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‘नरम हिंदुत्व कट्टर हिंदुत्व से नहीं लड़ सकता’…. कांग्रेस को राजनीति करनी चाहिए, धर्मयुद्ध नहीं’

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यह बताना आसान है कि गांधीजी का गीता पर क्या चिंतन है, नेहरू का इतिहास चिंतन क्या है, मौलाना आजाद भारतीय समाज और इस्लाम पर क्या सोचते थे, …। यह बताना भी आसान है कि डा. लोहिया और जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, डा. राधाकृष्णन की चिंतन पद्धति क्या थी। लेकिन, ऐसा आरएसएस और इसी धारा से जुड़े लोगों के बारे में नहीं कहा जा सकता।

अंजनी कुमार

कुछ दिनों पहले तक भाजपा ने राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने का सालों-साल अभियान चलाया। जब यह अभियान असफल होने की ओर बढ़ा तब उन्हें नॉनसीरियस और नासमझ बताने में लग गये। फिर उन्हें देशद्रोही की कैटगरी में डालने की कोशिशें शुरू कर दी। बात इससे भी नहीं बनी। एक पुराना कानूनी मामला सामना आया और निचली कोर्ट ने जैसे ही उन्हें सजा दिया और उच्च-न्यायालय ने इस मामले में इस सजा पर रोक लगाने से मना किया उनकी आनन-फानन में सदस्यता रद्द कर दी गई। सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिल गई और वे एक बार फिर लोकसभा के सदस्य बन गये। लेकिन, उनकी भाजपा के साथ राजनीतिक टकराहट में कमी नहीं आई।

अब इस टकराहट में और तेजी आ गई है। एक तरफ पांच राज्यों में चुनाव की सरगर्मियां तेजी से बढ़ रही हैं और उसी के साथ लोकसभा चुनाव की जमीन भी तैयार की जा रही है। भाजपा और कांग्रेस के बीच चल रही चुनाव की टकराहट पर तवलीन सिंह का कहना ठीक ही लग रहा हैः ‘यह चुनाव है, युद्ध नहीं’।

लेकिन, इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि पिछले दस सालों में भाजपा सिर्फ चुनाव के समय ही युद्ध स्तर पर मैदान में नहीं उतरती है, वह चुनाव के परिणाम आने के बाद भी इसे युद्ध स्तर पर बनाये रखती है। राज्यों में कांग्रेस की सरकार को नहीं, अन्य पार्टियों की सरकारों को भी चुनाव में जीतकर आये प्रतिनिधियों को नैतिकता-अनैतिकता को ताक पर रखकर अपने पक्ष में किया और चुनाव जीतकर बनी सरकार को गिराकर अपनी नई सरकार का निर्माण किया। ऐसे में, चुनाव का युद्ध जैसी स्थिति में बदलना अचंभा जैसा नहीं लग रहा है। दिल्ली में आप पार्टी की सरकार और उसके मंत्रियों और पदाधिकारियों के साथ जो हो रहा है, वह ऊपर से भले ही कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा लग रहा हो, अंदरखाने की असल कहानी आज आम जन की जुबान पर है।

जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहा है, भाजपा के चुनावी अभियान में प्रशासन की भूमिका प्रबल होती दिख रही है। लेकिन, इस बीच जो सबसे महत्वपूर्ण बहस भाजपा की ओर से आ रहा है, वह लगभग 77 साल बाद एक कार्टून की वापसी से शुरू हुआ है। ट्विटर पर भाजपा की ओर से जारी पोस्टर में राहुल गांधी को ‘नये युग का रावण’ घोषित किया। ट्विटर पर लिखा गयाः ‘नये युग का रावण यहां है। वह पापी (इविल) है। धर्म विरोधी है। राम विरोधी है। उसका ध्येय भारत को नष्ट करना है।’

इस ट्वीट में धर्म का खूब उपयोग किया गया है। कांग्रेस चुप रही हो, ऐसा नहीं है। इसने धर्म की बजाय ‘सेक्युलर’ मसलों को ज्यादा उठाया है। भाजपा द्वारा जारी किया गया यह कार्टून संयोग था या सचमुच याद करके 77 साल पुराने एक कार्टून को नया रूप दिया गया था, यह कहना कठिन है। लेकिन, जैसा जयराम रमेश और फिर कांग्रेस की प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने नाथूराम गोडसे द्वारा संपादित पत्रिका अग्रणी में छपे 1945 के कार्टून का हवाला दिया। इस कार्टून में गांधी जी को दस सिर वाले रावण के रूप में दिखाया गया है और उन पर तीर चलाने वाले दो लोग आरएसएस से जुड़े हुए हैं। तीर के ऊपर अखंड भारत लिखा हुआ है और नीचे लिखा हैः यतो धर्मरततो जयः। इसका अर्थ हुआः जहां धर्म है वहीं जीत है।

