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अपने साथ वित्तीय ‘अन्याय’ के खिलाफ दक्षिणी राज्यों का केंद्र के खिलाफ मोर्चा?

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सत्येंद्र रंजन 

दक्षिणी राज्यों ने अपने साथ वित्तीय ‘अन्याय’ को अब एक बड़ा मुद्दा बना दिया है। लेकिन उनकी शिकायत सुनने के बजाय ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी ने इस मसले को अपने खास प्रभाव राज्यों में राजनीतिक ध्रुवीकरण का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर राज्यसभा में हुई चर्चा का जवाब देते समय मोदी ने यह सवाल उठाने वाले दलों- खासकर कांग्रेस पर उत्तर-दक्षिण का विभाजन पैदा करने का आरोप लगा दिया।    

यह आरोप भाजपा की परिचित शैली के अनुरूप ही है। मसलन,

मतलब यह कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जिस रूप में बहुसंख्यकवाद, हिंदू समाज की संरचना और हिंदी भाषी इलाकों के विशेषाधिकार में यकीन करते हैं, उससे असहमत हर व्यक्ति या संगठन को वे विभाजनकारी और विध्वंसकारी बता देते हैं। उनकी सोच के मुताबिक वर्चस्व की यही मानसिकता “राष्ट्रवाद” है। इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि दक्षिणी राज्यों ने अगर वित्तीय मामलों में अपने साथ नाइंसाफी का सवाल उठाया है, तो इसे उत्तर-दक्षिण के बीच बंटवारा पैदा करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

लेकिन ऐसे नजरिए से समस्याएं हल नहीं हो जातीं। बल्कि उससे समाज में गतिरोध बनते जाते हैं। दीर्घकाल में इसकी भारी कीमत देश को चुकानी पड़ सकती है।

बहरहाल, ताजा विवाद को देखने का एक नजरिया यह भी हो सकता था कि अगर अनेक राज्य एक साथ एक जैसी शिकायत जता रहे हैं, तो विचार किया जाए कि आखिर वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या सचमुच उनकी शिकायतों में कुछ दम है?

गौर कीजिएः

तो अब बात इस बिंदु पर आती है कि इन राज्यों की शिकायतें क्या हैं?

एक आकलन के मुताबिक अगर 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन 543 सीटों के अंदर ही किया जाता है, तो लोकसभा में उत्तर प्रदेश की सीटें 80 से बढ़ कर 91, और बिहार की 40 से बढ़ कर 50 हो जाएंगी। राजस्थान के छह और मध्य प्रदेश के चार सांसद बढ़ जाएंगे। जबकि आंध्र प्रदेश+तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल के आठ-आठ सांसद घट जाएंगे। कर्नाटक का भी लोकसभा में प्रतिनिधित्व 28 से घटकर 26 रह जाएगा।

लेकिन अगर जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा की सीटें बढ़ा कर 848 करने का फैसला होता है, तब आंध्र प्रदेश+तेलंगाना के सांसदों की संख्या में 12, तमिलनाडु की 10 और कर्नाटक के सांसदों की संख्या में 13 की बढ़ोतरी होगी। मगर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के लोकसभा सदस्यों की संख्या में क्रमशः 63, 39, 25 और 23 की बढ़ोतरी होगी। यानी इस रूप में भी हिंदी भाषी राज्यों का राजनीतिक वजन बढ़ेगा।  

अब हम वित्तीय संघवाद के उल्लंघन और ऋण संबंधी पाबंदी से जुड़े मसले की थोड़े विस्तार से पड़ताल करते हैं।पहले वित्तीय संघवाद से जुड़े मुद्दे को लेते हैं।

यहां यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि दक्षिणी राज्य औद्योगिक रूप से अपेक्षाकृत विकसित हैं और इस लिहाज से वे उत्पादक राज्यों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष करों में योगदान के मामले में उनका योगदान उन राज्यों से अधिक है, जिन्हें उपभोक्ता राज्यों की श्रेणी में रखा जाता है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के तहत केंद्र सरकार सभी राज्यों से टैक्स वसूलती है और फिर राज्यों का हिस्सा उन्हें दिया जाता है। केंद्र का तर्क है कि वह ये हस्तांतरण वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप करती है। लेकिन दक्षिण राज्यों का कहना है कि केंद्र ने 14वें और 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों का उल्लंघन किया है। नतीजा यह हुआ है कि केंद्र से उन्हें मिलने टैक्स के हिस्से में गिरावट आती गई है। मीडिया में छपी रिपोर्टों में केंद्रीय बजट दस्तावेजों के हवाले से बताया गया हैः

अब इन आंकड़ों पर भी गौर करेः

तो इस मुद्दे पर बहस छिड़ना लाजिमी ही है। तमिलनाडु के मंत्री पी त्याग राजन ने तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश की विकास यात्राओं का एक विस्तृत विश्लेषण पेश किया है। इसमें उन्होंने दावा किया है कि केंद्र से बड़ी रकम मिलने के बावजूद उत्तर प्रदेश विकास यात्रा में पिछड़ता जा रहा है। (Has Uttar Pradesh’s economy surpassed Tamil Nadu? – Frontline (thehindu.com)). इस तरह दलील यह दी गई है कि टैक्स हस्तांतरण का मौजूदा ढांचा विकास को दंडित और पिछड़ेपन को पुरस्कृत कर रहा है।

जहां तक ऋण के का सवाल है, तो केरल सरकार का कहना है कि केंद्र ने उस पर “वित्तीय प्रतिबंध” लगा दिए हैं।ऐसा Net Borrowing Ceiling (NBC) के प्रावधान के जरिए किया गया है। इसके तहत ना सिर्फ राज्य के बाजार से कर्ज लेने पर रोक लगा दी है, बल्कि राज्य के तहत आने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर भी यह रोक लागू कर दी गई है। केरल का दावा है कि यह कदम संविधान के अनुच्छेद 293 का उल्लंघन है, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर इस अनुच्छेद के प्रावधान लागू नहीं होते।

केरल ने केंद्र के इसी कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे उठाए गए हैँ। जाहिर है कि उन मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट निर्णय देगा। लेकिन इस बीच केरल के पक्ष से सहानुभूति रखने वाले विशेषज्ञों ने कहा है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने वित्तीय संघवाद का क्रमिक रूप से क्षरण करती जा रही है। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद नरेंद्र मोदी ने ‘Cooperative Federalism’ (सहयोगात्मक संघवाद) के रास्ते पर चलने का वादा किया था, लेकिन असल में उनकी सरकार ‘Annihilative Federalism’ (संघवाद की हत्या) के रास्ते पर चल रही है। केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन ने कहा है कि संविधान में भारत को Union of States (राज्यों का संघ) कहा गया था, लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार ने इसे Union over States (राज्यों के ऊपर राज करने वाले संघ) बना दिया है।

मुमकिन है कि दक्षिणी राज्यों की दलील में कुछ अतिशयोक्ति हो, लेकिन निर्विवाद रूप से ये सारी गंभीर शिकायतें हैं। उचित तो यह होता कि केंद्र सरकार संवेदनशीलता दिखाती और दक्षिण से उठ रही शिकायतों को संवाद से दूर करने की कोशिश करती। लेकिन उसका नजरिया हर शिकायत को नजरअंदाज कर उस पर सियासी ध्रुवीकरण शुरू कर देने का है। फिलहाल तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ऐसी सोच देश के हित में नहीं है।

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