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सावन के झूलों जितने ही प्रसिद्ध हैं सावन के गीत

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नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

सावन वह मंच है जिस पर बिछे हरे मखमली कालीन पर प्रतिवर्ष धवल नृत्यांगनाओं का नृत्य समारोह होता है। और इस सावन को बहुत बांधा है हमारे साहित्य सर्जकों और कलाकारों ने। इस माह से चूंकि वर्षा का भी आगमन होता है इसलिए वर्षा और सावन की मानो जुगलबंदी होती है। इस जुगलबंदी को शब्दों में साकार करता यह ललित लेखन।

आंसू की तासीर परखने की ऋतु है सावन। आंखें यदि उपजने वाले दुःख के कारण अविरल बरसें या प्रसन्नता के कारण झूमकर बरस पड़ें, याद सावन की ही आती है। सावन मिलन का भी विग्रह है और विरह का भी, हम उसे अपने अपने भाव से पूज सकते हैं। सावन मन की वह भागवत है जिसके आनंद को हमारा मन बांचता है और वह गीतगोविंद है जिसकी हरेक अष्टपदी के हरेक शब्द पर देह का रोम-रोम थिरकता है। सावन की झड़ी में बरसने वाली हर बूंद में नृत्य की पुलक समाई रहती है। ये बरसती नहीं थिरकती हैं।

वैदिक ऋषि वर्षा के देवता पर्जन्य की पिता के रूप में अभ्यर्थना करता है, वाल्मीकि मेघमाल को ऐसी सीढ़ी कहते हैं जिस पर चढ़कर कुटज और अर्जुन की माला से हम सूर्य का अभिनंदन कर सकते हैं। ‘मृच्छकटिकम्’ में शूद्रक गरजते मेघ, आंधी और कौंधती बिजली को आकाश की डरावनी जम्हाई कहते हैं और भर्तृहरि से लेकर जयदेव तक के संस्कृत कवि अपने-अपने ढंग से इस वर्षा को अपने काव्य में गूंथते हैं। ‘मेघदूत’ में कालिदास का यक्ष मेघ को ताज़े खिले हुए कुटज के फूलों का अर्घ्य देकर उसका अभिनंदन करता है और ‘अमरूक शतक’ की नायिका बादलों से कहती है कि कलियों को खिलाने वाली चंदनी गंध से भरपूर हवाओं के झुंड बहक चुके और परिमल से लदा ग्रीष्म भी बीत गया तो हे बादल तुम क्या अब भी उस निष्ठुर प्रेमी को लौटा लाने का प्रयत्न कर सकते हो? इस निराश नायिका की आशा का केंद्र वही बादल है जो कभी कालिदास के यक्ष की आशा का भी केंद्र था। सावन का बादल हरेक को आशा बंधाता है।

ऋतुसंहार में कालिदास को वर्षा आगमन ऐसा प्रतीत होता है मानो पावस जलबिंदुओं से भरे बादलों के मतवाले हाथी पर बैठकर बिजली की पताका थामे, बादलों की गर्जना का मृदंग बजाते राजाओं की तरह ठाठ-बाट लगाकर आ गया हो।

मध्यकाल में मधुर मेह वर्णन
फिर मध्यकाल के आते-आते जायसी, सूर, तुलसी, केशव और मीरा तक अपने-अपने बिंबों में सावन और वर्षा को गूंथते हैं। मीरा सावन की बदरिया को देखकर गा उठती हैं–
बरसै बदरिया सावन की
सावन की मन भावन की
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की

और सूर, जिन्हें हम निरंजन समझते हैं, उनकी आंखें उन राधा-कृष्ण को निहारती हैं जो वर्षा में भीगते-भीगते कुंज में आते हैं। ज्यों-ज्यों भीगते हैं त्यों-त्यों निकट आते हैं। कृष्ण राधा को अपने पीतांबर की ओट में ले रहे हैं और राधा उन्हें अपनी चूनर उढ़ा रही हैं–

कुंजन में दोऊ आवत भीजत
ज्यों ज्यों बूंद परत चूनर पर
त्यों त्यों हरि उर लावत
अधिक झकोर होत मेघन की
द्रुम तरु छिन छिन गावत
वे हंसि ओट करत पीतांबर
वे चुनरी उन उढ़ावत

वही पवन, वही बादल, वही वर्षा, वही मोर और पपीहा लेकिन हमारे जैसे कथित दृष्टिवानों को ये भींजते और एक-दूसरे के निकटतर आते राधा और कृष्ण दिखाई नहीं देते। लेकिन दृष्टिहीन सूर निहार लेते हैं उन्हें और उनकी भंगिमा को शब्दों में अमर कर अपना सूरसागर युगों को सौंप देते हैं।

