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आत्म~शोधन का विज्ञान है अध्यात्म 

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डॉ. विकास मानव

     अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन-धारा है, विद्या है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है, ऋषियों, मनीषियों के चिंतन का निचोड़ है, उपनिषदों का दिव्य प्रसाद है।

       आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म।

अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना। अध्यात्म का आशय आत्मा संबंधी चिंतन से है।

        समग्र मानसिक चेतना और कठिन साधना के इसे जान पाना असंभव है। 

गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है :

*परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।*

आज के समय में योग, प्राणायाम और ध्यान को ही अध्यात्म समझा जाता है। परन्तु इसे जानने के लिए ये केवल साधन मात्र हैं। इन विधियों के द्वारा अध्यात्म को जानने की साधना की जाती है। अध्यात्म इन सभी विद्याओं से परे है, यह महाविद्या है।

      इसे जान लेने के पश्चात और किसी विषय-वस्तु को जानने की आवश्यकता नहीं होती। ‘आत्मनि अधि इति अध्यात्म:’ अध्यात्म के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। अर्थात् इसके द्वारा जीवन और मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। 

 शरीर का जन्म व मृत्यु होती है, जो कि न जीवन है न मृत्यु। आसान शब्दों में कहा जाय तो इस पूरी आध्यात्मिकता का उद्देश्य उस चीज को प्राप्त करने के प्रयास से है, जिसे यह धरती वापस नहीं ले सकती।

       अपना यह शरीर धरती से लिया गया एक कर्ज है, जिसे धरती पुरा का पुरा वापस ले लेगी। लेकिन जब तक यह शरीर आपके पास है, आप इससे ऐसी चीजें बना सकते हैं, जो ये धरती आपसे वापस नहीं ले सके।

        चाहे आप प्राणायाम करें या ध्यान, आपकी कोशिशें आपकी जीवन ऊर्जा को एक तरह से रुपान्तरित करने की विधि है। अगर इस सु्क्ष्म त्तत्व को पाने का प्रयत्न नहीं करेंगे तो जीवन के अंत में शरीर के साथ ही साथ अपना सबकुछ छिन जायेगा।

आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है। जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय,अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है तभी हमारी दूरी बढती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है।

        ये तो असंभव सा जान पड़ता है-मिटटी के बर्तन मिटटी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे ? यह विषय विचारणीय है।

      अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है। स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं,परोक्ष व अपरोक्ष रूप से।

स्व के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं,सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं।

       जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं,जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है।

     हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है – हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है।

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता।

       ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं। हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है ।

      अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे।

       गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है :

    *यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।*

*तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ।।*

      [हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है,  उस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।]

   अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ?  बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा।

    आपकी धारणा आपको तदनुरूप क्रिया में उन्मुख करती है और आपकी क्रियात्मकता आगे की गति-प्रगति निर्धारित करती है.

     तो अगर किसी को सुपरसत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और सत्य में स्थित होकर स्वयं को निश्चिन्त कर लें। काम बन जाएगा.   नहीं तो जीती बाज़ी भी हार जायेंगे।

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