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स्प्रिचुअल वर्ल्ड : शब्द-शक्ति और मन्त्र-विज्ञान का निहितार्थ

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 (चेतना विकास मिशन के डायरेक्टर डॉ. विकास मानवश्री की डायरी से)

          *~ आरती शर्मा*

  _क्या आप ने कभी कल्पना की है कि संसार के करीब तीन अरब लोगों में आधे लोग रात में जब सोते रहते हैं तब आधी आबादी दिन के प्रकाश में अपने कार्य में व्यस्त रहती है। यदि वे डेड़ अरब मनुष्य दिन के अपने जागरण-काल में केवल तीन घंटे भी बातें करते हैं तो क्या हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि ये कितनी शक्ति इस प्रकार उत्पन्न करते हैं ?_

        विद्युतीय ध्वनिशास्त्र तथा इंजीनियरिंग के द्वारा गणना करके यदि देखा जाय तो लोग केवल तीन घण्टों में 6000 खरब वाट विद्युत् शक्ति केवल बोल- बोल कर उत्पन्न करते हैं। शब्दों से उत्पन्न यह विद्युत् ऊर्जा दामोदर नदी घाटी, रिहन्द बांध, भाखड़ा नांगल बांध और परमाणु सयन्त्रों की सम्मिलित शक्ति से कहीं अधिक है।

       _इस ऊर्जा से सम्पूर्ण विश्व में घण्टों प्रकाश किया जा सकता और उस ऊर्जा की एक यूनिट का मूल्य मात्र 50 पैसा भी रखा जाय तो इतनी बिजली का मूल्य लगभग अरबों-खरबों रुपये होगा।_

      कल्पना कीजिये कि इतनी बिजली और इतना रुपया मनुष्य केवल होंठ हिलाकर हवा में फूँक मार कर उड़ा देता है।

      जिस स्थान पर तामसिक मन और बिचार वाले लोगों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, उनके मुख से निकलने वाले शब्द भी ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध, लोभ, वासना आदि से भरे हुए होते हैं।

    _वातावरण में पहले घनीभूत होने के बाद उन शब्दों में उत्पन्न ऊर्जा ‘ईथर’ में पहुँचती है जिसे ग्रहण कर प्रकृति कृत्याओं (दैवीय आपदाओं) को जन्म देती है। वे कृत्याएं उस स्थान पर, देश पर नाना प्रकार के संघर्ष, युद्ध, रक्तपात, आदि कराने लग जाती हैं जिससे भयंकर जन-धन हानि होती है।_

       सूखा, अकाल, बाढ़, अतिवृष्टि, महामारी इन्हीं कृत्याओं की देन है जिनसे आज का अज्ञानी मनुष्य अनभिज्ञ है। आचार-विचार, यज्ञ-याग आदि से वातावरण की शुद्धता होती है–जिसकी महत्ता हमारे ऋषि-मुनि समझते थे और वे एक प्रकार से समाज, संसार के वातावरण की शुद्धि करते रहते थे।

      _वैज्ञानिक डॉक्टर बोएड ने एक ऐसा विचित्र यंत्र बनाया था कि जिसके सामने यदि हम बोलने के लिए अपना मुंह तक खोलें तो उसमें उठने वाली तरंगें और कम्पन स्पष्ट देखे जा सकते थे। उस यंत्र के सामने कोई ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे तो यंत्र में लगे कांच के सामान, लट्टू टूट-टूट कर चूर हो कर बिखर जाते थे।_

      इसी प्रकार उच्चारित शब्दों और ध्वनि का प्रभाव हमारे तन-मन पर भी पड़ता है। यह प्रभाव विशेष रूप से हमारे कानों और त्वचा के द्वारा पड़ता है क्योंकि कानों और त्वचा की संवेदनशीलता लगभग एक-सी होती है। शब्दों के लिए कानों की संवेदनशीलता सर्वाधिक होती है।