मध्यकाल में बारहमासे बहुत रचे गए। इनमें केशव का बारामासा सुप्रसिद्ध है जिस पर मध्यकाल की राजस्थानी और पहाड़ की विभिन्न शैलियों में प्रभूत लघुचित्र बने। अपने बारामासे में सावन का वर्णन करते हुए केशव के मन को मिलन के बिंब घेर लेते हैं, समुद्र में समाती नदी, पेड़ों से लिपटी लताएं, अपने मनभावन जल से मोरों के कूजने के बहाने मिलती धरती और बादल से अभिन्न होकर चपल चमकती बिजली उन्हें बहुत मोहती है। केशव वर्षा के समस्त उपादानों को कुछ इस तरह आंखों के सामने प्रस्तुत कर देते हैं–

वर्षा हंस पयान, बक, दादुर, चातक, मोर
केतकि पुष्प, कदंब, जल, सौदामिनी घनघोर

आधुनिक काल में भी अविरल

यही परिदृश्य आधुनिक काल की कविता का भी है। निराला ने बादल का आह्वान किया–

विकल, विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाध के सकल जन
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो
बादल गरजो

और नागार्जुन की आंखें घिरते बादल को देखती हैं, कुछ इस तरह–

अमल धवलगिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है।
छोटे, छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है

और अज्ञेय की पंक्तियां सावन इस तरह याद करती हैं–
रात सावन की
कोयल भी बोली
पपीहा भी बोला
मैंने नहीं सुनी
तुम्हारी कोयल की पुकार
तुमने पहिचानी क्या
मेरे पपीहे की गुहार?
रात सावन की
मन भावन की
पिय आवन की
लोकगीतों में बिखरे
सावन के रंग

लोकगीतों में भी सावन के असंख्य दृश्य हैं, सावन में नववधू को मेहंदी रचाना है, वह पति से यह आग्रह करती है–

पिया मेहंदी लिआय दा मोतीझील से
जाय के साइकिल से ना
जाके मेहंदी लिआबा
छोटी ननदी से पिसआवा
अपने हाथ से लगावा
कांटा कील से

सावन में चैता, कजरी और सावन, मल्हार और बारामासी गाए जाते हैं जिनका अपना रस है। एक कजरी की इन पंक्तियों में राधा रानी से उनकी सखियों की मनुहार है–

राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा
साजो सकल सिंगार नैना सारो कजरा

यह एक झलक भर है साहित्य में सावन की, उसमें होने वाली वर्षा की जो भादो में बहुत तीव्र हो जाती है।

कला में वर्षा के मनोहारी अंकन

ललित कला के अनुशासनों में सावन मास की वर्षा और झूलों ने बहुत लोकप्रियता पाई। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि ‘उत्तरमध्यकाल के चित्रों में वर्षा की फुहारों से भींजते हुए प्रेमीजनों, पावन के झकोरों से विलुलित वसना अभिसारिकाओं, मयूर नृत्य से आत्मविह्वल वियोगिनियों, घनघटा से घबराई हुई पथिक वधुओं और दोला विलास में सुध-बुध भूली संयोगिनियों का बार-बार चित्रण मिलता है।’

वर्षा के मनोहारी अंकन पहाड़, राजस्थान और दकन की शैलियों सहित देश की विभिन्न शैलियों में किए गए। गोवर्धन धारण की लीला जिसमें इंद्र के मानभंग को चित्रित किया गया, मध्यकाल के कलाकारों का प्रिय विषय रहा। इसी प्रकार गीत गोविंद के मंगल श्लोक पर आधारित सुंदर अंकन विभिन्न शैलियों में किए गए। इस श्लोक में वर्षा का वर्णन है। राजस्थान और पहाड़ की विभिन्न शैलियों में हुए रागमाला अंकनों में राग हिंडोला को मनभावन रूप से चित्रित किया गया तथा वर्षा के अंकनों में विभिन्न भंगिमाओं वाली नायिकाओं को रंगों और रेखाओं में चितेरों ने बांध दिया।

शिल्प में भी गोवर्धन लीला बहुतायत से शिल्पित की गई तथा वरुण देवता के अंकन विशेष रूप से दसवीं से लेकर तेरहवीं सदी तक कर्नाटक में राज्य करने वाले होयसल शासकों ने बनवाए। •••

क्या है यह सावन! सच तो यही है कि वह आंसुओं की तासीर परखने की ऋतु है। ये आंसू दुःख के भी होते हैं और प्रसन्नता के भी और इन्हीं अनुभूतियों के कुछ बिंब ख्यात गीतकार स्व. निर्मल ने शब्दों में इस तरह उकेर दिए हैं–

से बरसे प्रीत में सावन के उपमान
ओंकार की आरती और रेवा स्नान
सावन ने ऐसे लिखे बूंद बूंद पर गीत
भावों में संगीत सी लगी बिखरने प्रीत
भक्तिभाव सत्संग की चारों ओर फुहार
श्रद्धा का दर्पण हुए सावन के त्योहार
सहमी सी सांसें खड़ी टूटे घर को दे

क्या ग़रीब की ज़िंदगी क्या ग़रीब के मेघ।

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