प तथ्य इस मामले में यह है कि अफ़ीकी देशों में बच्चों की भुखमरी की तीब्रता में कमी आई है, लेकिन एशिया में ऐसा नहीं हुआ. 2020 में आई कोविड महामारी ने बच्चों की भुखमरी के हालात बहुत गंभीर बना दिए हैं. कोंगो और सोमालिया के 80% मां-बाप का कहना है कि बे इतने कंगाल हो चुके हैं कि उनके बच्चों को अक्सर दिन में एक बार भी खाना नसीब नहीं होता.

रिपोर्ट यह भी बताती है कि जिन मां-बाप के बच्चे भूख से बिलखते हैं, उनमें, बच्चों को पौष्टिक आहार मिलना चाहिए, इस बाबत जानकारी या शिक्षा की कमी नहीं है, बल्कि वे आर्थिक हालात के मारे हुए हैं. बे ख़ुद खून के आंसू रोते हैं.

आर्थिक विपन्नता, बेकारी और सरकारों से कोई मदद ना मिलना, इसके प्रमुख कारण हैं. सरकारी सामाजिक सुरक्षा के ढांचे चरमराकर बिखरते जा रहे हैं. इसी वज़ह से मौसम की हलकी सी मार से ही भयंकर भुखमरी पसर जाती है. हमारे पड़ोसी देश नेपाल की इस मामले में तारीफ़ की गई है कि वहां पिछले दशक में बाल-भोजन भुखमरी में काफ़ी कमी आई है.

दुनिया भर में 5 वर्ष से कम आयु के 37.2 करोड़ बच्चों में विटामिन की बेहद कमी है, 14.8 करोड़ की वृद्धि, भुखमरी की वज़ह से रुक गई है. 4.5 करोड़ भयंकर भुखमरी के शिकार हैं और धीमी मौत मर रहे हैं, जबकि 3.7 करोड़ बच्चे, इन्हीं ग़रीब देशों में भी, ज़रूरत से ज्यादा और जंक फ़ूड खाने से मोटापे के शिकार हो रहे हैं.

137 गरीब देशों में भी 63 ऐसे अत्यंत कंगाल देशों में यूनिसेफ ने विशेष अध्ययन किया, जहां बच्चे लगभग नियमित रूप से पेट भरने लायक भोजन प्राप्त नहीं कर पाते. इन 63 देशों में भी, भारत का नंबर 40 वां है. बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में, विश्वगुरु भारत से ख़राब हालात मात्र 23 देशों की है, जैसे इथियोपिया, सिएगा लिओन, अफ़गानिस्तान और सोमालिया, जो सबसे आख़िर में है.

आश्चर्यजनक रूप से, श्रीलंका में बच्चों के पोषण की स्थिति, हमारे पडोसी देशों में सबसे अच्छी है, वह 5 वें नंबर पर है. बांग्लादेश 20 वें, तथा हमारा प्यारा पश्चिमी पड़ौसी , पाकिस्तान भी हमसे 2 नंबर ऊपर, 38 वें नंबर पर है. फिर भी संघियों की भावनाएं आहत नहीं होतीं !!

एक बहुत दिलचस्प आंकड़ा ये है, कि 2012 में क्यूबा में, बाल कुपोषण प्रतिशत सबसे कम, 2% हुआ करता था, जो दस साल बाद, 2022 में बढ़कर 11% हो गया. वहां भी समाजवादी शासन व्यवस्था ध्वस्त होकर पूंजीवादी लू चल रही है. वहां भी अब हमारा वाला ‘विकास’ चालू हो गया है. भुखमरी, बेरोज़गारी, मंहगाई पूंजीवाद की आवश्यक सौगाते हैं. इनके बगैर पूंजीवाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

अमेरिका की शह और मदद से, असभ्य आतंकी देश इजराइल ने गाज़ा को तबाह कर डाला है. गाज़ा में आज, दुनिया भर में सबसे भयानक हालात हैं, 10 में से 9 बच्चे भुखमरी के शिकार हैं. पूरी दुनिया इस तबाही का नज़ारा ख़ामोशी से देख रही है, मानो कोई फ़िल्म चल रही हो. इसीलिए ख़ूनी भेड़िया इजराइल, अमेरिकी हथियारों के दम पर बौराया हुआ है. हैवानियत की हदें लांघ रहा है. भुखमरी छोडिए, हर रोज़ की गोलाबारी में, मासूम बच्चों की लाशों के ढूंह लगते जा रहे हैं.