      _कान सूक्ष्म विद्युत्गृह का काम भी करते हैं। मोटे तौर पर यह समझा जा सकता है कि कान एक प्रकार का माइक्रोफोन होता है। इसकी विशेषता यह होती है कि 20 से 20000 हज़ार की फ्रीक्वेंसी के सुनाई पड़ने योग्य कोई शब्द कान में पड़ते ही विद्युत् धारा प्रवाहित होने लगती है तथा वह सीधे मस्तिष्क तक पहुँचती है।_

        फिर उसके बाद नाना प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया को जन्म देती हुई शरीर के सभी अंगों व ग्रंथियों को सक्रिय एवं विद्युत्युक्त बना देती है। त्वचा पर पहले ध्वनि-चाप का असर पड़ता है, फिर स्नायुतन्तुओं में बिजली का संचार होता है और मस्तिष्क के स्नायुतन्तुओं में भी अल्प मात्रा में बिजली का संचार करती है।

     _शब्दों का सबसे अधिक प्रभाव कानों के स्नायु, अन्य स्नायु, मस्तिष्क, ह्रदय, अन्तःस्रावी ग्रंथियों, पेट, गुर्दे, लीवर, खून और ऑटोनोमिक स्नायु पर पड़ता है।_

      जिस समय हम शब्दों का उच्चारण करते हैं, उस समय सुनने वाले के मस्तिष्क पर दो प्रकार का प्रभाव पड़ता है।

      1–मुख से शब्द निकलने के पहले वक्ता के मस्तिष्क से उसी प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगें निकलती हैं जिन्हें श्रोता का मस्तिष्क ग्रहण करने की चेष्टा करता है।

     2–उच्चारित शब्द वायु के माध्यम से हमारे कानों के छेदों से होते हुए विद्युत् संचार के रूप में मस्तिष्क में पहुँचते हैं और हर्ष, शोक, विषाद, घृणा, क्रोध, भय, वासना आदि के आवेगों को मस्तिष्क में उत्पन्न करते हैं और उन्हीं के अनुरूप शरीर के अंगों में स्फुरण, संदीपन, उत्तेजना आदि की क्रियाएँ होने लग जाती हैं।

     _इस प्रकार शब्द प्रेरणा, स्फुरण, स्फूर्ति, उत्तेजना, संवेदना आदि उतपन्न कर प्रायः शरीर के अंगों में साधारण अवस्था से अधिक ऊर्जा उत्पन्न कर देते हैं। कभी-कभी शिथिलता, निष्क्रियता, जड़ता, आदि भी पैदा कर देते हैं।_            

      स्नायुमण्डल पर शब्दों के विविध प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। व्याकुलता, शरीर की क्लान्ति, कम्पन, चित्त की चंचलता, बुरे भयानक स्वप्न।

उन प्रभावों की स्पष्ट विकृतियां होती हैं। मूर्च्छा, स्मृतिभ्रम, विक्षिप्तता का भी आक्रमण हो सकता है। शब्दों में काम, क्रोध, भय आदि उत्पन्न होने पर हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। इससे ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। खून में विशेष प्रकार का विष (टाक्सिन) उत्पन्न होने लगता है।

       _इसी प्रकार ख़ुशी देने वाला, आशा प्रदान करने वाला शब्द मस्तिष्क, हृदय और खून पर अमृत जैसा काम करता है। प्रिय और अप्रिय शब्दों के अनुसार पेट में भी प्रतिक्रियाएं होती हैं। उनसे भूख और पाचन-क्रिया बढ़ या घट जाती है। इन्हीं सब बातों के द्वारा प्रश्न तथा बातों के माध्यम से उत्तेजित कर अपराधों का पता लगाने के लिए ‘लाई डिटेक्टर’ यंत्र का आविष्कार किया गया है।_

        प्रश्नों और शब्दों की बौछार से अपराधी के शरीर के अंगों में होने वाली क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को विद्युत्-धारा ग्रहण कर रहस्य का बहुत कुछ पता लगाया जा सकता है।

