~ प्रखर अरोड़ा
होली का पर्व भारतवर्ष में एक प्रमुख पर्व माना जाता है, होली हिंदुओं का विशेष त्यौहार है जो ज्यादातर मार्च के महीने में बनाया जाता है। होलिका दहन, होली त्योहार का पहला दिन, फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसके अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा है जिसे धुलेंडी, धुलंडी और धूलि आदि नामों से भी जाना जाता है।
भारत में मनाए जानेवाले सबसे शानदार त्योहारों में से एक है ‘होली’। दीवाली की तरह ही इस त्योहार को भी अच्छाई की बुराई पर जीत का त्योहार माना जाता है।
होली के रंगों के साथ साथ प्रेम के रंग में रंग जाने की चाह तो भक्त को भी है, और प्रेमी प्रेमिका को भी है।वैष्णव परंपरा मे होली को, होलिका-प्रहलाद की कहानी का प्रतीकात्मक सूत्र मानते हैं।प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है।
भगवान कृष्ण की लीलाओं में भी होली का वर्णन मिलता है | अन्य रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं।
वैदिक काल में इस पर्व को ‘नवान्नेष्टि’ कहा गया है। इस दिन खेत के अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है। इस अन्न को होला कहा जाता है इसलिए इसे होलिकोत्सव के रूप में मनाया जाता था।इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा बसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है। कुछ लोग इस पर्व को अग्निदेव का पूजन मात्र मानते हैं। मनु का जन्म भी इसी दिन का माना जाता है अत: इसे मन्वादि तिथि भी कहा जाता है।
होली मनाने के पीछे एक कथा है जो पौराणिक काल से चली आ रही है, इस कथा में ही होली मनाने का रहस्य छिपा हुआ है।
इस त्योहार को लेकर सबसे प्रचलित है प्रहलाद, होलिका और हिरण्यकश्यप की कहानी। पुराणों के अनुसार दानवराज हिरण्यकश्यप ने जब देखा कि उसका पुत्र प्रह्लाद सिवाय विष्णु भगवान के किसी अन्य को नहीं भजता, तो वह क्रुद्ध हो उठा और अंततः उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया की वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नुक़सान नहीं पहुंचा सकती।
होलिका जलकर भस्म हो गई और भक्त प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। इसी घटना की याद में इस दिन होलिका दहन करने का विधान है।इसे हिन्दू धर्म में बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक मानते हुए प्रतिवर्ष फाल्गुण पूर्णिमा की रात होलिका दहन की परंपरा है। होली का पर्व संदेश देता है कि इसी प्रकार ईश्वर अपने अनन्य भक्तों की रक्षा के लिए सदा उपस्थित रहते हैं।होली की केवल यही नहीं बल्कि और भी कई कहानियां प्रचलित है।.
होली की एक कहानी कामदेव की भी है।माता पार्वती शिव से विवाह करना चाहती थीं लेकिन तपस्या में लीन शिव का ध्यान उनकी तरफ गया ही नहीं। ऐसे में प्यार के देवता कामदेव आगे आए और उन्होंने शिव पर पुष्प बाण चला दिया। तपस्या भंग होने से शिव को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी और उनके क्रोध की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए।कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति रोने लगीं और शिव से कामदेव को जीवित करने की गुहार लगाई।
अगले दिन तक शिव का क्रोध शांत हो चुका था, उन्होंने कामदेव को पुनर्जीवित किया। कामदेव के भस्म होने के दिन होलिका जलाई जाती है और उनके जीवित होने की खुशी में रंगों का त्योहार मनाया जाता है।
होली का श्रीकृष्ण से गहरा रिश्ता है। जहां इस त्योहार को राधा-कृष्ण के प्रेम के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। वहीं, पौराणिक कथा के अनुसार जब कंस को श्रीकृष्ण के गोकुल में होने का पता चला तो उसने पूतना नामक राक्षसी को गोकुल में जन्म लेने वाले हर बच्चे को मारने के लिए भेजा। पूतना को स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था।
लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए। उन्होंने दुग्धपान करते समय ही पूतना का वध कर दिया। कहा जाता है कि तभी से होली पर्व मनाने की मान्यता शुरू हुई।ब्रज की होली, मथुरा, वृंदावन बरसाने की होली और काशी की होली पूरे भारत में मशहूर है।
*होली का आध्यात्मिक रहस्य :*
होली का त्योहार शिवरात्रि के बाद, फाल्गुन पूर्णिमा के दिन आता है और लोग प्रायः चार प्रकार से मनाते हैं :
1-एक दूसरे पर रंग डालते हैं,
2-अंतिम दिन होलिका जलाते हैं,
3-मंगल मिलन मनाते हैं और
4-कई लोग झूले में श्रीकृष्ण (श्री नारायण) की झांकी भी सजाते हैं।
होली को मनाने की तिथि और उपर्युक्त चार रीतियों पर ध्यान देने से होली के वास्तविक रहस्यों को सहज ही समझा जा सकता है। भारत में, देशी वर्ष फाल्गुन की पूर्णमासी को समाप्त होता है।
इसलिए, फाल्गुन की पूर्णमासी की रात्रि को होलिका जलाने का अर्थ पिछले वर्ष की कटु और तीखी स्मृतियों को जलाना और अपने दुखों को जलाना, अपने दुखों को भूलना और हँसते-खेलते नए वर्ष का आह्वान करना है। उत्तर प्रदेश में कई लोग ‘होलिका दहन’ को ‘संवत जलाना’ भी कहते हैं।
इसके अतिरिक्त, पुराने वर्ष के अंत में इस त्योहार को मनाया जाना वृहद दृष्टि में इस रहस्य का भी परिचय देता है कि यह त्योहार पहले-पहले कल्प अथवा कलियुग के अंत में मनाया गया था जिसके बाद सतयुग के अंत में होलिका जलाने से मनुष्य का दुख, दरिद्रता और वासना तथा व्यथा सब दूर हो गए थे। परंतु प्रश्न उठता है कि होलिका जलाने से मनुष्य के विकार और विकर्म तथा दुख और क्लेश भला कैसे नाश हो सकते हैं?
‘होलिका’ शब्द का अर्थ है ‘भुना हुआ अन्न’। होलिका के अवसर पर लोग अग्नि में अन्न डालते हैं और गेंहू और जौ कि बालों को भूनते हैं। योगियों की बोलचाल में ज्ञान अथवा योग को अग्नि से उपमा दी जाती है क्योंकि, जैसे भूना हुआ बीज आगे उत्पति नहीं कर सकता वैसे ही ज्ञान-युक्त और योग-युक्त अवस्था में किया गया कर्म भी अकर्म हो जाता है अर्थात वह इस लोक में विकारी मनुष्यों के संग में फल नहीं देता।
अतः ‘होलिका’ शब्द भी हमें इस बात की स्मृति दिलाता है कि परमपिता ने पुरानी सृष्टि के अंत में मनुष्यों को ज्ञान-योग रूपी 5-अग्नि द्वारा कर्म रूपी बीज़ को भूनने की जो सम्मति दी थी, हम उस पर आचरण करें।
एक-दूसरे पर रंग डालने तथा छोटे-बड़े, परिचित-अपरिचित सभी से प्रेमभाव से मिलने की जो रीति है, इसका शुरू में यही रूप था कि परमपिता परमात्मा शिव से ज्ञान प्राप्त करके मनुष्यों ने ज्ञान-पिचकारी से एक दूसरे की आत्मा रूपी चोली को रंगा था और एक-दूसरे के प्रति मन-मुटाव तथा मलीन भाव त्यागकर मंगलकारी परमात्मा शिव से मंगल मिलन मनाया था। ज्ञान के बिना मनुष्य मंगल मिलन नही मना सकता है।
अज्ञानी और मायावी मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि राक्षसी स्वभावों से दूसरों का अमंगल करता है।
होली के उत्सव पर वैष्णव लोग झूले में श्रीकृष्ण की झांकी सजाकर उनके दर्शन करते हैं। उनका यह विश्वास है कि ‘इस दिन जो व्यक्ति झूले में झूलते हुए श्रीकृष्ण जी के दर्शन करता है, वह वैकुंठ में देव-पद का भागी बनता है।
वह वैकुंठ में भी श्रीकृष्ण जी का निकट्य प्राप्त करता है अथवा वहाँ भी उनके साथ-साथ झूलने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
वास्तव में श्रीकृष्ण जी के दर्शन का मतलब है ‘श्री कृष्ण जी की जीवन कहानी का वास्तविक ज्ञान।
जो मनुष्य स्वयं को ज्ञान के रंग में रंगता है , उसे वैकुंठ में झूलते हुए श्रीकृष्ण के दर्शन तो होते ही हैं।वह तो इस दुनिया में रहते हुए भी मानो नहीं रहता बल्कि वैकुंठ में श्रीकृष्ण को झूलता देखता है। इतना ही नहीं, वह तो स्वयं भी ज्ञान-आनन्द के झूले में झूलता है। जो एक बार उस झूले में झूलता है, उसे विषय-विकार फिर अपनी ओर आकर्षित नहीं करते।
उसके लिए होली का उत्सव ‘ मंथन’ (ज्ञान–मंथन) उत्सव है। पुराण की घटनाएं इतिहास नहीं बल्कि मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित सत्य है.