शशिकांत गुप्ते
किसी भी जीवित व्यक्ति आत्म जब जागृत हो जाए तब उसकी प्रशंसा ही करना चाहिए।
जब जागे तब सवेरा कहावत का स्मरण करना चाहिए।
तकनीकी सवाल तो यह है,आत्म अनवरत जागती ही रहती, इसलिए जब किसी की आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है,तब कहा जाता है चिरनिद्रा में सो गए।
यह भी मुद्दा विचारणीय है कि, आत्मा को परमात्मा कहा है,तो भला आत्मा सो कैसे सकती है।
बहरहाल बहस का मुद्दा है,आत्म के जागने का समय?
इतना कहते हुए सीतारामजी मुझे मेरी स्वरचित रचना का स्मरण करवाया।
सन 1996 में रचित यह रचना वर्तमान संदर्भ में एकदम प्रासंगिक है।
हमारे मित्र
करते हैं चिंतन
लगातें हैं ध्यान
हमने पूछा श्रीमान
बतलाइए दर्शन का ज्ञान
वह बोले,बड़ा आसान
आत्मा अमर और शरीर नाशवान
हमने पूछा कोई उदाहरण
बोले बड़ा ही साधारण
नीचे भूमि पर देखेंगे
स्वयं ही समझ लेंगे
हमने कहा,
भूमि पर दिखाई देती है सड़क
बोले सही सड़क ही तो
दर्शन की पकड
सड़कों के शरीर मृत और आत्मा अमर
फिर क्यों हम छोड़ देते हैं
मौत से जूझते को सड़क पर?
वह बोले
यहाँ दर्शन है विपरित
हमारी आत्मा मरी हुई
और शरीर जीवित।
यही वास्तविक स्थिति है।
देश के रक्षकों के लिए हवाई सेवा मुहैया करवाने में फाइल तीन सौ पैंसठ गुणित चार दिनों तक विभिन्न टेबलो पर पर्यटन करती रही,और हमारे रक्षक जवानों के जीवन की फाइल ही निपट गई।
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत
इस मुद्दे पर प्रख्यात कवि गिरधर की इस रचना का स्मरण होता है।
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
यदि गिरधर कवि के उक्त उपदेश का स्मरण और उसे आत्मसात किया जाए तो भविष्य में कोई भी निर्णय हवा हवाई नहीं हो सकता बशर्ते कि निर्णय लेने वाले जीवित व्यक्ति की भी आत्मा जाग जाए?
शशिकांत गुप्ते इंदौर