      _क्रोध, घृणा, भयानक शब्दों को सुनकर मनुष्य के उपवृक्क (एड्रीनल ग्लैण्ड) से एक तीव्र स्राव निकलकर उसके रक्त में मिलने लग जाता है जिसे एड्रिनल स्राव कहते हैं। उसके निकलते समय यकृत, लिवर से एक विशेष प्रकार की चीनी (ग्लाईकोजिन) स्वयं निःसृत होने लग जाती है जिससे मूत्रमेह या मधुमेह जैसी भयानक बीमारी हो जाती है।_

      मन्त्रविज्ञान में शब्दों की इन्हीं सब प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर कल्याण, मनोकामना सिद्धि, उच्चाटन, शत्रु-मारण, विद्वेषण, मोहन, वशीकरण आदि के लिए विविध शब्द-प्रक्रियाओं का विधान किया गया है जिन्हें ‘मन्त्र’ कहते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मन्त्र-शक्ति और मन्त्र-विज्ञान का यही मूलाधार है।

      पशु-पक्षी और पेड़-पौधों में सभी में बिजली होती है। वे हमारे शब्दों, ध्वनियों से अत्यन्त सूक्ष्म रूप से प्रभावित होते हैं। हम-आपने प्रायः देखा होगा–फसलों की बुआई, गुड़ाई के समय किसानों की स्त्रियां गाती रहती हैं। वैज्ञानकों के अनुसार संगीत के प्रभाव से पैदावार बढ़ती है।

      _इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों ने एक विशेष प्रयोग किया था। विद्यालय की सभी कक्षाओं के सामने अशोक आदि के वृक्ष लगाये गए थे। उसी प्रकार से संगीत शाला के कक्ष के सामने भी वे ही वृक्ष लगाये गए। सबका समान पालन-पोषण हुआ।_

       लेकिन दो-तीन वर्षों में ही संगीत कक्ष के सामने के पौधों की वृद्धिदर अन्य कक्षों की तुलना में अधिक रही। इससे यही सिद्ध होता है कि शब्दों और ध्वनियों का चमत्कारिक प्रभाव सजीव और निर्जीव पदार्थो पर पड़ता है जो शब्द-शक्ति या ध्वनि-शक्ति की विद्युत् के कारण होता है।

 *अध्यात्म की भावभूमि की ओर :*

      मायारूपी प्रकृति की भूमि में ईश्वर की अद्भुत और रहस्यमयी शक्तियां क्रियाशील हैं। भिन्न-भिन्न देवता उन्हीं शक्तियों के प्रतीकमात्र हैं। यदि यह कहा जाय कि एक ही मूल शक्ति भिन्न-भिन्न भावों और रूपों में क्रियाशील है तो अतिशयोक्ति न होगी।

      _उन विभिन्न शक्तियों से संपर्क स्थापित कर उनसे भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में प्रचुर सहायता लेकर उसे स्वस्थ, समृद्ध और सुख-साधन संपन्न बनाने का एकमात्र माध्यम मन्त्र-यंत्र-तंत्र की सहायता से प्रकट होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है।_

     अगोचर जगत में रात-दिन क्रियाशील शक्ति के प्रतीक देवताओं की अपनी सीमा और कार्य-सम्पादन क्षेत्र है। ये अपनी सीमा के प्रवर्तक और अधिष्ठाता हैं। जिस प्रकार रेडियो स्टेशन से ध्वनि तरंगें और दूरदर्शन केंद्रों से ध्वनि और प्रकाश तरंगें बिना यंत्रों के प्रकट नहीं होतीं, उसी प्रकार से दैवीय जगत की क्रियाशील शक्तियां भी हमारे चारों ओर बिखरी हुई हैं जिनका प्राकट्य उपासना तथा विविधि साधनाओं के माध्यम से साधक के स्थूल शरीर में या इष्ट प्रतिमा में होता है।

      _प्राकट्य के पांच माध्यम हैं–सूक्ष्म दैवीय शक्ति के साधक की काया में प्रकट होने का नाम ‘चिन्मय सृष्टि’ है। इसी प्रकार प्रतिमा में आत्मबल और संकल्प शक्ति के माध्यम से दैवीय शक्ति को आरोपित करने की कला को ‘पीठ सृष्टि’ कहते हैं। इसके कई भेद हैं। पीठ का निर्माण प्रतिमा के आलावा किसी योग्य स्थान विशेष में, शव में, बालक में और नारी में किया जाता है।_     

