राजेन्द्र शर्मा
*यूपी + बिहार = गई मोदी सरकार!*
उत्तर प्रदेश में लखनऊ में समाजवादी पार्टी के कार्यालय के बाहर लगाया गया यह बैनर पिछले महीने के बिहार के घटना विकास के बाद से देश के राजनीतिक वातावरण में शुरू हुए बदलाव की ओर बलपूर्वक संकेत करता है। हैरानी की बात नहीं है कि उक्त बैनर पर अखिलेश यादव और नीतीश कुमार की तस्वीरें साथ-साथ लगाई गई हैं। ये तस्वीरें नीतीश कुमार के सितंबर के शुरू में दिल्ली की यात्रा कर, अखिलेश यादव व मुलायम सिंह यादव समेत, अनेक महत्वपूर्ण विपक्षी नेताओं से मुलाकात करने की पृष्ठïभूमि में लगाई गई थीं। जैसाकि सभी जानते हैं, इस यात्रा के क्रम में नीतीश कुमार ने, जो जनता दल यूनाइटेड के सर्वोच्च नेता हैं और लगभग दो दशकों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं, अन्य कई प्रमुख राजनीतिक हस्तियों के अलावा एक ओर कांग्रेस के और सीपीआइ (एम) तथा सीपीआइ के शीर्ष नेताओं से और दूसरी ओर आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो केजरीवाल से मुलाकात कर, 2024 आम चुनाव के लिए भाजपा के खिलाफ विपक्षी पार्टियों के एकजुट होने की जरूरत पर जोर दिया था। बहरहाल, लखनऊ मेंं उक्त बैनरों के लगते ही राजनीतिक हलकों से लेकर सोशल मीडिया तक, इसके चर्चे गर्म हो गए कि कैसे लोकसभा की 40 सीटों वाले बिहार और 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हवा का बदलना, मोदी-शाह की भाजपा के सत्ता से बाहर किए जाने का रास्ता तैयार कर सकता है। याद रहे कि 2019 के आम चुनाव में इन दोनों राज्यों में मिलाकर ही भाजपा तथा उसके सहयोगी दलों को लगभग सौ सीटें मिली थीं, हालांकि इसमें बिहार में जदयू की 16 सीटें भी शामिल थीं।
हैरानी की बात नहीं है कि महाराष्ट्र में दलबदल के जरिए भाजपा के शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर सत्ता में लौटने के बाद, जिस तरह बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा के सत्ता को ज्यादा से ज्यादा अपने हाथ में लेने के मंसूबों पर पानी फेरा है, उसके बाद से इसके माहौल को बल मिला है कि संघ-भाजपा के सारी सत्ता पर अपना एकाधिकार कायम करने के मंसूबों को न सिर्फ नाकाम किया जा सकता है, बल्कि उन्हें पीछे भी धकेेला जा सकता है। इस पर तो दो रायें हो सकती हैं कि ठीक-ठीक क्या वजह थी या क्या मुद्दा था कि नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठजोड़ की सरकार का त्यागपत्र दे दिया और महागठबंधन के साथ गठबंधन सरकार बनाई। लेकिन, इसमें किसी शक या बहस की गुंजाइश नहीं है कि बिहार में इस समय सरकार चला रहा महागठबंधन-जदयू गठबंधन, बिहार के मतदाताओं के स्पष्ट बहुमत का प्रतिनिधित्व करता है। इस गठबंधन में शामिल पार्टियों के 2019 के विधानसभाई चुनाव के वोट को जोड़ें तो, 56 फीसद तो बैठता ही है। बेशक, 2019 के विधानसभाई चुनावों में पार्टियों की कतारबंदी इससे बहुत भिन्न थी।
लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि 2015 के विधानसभाई चुनाव में, किसी हद तक ऐसी ही भाजपाविरोधी कतारबंदी को, बिहार की जनता ने प्रचंड जीत दिलाई थी, हालांकि इस कतारबंदी का वोट पचास फीसद से नीचे ही रहा था। इसलिए, अगर बिहार में इसके चर्चे शुरू हो गए हैं, तो अचरज की बात नहीं है कि नीतीश के नेतृत्व में जदयू-महागठबंधन सरकार अगर रोजगार आदि के वादों पर अगले करीब दो साल में अच्छा प्रदर्शन करती है, तो 2024 के चुनाव में, 2019 के नतीजे को एकदम पलटा भी जा सकता है यानी बिहार में भाजपा को एक सीट पर भी समेटा जा