अग्नि आलोक

आदिवासियों की हत्या करने की खुली छूट के खिलाफ खड़े हों !

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जब कभी माओवादियों के हमले में पुलिस मारी जाती है, तब मुख्य धारा की मीडिया यह प्रचारित करते नहीं थकती है कि मारे गये पुलिस की अभी एक साल पहले ही शादी हुई थी, कि उसकी पत्नी गर्भवती है और एक माह बाद बच्चे को जन्म देने वाली है…ब्लां ब्लां कहते हुए उसका क्लोजअप तस्वीर वीडियो प्रचारित करती रहती है.

टीवी मीडिया की एंकर गला फाड़कर चीखती-चिल्लाती-चिग्घाड़ति उस मरे पुलिस के परिजनों का विडिओ चलाती नजर आती है. लेकिन यह तथाकथित एंकर अप्सराएं यह नहीं बताती है कि माओवादियों के हमले में मारा गया यह पुलिस किस कदर आदिवासियों पर जुल्म ढ़ाता है. उसके बेटे-बेटियों की हत्या करता है.

ऐसी ही एक और आदिवासी युवा की नृशंसतापूर्ण कायराना हत्या इस पुलिसिया गिरोह ने किया है. उपर्युक्त तस्वीर में हिमांशु कुमार और सोनी सोरी के बीच में जो आदिवासी माता-पिता खड़े हैं, उनके बीस साल के इकलौते बेटे को 20 दिसंबर 2022 को पुलिस ने खेत में जान से मार डाला और बाद में नक्सली कह कर उनकी लाश को जबरदस्ती जला दिया. यह एक हफ्ता पहले की बात है.

छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले की घटना है. वह इनका इकलौता बेटा था. एक साल पहले शादी हुई थी. बहु गर्भवती है. एक महीने बाद बच्चा होने वाला है. यह खबर मुख्यधारा की गोदी मीडिया से गायब है. अब कोई भी एंकर अप्सराएं टीवी पर नमूदार नहीं होती है कि पुलिस ने एक निर्दोष आदिवासी युवा, जिसकी शादी महज एक साल पहले हुई थी और उनकी पत्नी गर्भवती है, जो अगले माह अपने बच्चे को जन्म देगी.

तस्वीर में हिमांशु कुमार के बराबर में जो आदिवासी युवक खड़ा है, वह इस हत्या का चश्मदीद गवाह है. जगदलपुर में इन लोगों ने मीडिया को यह सब बताया. वे लोग एफआईआर करवाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इसी बीच पुलिस चश्मदीद गवाह और माता-पिता को डराने धमकाने की कोशिश की जा रही है.

स्थिति इतनी भयानक है कि पुलिस द्वारा लाश जलाने की कार्रवाई का विडिओ बना रहे दो ग्रामीणों का मोबाइल फोन पुलिस ने जप्त कर लिया और अब तक वह मोबाइल फोन वापस नहीं दिया गया है. जाहिर है पुलिस द्वारा यह सबूत मिटाने की कोशिश है.

इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस युवक की हत्या में वही पुलिस शामिल है, जिस कैम्प का स्थापना किये मात्र दस दिन ही बीता था, यानी 9 दिसम्बर, 2022 को यह कैम्प स्थापित किया गया था. इसी से समझ आ जाना चाहिए कि आखिर आदिवासी पुलिस कैम्प का विरोध क्यों करते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता और पीड़ित परिवार अपने एकमात्र पुत्र के हत्यारे पुलिस के खिलाफ न्याय की तलाश में न्यायालय जाने की बात तो जरूर कर रहे हैं लेकिन आदिवासियों के विरोध में खड़ी न्यायपालिका खासकर सुप्रीम कोर्ट का आदिवासी विरोधी रवैया लोगों को हतोत्साहित भी कर रहा है.

मौजूदा संवैधानिक तौर पर कानून हर किसी के लिए बराबर है. नैसर्गिक न्याय के तहत हरेक को समान अधिकार प्राप्त है. अगर पुलिस को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार है तो आप माओवादियों के द्वारा कानून हाथ में लेने का विरोध कैसे कर सकते हैं ? या फिर आप आदिवासियों को मजबूर कर रहे हैं कि वह भी बिरसा मुंडा, सिद्धु-कान्हू की परम्परा का अनुसरण करते हुए हथियार उठा लें.

बहरहाल, सवाल सरकार से है और हमें आदिवासियों के साथ खड़ा होना होगा क्योंकि पंजाब के क्रांतिकारी कवि ‘पाश’ ने कहा है –

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना

सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

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