       तीसरी प्रकार की सृष्टि शुद्ध, पवित्र आत्मा वाले मनुष्य में होती है जिसे ‘आवेश’ कहते हैं। उस आवेश के माध्यम से देवता का प्राकट्य होता है।

      चौथे और पांचवें प्रकार के माध्यम ‘मन्त्र’ और ‘यंत्र’ भी हैं। मन्त्र का विधिवत् जप करने से सूक्ष्म दैवीय शक्तियों से साधक का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।

      फलतः उसके मानस-पटल पर मन्त्र के माध्यम से उस देवता की सृष्टि अथवा प्रकटीकरण होता है। इसे मानसिक सृष्टि भी कहते हैं। चिन्मय सृष्टि और मानसिक सृष्टि में केवल इतना ही अन्तर समझना चाहिए कि चिन्मय सृष्टि ह्रदय में और मानसिक सृष्टि मस्तिष्क या मनोभूमि में होती है। यंत्र में शक्ति के आविर्भाव की कला कुछ भिन्न है।

      _यह ‘पीठ विज्ञान’ के अंतर्गत है। इसकी रचना प्रचुर इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के ऊपर निर्भर है। इसके अभाव के कारण ही यंत्र असफल होते हैं।_

      मन्त्र में वर्ण संयोजन है और यंत्र में अंक और बीजाक्षर दोनों का संयोजन है। जैसा कि हमें ज्ञात होना चाहिए कि शब्द और अंक भासमान या प्रकाशवान हैं। शब्द और अंक दोनों समान प्रकाशमय हैं।

      _एक शब्द में जितने वर्ण होते हैं, वे सब प्रकाश को प्रकट करते हैं। मगर उनका प्रकाश एक-सा नहीं है–भिन्न भिन्न वर्णों का होता है। यहाँ वर्णों का आशय रंगों से है। वर्ण (अक्षर)को वर्ण की इसीलिए संज्ञा दी गयी है उसमें वर्ण (रंग)होते हैं। एक शब्द अपने वर्णों के सामूहिक प्रकाश को व्यक्त करता है।_

        वह प्रकाश विभिन्न रंगों का एक पुञ्ज समान  होता है। अंकों में भी यही बात समझी जा सकती है। वर्णों की तरह अंकों की भी संख्या है। एक से नौ तक की संख्या मूल संख्या है। इसके बाद शून्य है। यह एकाकी अवस्था में व्यर्थ है।

      _किन्तु जब 1 से 9 की संख्या के साथ जुड़ता है तो उसके भीतर वह दस गुनी शक्ति बढ़ा देता है। किसी भी अंक का प्रकाश शून्य के योग से दस गुना अधिक हो जाता है। प्रकाश का आविर्भाव कम्पन से और कम्पन का जन्म ध्वनि से होता है।_

      इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक शब्द और अंक प्रकाशमय, कम्पनमय और ध्वनिमय हैं।

जिन नौ लोकों या खण्डों की चर्चा हुई है, उनमें सूर्य से लेकर अन्य सभी ग्रहों की स्थिति है। सूर्य नक्षत्र ब्रह्म की सीमा पर और सूक्ष्म जगत की सर्वप्रथम भूमि में स्थिति है। यहाँ से सात लोक पर्यन्त उसकी किरणें अगोचर रहती हैं।

     _आठवें लोक में आकर वे प्रकट होती हैं और नवें में अर्थात् भूलोक में वे रश्मियाँ प्रकाशमयी होती हैं। रश्मियाँ विविध रंगों की हैं–श्वेत, पीत, श्याम, हरित आदि। इसका कारण विभिन्न लोकों विभिन्न अणु ही हैं जिनका स्पर्श कर वे धरातल पर अवतरित होती हैं।_