ज्यादा से ज्यादा देशों में, सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है. एक और दिलचस्प आंकड़ा क़ाबिल-ए-गौर है. जहां सामाजिक सुरक्षा से सरकारें पल्‍ला झाड़ रही हैं, या वे दिवालिया हो चुकी हैं, और इस लायक़ बची ही नहीं कि मरते बच्चों के लिए भी कुछ कर पाएं, उन सरकारों ने भी यूनिसेफ को आश्वासन दिया है कि 2030 तक उनके देश के हालात सुधर जाएंगे, सभी बच्चों को भरपूर पौष्टिक खाना मिलेगा.

मतलब हम अकेले नहीं हैं, जो परमात्मा का अवतार प्रधानमंत्री की लफ्फाजी सुनते रहते हैं कि 2047 तक इंडिया विकसित देश बन जाएगा, यहां दूध-दही की नदियां बहेंगी !!!

यूनिसेफ ने अपनी इस रिपोर्ट में, भयानक बाल भोजन दरिद्रता को कम करने के उपाय भी सुझाए हैं. सरकारी नीतियों में, बच्चों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिले. निश्चित लक्ष्य रखे जाएं. आर्थिक विषमता कम की जाए. बच्चों के लिए पौष्टिक खाद्य पदार्थ सभी जगह उपलब्ध कराए जाएं. बाल-स्वास्थ्य सुविधाएं मज़बूत बनाई जाएं. सामाजिक सुरक्षा ढांचा मज़बूत बनाया जाए और स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े इकट्ठे करने में ईमानदारी बरती जाए.

ग़रीबी के आंकड़े ईमानदारी से कैसे साझा किए जाएं ? यूपी के एक स्कूल में, पौष्टिक मिड डे मील योजना के तहत, बच्चों सूखी रोटी नमक के साथ परोसी जा रही थी. इस घटना को रिपोर्ट करने वाले पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया था !!

हमारी सलाह है कि यूनिसेफ को एक और शोध करना चाहिए. यूनिसेफ का उद्देश्य, ‘ऐसी दुनिया बनाना, जहां हर बच्चे के अधिकारों का सम्मान हो और जहां हर बच्चे का भरपूर विकास हो’, क्या मौजूदा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में पूरा हो सकता है ? क्या यहां कोई भी योजना सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बनती है ? क्या देश का योजना आयोग या नीति आयोग, कभी ऐसी योजनाएं बनाते नज़र आते हैं कि देश में कितने बच्चे भूखे हैं, उन्हें कौन-कौन से खाद्य पदार्थ चाहिएं, उनका उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए और सबसे अहम, उस उत्पादन का सही वितरण कैसे किया जाए ?

ऐसी योजनाएं बनना, क्या उस अर्थ व्यवस्था में मुमकिन है जहां, निजी क्षेत्र हो या सरकारी, सारा उत्पादन महज़ मुनाफ़ा कमाने के लिए होता है ? अगर इन बुनियादी बातों को दरकिनार कर, हज़ारों लोग, शोध रिपोर्ट से कागज़ काले कर रहे हैं, तो क्या यह भूख से बिलखते सैकड़ों बच्चों के लिए अन्याय नहीं है ?

‘बच्चों में फैलती जा रही भुखमरी का ग़रीबी से सीधा सम्बन्ध है’, इस हकीक़त को, जिसे हर जिंदा इंसान जानता है, यूनिसेफ के अधिकारियों ने अपनी लंबी-चौड़ी शोध के बाद प्रस्थापित किया है. यूनिसेफ के ये शोधकर्ता अधिकारी इसी धरती पर रहते हैं न ? जिस बात को सब जानते हैं, उसके बारे में ये लोग इतने भोले क्‍यों बन रहे हैं ?

सरकारी नीतियों में अगर बच्चों का स्वास्थ्य प्राथमिकता पर रहेगा, तो हर देश के अंबानी-अडानी-टाटाओं का क्या होगा ? आर्थिक विषमता कैसे कम होगी ? रोग की इस मूल जड़ पर प्रहार करने की दिशा में, यूनिसेफ के अधिकारी एक क़दम भी आगे बढ़ते, तो वे निश्चित रूप से, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर ही पहुंचते, और तब उनकी ये हिमाक़त, उनके अमेरिकी आकाओं को नागवार गुजरती. इसलिए बस उतना ही लिखकर छोड़ दिया कि ‘आर्थिक विषमता कम की जाए ?’ हम ये कायरता नहीं दिखा सकते, बौद्धिक बेईमानी नहीं कर सकते, आधी हकीक़त, आधा फ़साना नहीं सुना सकते. दुनिया के सामने दो ही विकल्प हैं; समाजवाद या महाविनाश.

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