7 अक्टूबर, 2023 को इंडियन एक्सप्रेस में राम माधव ने एक लेख लिखाः ‘राहुल हिंदूवाद को नहीं जानते हैं’। यह लेख कुछ दिन पहले ही राहुल गांधी के एक लेख, जो इंडियन एक्सप्रेस में 1 अक्टूबर को छपा था, के जबाब के तौर पर आया है। लेकिन, रागा को रावण बनाने के बाद इसका जबाब आना यह बताता है, मसला सिर्फ जबाब देना नहीं है। यह बताना भी है कि राहुल गांधी हिंदू होने का दावा ज़रूर कर रहे हैं, लेकिन वे असल हिंदू हैं नहीं।

दरअसल, राम माधव हिंदू होने की जितनी श्रेणी राहुल गांधी के सामने रखते जाते हैं, उतनी ही वह अपने लिए भी अपनी श्रेणियों का निर्माण करते जाते हैं। वह राहुल गांधी के लेख के बारे में लिखते हैंः ‘सरसरी तौर पर पढ़ते हुए यही महसूस होता है कि यह लेख राजनीतिक उद्देश्यों के लिए लिखा गया है, यह अपने गठबंधन की ओर से आ रहे सनातन धर्म और हिंदूवाद हमलों पर कांग्रेस पार्टी की अवस्थिति बताने के संदर्भ में लिखा गया है’।

वह बहुत व्याख्या में जाने की बजाय राहुल गांधी की सनातन और सागर की अवधारणा को सतही बताने लगते हैं। इसके बाद वह सीधे नेहरू के धर्म चिंतन को एक घटना के बयान के साथ व्यक्त करते हैं। आगे वह गांधी की अहिंसा की विरोधाभासी स्थिति का ब्योरा देते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि खुद राहुल गांधी में न तो धैर्य है और न ही सहनशीलता।

राम माधव का सनातन धर्म और हिंदू धर्म पर क्या अवस्थिति है, इस जबाब में साफ नहीं होता है। राहुल गांधी के लेख में धर्म चिंतन से जुड़ी कुछ श्रेणियां है जिन्हें भारतीय चिंतन परम्परा से जुड़ी शब्दावलियों से उठाया गया है। मसलन, सागर, सनातन, प्रेम, आनंद, भय, दुख, चराचर, करुणा, ज्ञान, आत्मा, प्राणी, परिवर्तनशीलता, संसार, भव-सागर। राहुल गांधी की धर्म चिंतन प्रणाली को समझने के लिए आशुतोष वार्ष्णेय के साथ एक लंबी बातचीत यूट्यूब पर है जिसमें नागार्जुन के शून्यवाद के बारे में बहस कर रहे हैं और निर्वैयिकता और करुणा शून्यता के बीच के संबंधों में तप की भूमिका को रखने का प्रयास कर रहे हैं।

इसी तरह से प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रघुराम राजन के साथ भारत जोड़ों यात्रा के दौरान आर्थिक व्यवस्था और नीतियों के औचित्य पर बात करते हुए वह जीवन के ठोस कारकों को जीवन की मूलभूत आवश्यकता और चिंतन की दिशा पर बात करते हुए दिखते हैं। निश्चित ही राहुल गांधी के चिंतन पद्धति में कई समस्याएं दिखती हैं। सबसे बड़ी समस्या धर्म को दर्शन का अभिन्न हिस्सा मानना और धर्म से जुड़े मूल्यों को एक चिरतंन निरन्तरता की तरह देखना है।

दूसरा, करुणा को तत्व मीमांसा के अंग की तरह देखना, जो अंततः कर्मवादी चिंतन में बदल जाता है। बहरहाल, यहां हमारा ध्येय राहुल गांधी की चिंतन पद्धति की व्याख्या नहीं है। यह बताना है कि राहुल गांधी की अपनी एक चिंतन पद्धति है, और निश्चय ही इसे वह कांग्रेस पार्टी और उससे जुड़े नेतृत्व की ज्ञान परिपाटी के साथ-साथ अपनी पढ़ाई से भी हासिल किया है। यह बताया जा सकता है कि कांग्रेस और राहुल गांधी का धर्मचिंतन और उसकी क्या समस्याएं हैं।