        ग्रहों के जो भिन्न-भिन्न वर्ण है, वे विविध वर्ण रश्मियों के कारण ही हैं। प्रत्येक लोक में ग्रहों के अतिरिक्त क्रम से नक्षत्रों में भी स्थित है। वे सभी ग्रह और कुछ नक्षत्र सूर्य की रश्मियों के कारण प्रकाशित और वर्णमय हैं, फिर भी अंतरिक्ष में अनेक ऐसे नक्षत्र हैं जो स्वयं प्रकाशित और वर्णमय हैं। उनमें स्वयं का प्रकाश है।

      यंत्र के निर्माण और सिद्धि के समय उनसे सम्बंधित ग्रह-नक्षत्रों का महत्त्व है। सूर्य की विभिन्न रश्मियाँ विभिन्न लोकों, ग्रहों और नक्षत्रों के अणुओं का स्पर्श करती हुई पृथ्वी पर जब अवतरित होती हैं तो उनके प्रभाव से वहाँ नाना प्रकार की औषधियों और वनस्पतियों का निर्माण होता है।

     _जिस नक्षत्र में जिस औषधि का निर्माण होता है, उस नक्षत्र से युक्त तिथि को उस औषधि का सेवन लाभप्रद बतलाया गया है।_

      अध्यात्म वेत्ताओं ने वाणी के चार रूप बतलाये हैं–परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। जो जीभ, ओष्ठ, दन्त, तालु, कण्ठ आदि से उच्चारण कर बोली जाती है और जिसे कान सुनते हैं, उसे ‘बैखरी’ वाणी कहते हैं। परिष्कृत मन की वाणी को ‘मध्यमा’ कहा जाता है और जिसे नेत्र सुनते हैं। हृदय की वाणी को ‘पश्यन्ति’ कहते है जिसे केवल हृदय ही सुनता है। ‘परावाणी’ आत्मा की वाणी है। उसे आत्मा सुनती है।

     _आत्मा के अंतरंग क्षेत्र में जो ‘अनहद’ ध्वनि उत्पन्न होती है, उस सन्देश को दूसरी आत्माएं सुनती हैं। यह सन्त, महात्माओं, सिद्ध, साधकों और योगियों की वाणी है। देववाणी भी इसी को कहते हैं जो सीधे मनुष्य के अंतःकरण में प्रवेश कर जाती है।_

         ‘बैखरी’ के आलावा अन्य सूक्ष्म वाणियों को शास्त्रकारों ने इन्द्रियातीत अनाहद ‘शब्दब्रह्म’ और ‘नादब्रह्म’ के रूप में प्रस्तुत कर उनकी शब्द-शक्ति की महिमा का वर्णन किया है। अब जबकि विज्ञान ने ‘पराध्वनि’ के रूप में अश्रव्य (न सुनने योग्य) ध्वनियों को खोज निकला है तो हमारे ऋषियों का प्रतिपादन सत्य प्रतीत होने लगा है कि इस सृष्टि की उत्पत्ति ही ‘शब्द-शक्ति से हुई है।

      _विज्ञान कहता है कि हम ध्वनि-तरंगों के अनन्त सागर में तैर रहे हैं। हम जो भी बोलते हैं, उसका कभी विनाश नहीं होता। वह सूक्ष्म ध्वनि-तरंग के रूप में हमारे चारों ओर चक्कर काटता रहता है और अनन्त काल तक अस्तित्व में बना रहता है।_

      इस संसार में शब्दरूप में अब तक जितने  नियम प्रकट किये गए हैं, उन सबकी सूक्ष्म तरंगें हमारे मस्तिष्क की पकड़ में आकर हमें नए विचार दे जाती है लेकिन इसके लिए मस्तिष्कीय तरंगों की फ्रीक्वेंसी ब्रह्माण्डव्यापी सूक्ष्म तरंगों से समरस होना आवश्यक है।

