अग्नि आलोक

मुझे उम्मीद है फिर भी…

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अरुण कमल

मैंने देखा साथियों को
हत्यारों की जै मनाते

मेरा घर नीलाम हुआ
और डाक बोलने आये अपने ही दोस्त

पहले जितना खुश तो नहीं हूं मैं
न हथेलियों में गर्म जोशी
न ही आदमी में पहले सा भरोसा
उतनी उम्मीद भी नहीं है अब
हरापन भी पक कर स्याह पड़ गया है

फिर भी मैं जानता हूं कि अभी-अभी
मारकोस मनीला से भागा
जहां तोप के मुंह में मुंह लगाए खड़ा
पन्द्रह साल का एक लड़का
व्हिसिल बजाता

जानता तो हूं कि बेबी डॉक
जल्दी-जल्दी जांघिया पहनता
हवाई पट्टी पर दौड़ा
हाइती से बाहर
और जिन औरतों ने चौखट के पार कभी
पांव नहीं डाला
उन्होंने घेर ली देश की संसद अचानक
इसलिए उम्मीद है कि मेरा घर
मुझे मिलेगा वापस

उम्मीद है कि जनरल डायर ज़िन्दा नहीं बचेगा
अभी भी जलियांवाला बाग में
अपने पति की लाश अगोरती बैठी है वो औरत
कि लोग सुबह तक आएंगे ज़रूर

नये दोस्त बनेंगे
नयी भित्ती उठेगी
जो आज अलग है
कल एक होंगे

पत्थर की नाभि में अभी भी कहीं
ज़िन्दा है हरा रंग-
मुझे उम्मीद है फिर भी…

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