यह बताना आसान है कि गांधीजी का गीता पर क्या चिंतन है, नेहरू का इतिहास चिंतन क्या है, मौलाना आजाद भारतीय समाज और इस्लाम पर क्या सोचते थे, …। यह बताना भी आसान है कि डा. लोहिया और जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, डा. राधाकृष्णन की चिंतन पद्धति क्या थी। लेकिन, ऐसा आरएसएस और इसी धारा से जुड़े लोगों के बारे में नहीं कहा जा सकता।

आरएसएस से जुड़े पदाधिकारियों द्वारा न तो गीता का कोई भाष्य दिखता है, न धर्म चिंतन पद्धति पर कोई पुस्तक। उनका भारत की जाति और वर्ण व्यवस्था पर क्या चिंतन है, इस पर उनकी कोई व्यवस्थित पुस्तक नहीं है। भारत की धर्म और चिंतन प्रणाली पर कोई पुस्तक है। वे दावा तो सनातन धर्म का कर रहे हैं, लेकिन इस मसले पर उनके द्वारा लिखी गई कोई पुस्तक नहीं मिलेगी। जब वे भारत का भूगोल तय करते हैं, तब वे यह नहीं बताते कि इसे सिंधु सभ्यता से तय करते हैं, अशोक से, कुषाण से, चंद्रगुप्त मौर्य से, या बाद के किस शासक से। जब वे धर्म की बात करते हैं तब वे यह नहीं बताते कि यह सनातन धर्म कब अस्तित्व में आया, क्या यह वैदिक धर्म है, ब्राह्मण धर्म है या और उसके बाद का कोई परिवर्ती रूप।

आज तो बहुत सारे स्रोतों से साफ है कि वैदिक धर्म से पहले भी भारत में धर्म की एक प्रणाली थी। वह भारत के धर्म प्रणाली का हिस्सा है या नहीं। फिलहाल भारत में धर्म की विविध प्रणालियों के आपसी भिडंत के समानान्तर एक साथ अस्तित्व में बने रहने के लिए जिस श्रेणी को ईजाद किया गया उसे सागर, करुणा का नाम दिया गया और फिलहाल वही अभी भी, बहुत कुछ बौद्ध चिंतन प्रणाली के साथ अब भी जारी है। इस पर एक धर्म और प्रणाली पर जोर देने का सीधा अर्थ विसंगतियों और हिंसा के भंवर में फंसना है। आज चुनाव में जब एक धर्म का जोर बढ़ा देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया जा रहा है, विरोधी पक्ष को रावण की तरह दिखाना और उन पर देशद्रोही का ठप्पा चस्पा करने का अर्थ है, देश को एक खास तरह की हिंसा की ओर धकेला जा रहा है।

शायद, राहुल गांधी ने इस खतरे का समझा है और अपनी समझ के अनुसार ‘नफरत के दौर में मुहब्बत की दुकान’ का विकल्प रखा है। यह भी संयोग और विडम्बना ही है कि जब राहुल गांधी को रावण बनाकर पेश किया गया तब वह स्वर्ण मंदिर में लोगों की सेवा करने में जुटे थे। पत्रकार तवलीन सिंह लिखती हैः ‘नरम हिंदुत्व कट्टर हिंदुत्व से नहीं लड़ सकता’ कि कांग्रेस को सेक्युलर राजनीति के साथ सामने आना चाहिए और राजनीति करनी चाहिए, धर्मयुद्ध नहीं’। इस दौर में, निश्चय ही यह सवाल होना चाहिए कि राहुल गांधी क्या कर रहे हैं? यह सवाल भी होना चाहिए कि एक राजनीतिक पार्टी और उसकी पद्धति की असफलता पर लगातार कितने दिनों तक ढोल पीटा जा सकता है!

सुकरात की एक प्रसिद्ध पंक्ति हैः ‘जहां अज्ञानता है, वहां असीम उड़ान है’। आजकल धर्म, खासकर हिंदू धर्म के नाम पर असीम उड़ान जारी है। धर्म के चिंतन पर उठी बहस यदि कुछ ठोस रूप ले और भारत की धर्म चिंतन की व्यवस्था पर बात आगे बढ़े, तो निश्चित ही कोई नुकसान नहीं है। लेकिन, यदि यह बहस हिंसा की असीम उड़ान में बदल जाये, तब यह भारत के धर्म चिंतन के इतिहास को ही नहीं, आगामी चिंतन पद्धति को भी बुरी तरह से प्रभावित करेगा। दरअसल, यह कर रहा है। भारत के विश्वविद्यालय इसका शिकार होना शुरू हो चुके हैं। उम्मीद है, धर्म, दर्शन और चिंतन की प्रणाली पर अन्य पहलकदमी जरूर सामने आयेगी।

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