सापेक्षवाद का सिद्धान्त ऐसे ही एक अवसर की देन है। पाश्चात्य  विद्वान ‘लायन वाटसन’ का मानना है कि गहन चिन्तन की स्थिति में ‘आइंस्टीन’ के मस्तिष्क से ‘अल्फ़ा’ तरंगे निकला करती थीं। ज्ञातव्य है कि अलग अलग स्थिति में से मानवीय मस्तिष्क से ‘अल्फ़ा’, ‘वीटा’ ,’थीटा’ और ‘डेल्टा’ तरंगे निकला करती हैं। ये सारी मस्तिष्कीय तरंगें हैं।

     _ध्यान और गहनतम चिन्तन की स्थिति में प्रायः ‘अल्फ़ा’ तरंगे निकला करती हैं। ऐसी स्थिति में योगी और साधक सूक्ष्म जगत से संपर्क स्थापित कर लेते हैं। ऐसी ही गहन स्थितियों में ऋषियों को वेद उपलब्ध हुए थे।_

        शब्द-शक्ति की अपनी अत्यन्त सूक्ष्म तरंगें होती हैं जिनको सुना नहीं जा सकता। तंत्रशास्त्र शब्द-शक्ति की सूक्ष्मतम तरंगों पर आधारित है। तंत्र के विलक्षण और अविश्वसनीय कार्य उन्हीं तरंगों की सहायता से होते हैं।

 शब्द-शक्ति कितनी सामर्थ्यवान है, उसकी सूक्ष्मतम तरंगें कितनी प्रबल हैं–इसे विज्ञान ने भी अब स्वीकार कर लिया है। इन सूक्ष्मतम तरंगों से निकटवर्ती या दूरवर्ती किसी भी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। ‘ईथर’ के संपर्क में आने पर वे सूक्ष्मतम तरंगें हज़ारों लाखों नहीं, करोडों मील की दूरी एक सेकेण्ड में पूरी कर लेती हैं।

      _कहने की आवश्यकता नहीं– योगी साधकगण ईथर की सहायता से उन सूक्ष्मतम तरंगों द्वारा क्षणमात्र में  किसी भी लोक से अपना संपर्क स्थापित कर लेते हैं।_

      चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह चौरासी अंगुल का मानव शरीर जीव को प्राप्त होता है। भारतीय मनीषियों ने दो प्रकार से मानव शरीर की श्रेष्ठता स्वीकार की है। एक तो यह कि जो समस्त विश्व की नियंत्रणकारिणी शक्ति है, उसकी सर्वश्रेष्ठ लीलाएं मानव शरीर के आश्रय से ही प्रकट होती हैं।

     _परब्रह्म के तो अनेक अवतार हुए किन्तु जो अवतार सर्वाधिक मानवीय हैं, वे हैं– कृष्ण और बुद्ध जिनके आश्रय से इस काल की समस्त धर्म-साधना और काव्य-साधना विकसित हुई है।_

      दूसरा यह कि वह जगत की नियंत्रणकारिणी शक्ति जिसे महामाया, आदिशक्ति, पराशक्ति, कुण्डलिनी शक्ति आदि विविध नामों से सम्बोधित किया गया है जो घट-घट में है और अणु-परमाणुओं में है, परन्तु मानव शरीर ही एक ऐसा केंद्र है कि जिसका आश्रय लेकर अपने आपको पूर्णरूप से विकसित कर सकने में समर्थ होती है वह।

शक्ति का आश्रय और विकास-केंद्र होने के कारण मानव शरीर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सम्बंधित बतलाया गया है। जो ब्रह्माण्ड में है, वह सब शरीर में है–इस सत्य को सभी ने समय-समय पर स्वीकार किया है–‘यत् पिण्डे, तत् ब्रह्माण्डे’ या ‘यत् ब्रह्माण्डे, तत् पिण्डे च अप्यास्ति।’

      _प्रत्येक अणु-परमाणु में, प्रत्येक कण-कण में,  प्रत्येक पिण्ड में वही एकाकी शक्ति भिन्न-भिन्न रूपों में विद्यमान है। प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक जीव उसका विचार, इच्छा, क्रिया, ज्ञान, अनुभूति आदि के रूप में हर पल अनुभव करता है।_

        मानव पिण्ड में जहाँ एक ओर वह महाशक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित है, वहीँ दूसरी ओर कुण्डलिनी के रूप में स्थित है। कुण्डलिनी से मेरा तात्पर्य है मानव पिण्ड स्थित जगत नियंत्रणकारिणी शक्ति। वह महाशक्ति का मूल केंद्र है, जहाँ से वह खण्ड-खण्ड होकर विज्ञान, ज्ञान, विचार, इच्छा, क्रिया आदि रूपों में प्रकाशित होती है।

      _कुण्डलिनी केवल मानव पिण्ड में ही है, अन्य प्राणियों में नहीं। यहाँ तक कि देवशरीर में भी इसका अभाव है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी प्राणी शक्ति द्वारा संचालित हैं। सबसे बड़ी एक यह भी विशेषता है कि कुण्डलिनी के कारण जहाँ मनुष्य का सञ्चालन होता है, वहीँ वह उस शक्ति को भी अपनी इच्छानुसार संचालित कर सकने में समर्थ है।_

        किन्तु यह सामर्थ्य उसे तभी प्राप्त होती है जब वह कुण्डलिनी को यौगिक क्रियायों के माध्यम से जाग्रत कर लेता है। यह सामर्थ्य प्राप्त करना ही मानव जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों में से एक है। कुण्डलिनी को जाग्रत कर शक्ति को संचालित करने में उसको कई ऐसी मानवेतर स्थितियों का लाभ होता है जो उसके लिए परम सुख, परम आनन्द, परम पद आदि के साधन सिद्ध होते हैं।

मानव शरीर को महत्व देने का यह एक विशेष् कारण है। दूसरी विशेषता है उसकी वाणी, उसका प्राण, उसका मन और उसका बिन्दु अर्थात् शुक्र। मानव शरीर स्थित ये सारी वस्तुएं एक साथ अन्य प्राणियों में दुर्लभ हैं।

     _ये सभी वस्तुएं अपार और अनन्त शक्तियों की आश्रय हैं। योग और तंत्र में इन्हें ‘पंचाग्नि’, ‘पंचामृत’, ‘पंचविज्ञान’ आदि नामों के अलावा सभी प्रकार योग-तान्त्रिक साधनाओं का आधार बतलाया गया है।_

        परम तत्व की जो पराशक्ति है, वह जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड में है और है क्रियाशील, उसी प्रकार मानव पिण्ड में भी व्याप्त है और क्रियाशील है। मुख्य रूप से मनुष्य में वह इच्छा, ज्ञान और क्रिया के रूप में विद्यमान है जिसे ‘त्रिपुरा शक्ति’ कहा गया है। अन्य प्राणियों में यह ‘त्रिपुरा’ रूप का अभाव है, यहाँ तक कि देवताओं में भी अभाव है।

      _इसका कारण यह है कि देवता प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप हैं। वे भोगयोनि में हैं। उनमें केवल भोगने की शक्ति है उनमें, कर्म करने की नहीं। वे जिस कार्य के निमित्त हैं, उससे अधिक या कम की उनमें इच्छा ही नहीं होती। किन्तु मनुष्य में कर्म करने की और कर्मफल भोगने की दोनों शक्तियां विद्यमान हैं।_

         वह कर्म द्वारा भोग वस्तु को प्राप्त कर सकता है और इच्छानुसार उसे भोग भी सकता है। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है कि मनुष्य को ही केवल इच्छा, ज्ञान, क्रिया की ‘त्रिधारा’ प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त है प्रकृति की ओर से। इसीलिए परमात्मसत्ता को जब कभी प्रकृति को ठीक करना होता है तो उसे नर-देह धारण करना पड़ता है।

   _देह तो वह और भी धारण कर सकता है, और करता भी है ; पर नर-देह में उसका पूर्णावतार होता है। बिना नर-देह धारण किये परमात्मा कोई भी लीला जगत के कल्याणार्थ नहीं कर सकता।_

   (चेतना विकास मिशन)

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