सकता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि बिहार के इस राजनीतिक बदलाव का असर, सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं रहेगा। लखनऊ में लगे बैनर, इस बदलाव के असर की ओर बहुत साफ तरीके से इशारा करते हैं। जाहिर है कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के मौजूदा निजाम के खिलाफ विपक्षी ताकतों को एकजुट करने के प्रयासों के साथ जुड़ने से, इस हवा को और जोर मिलेगा। इस सिलसिले में यह याद दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि मोटे तौर पर तेरह से पंद्रह, सोलह तक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय विपक्षी पार्टियां, मोदी-2 के दौर में जनता के विभिन्न मुद्दों पर एकजुट होकर आवाज उठाती रही हैं और साझा रुख अपनाती रही हैं। जाहिर है कि नीतीश कुमार के विपक्षी राजनीति में अपनी भूमिका तलाश करने से इस ताकत में खासी बढ़ोतरी ही होने जा रही है।
फिर भी इसका मतलब यह हर्गिज नहीं है कि आने वाले आम चुनाव में सत्ता पक्ष के एक उम्मीदवार के मुजबले में विपक्ष का एक ही उम्मीदवार उतरने के अर्थ में, मुकम्मल तो क्या लगभग विपक्षी एकता तक का रास्ता अब साफ दिखाई दे रहा हो। यह संयोग ही नहीं है कि नीतीश कुमार के दिल्ली दौरे से ठीक पहले, तेलंगाना के मुख्यमंत्री और टीआरएस सुप्रीमो के चंद्रशेखर राव ने पटना पहुंच कर उनसे मुलाकात की थी और संभवत: तीसरे मोर्चे के अपने प्रयास के लिए, उनका सहयोग मांगा था, जिसका मकसद भाजपा को हराने के साथ ही कांग्रेस को रोकना भी होगा। इसी तरह के प्रयासों के हरियाणवी संस्करण के रूप में, हरियाणा के पूर्व-मुख्यमंत्री, ओम प्रकाश चौटाला ने भी दिल्ली में नीतीश कुमार से मुलाकात की थी और उन्हें चौधरी देवीलाल की स्मृति में होने वाले सालाना राजनीतिक जमावड़े के लिए आमंत्रित किया था। यह जमावड़ा, जिसमें अनेक विपक्षी पार्टियों को आमंत्रित किया गया है, इसी महीने में होने जा रहा है।
बंगाल में तृणमूल-वामपंथ, तेलंगाना में टीआरसी-कांग्रेस, दिल्ली में आप-कांग्रेस जैसे विपक्ष के असाध्य आपसी टकरावों के अलावा जनता के मुद्दों पर एकजुट होकर आवाज उठाने वाली पार्टियों के बीच भी, राजनीतिक जमीन को लेकर खींच-तान कोई खत्म नहीं हो गई है। वास्तव में सब कुछ के बाद भी, एक के मुकाबले एक की चुनावी टक्कर को शायद ही कोई एक यथार्थवादी संभावना की तरह देखता होगा। अब भी भाजपा को मुख्य चुनौती, राज्यों के स्तर पर कायम होने वाली विपक्षी कतारबंदियों द्वारा ही दी जाएगी, न कि किसी अखिल भारतीय विपक्षी मोर्चे द्वारा। फिर भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि विभिन्न स्तरों पर विपक्षी एकता का सूचकांक धीरे-धीरे बढ़ रहा है।
और, वोट और सीटों के इस तरह के गणित से ज्यादा महत्वपूर्ण है ऐसा राजनीतिक वातावरण, जिसमें विभिन्न विपक्षी पार्टियां खुलकर मोदी राज की नीतियों और करतूतों की आलोचना कर रही हैं और सड़कों पर उतर कर विरोध जता रही हैं। एक साल तक चले और आंशिक रूप से विजयी भी रहेे किसान आंदोलन और मजदूरों व अन्य तबकों के विभिन्न आंदोलनों से आगे, जनता के मुद्दों को लेकर और मौजूदा निजाम की अपनी आलोचनाओं को लेकर, वामपंथी पार्टियां ही नहीं, विभिन्न गैर-वामपंथी विपक्षी पार्टियां भी अपनी-अपनी तरह से बढ़ते पैमाने पर जनता के बीच जा रही हैं और सड़कों पर उतर रही हैं। इनमें दिल्ली समेत, विभिन्न विपक्ष-शासित राज्यों में भाजपा तथा उसके एजेंटों के तौर पर काम कर रहे राज्यपालों, उप-राज्यपालों की हरकतों और केंद्र सरकार के इशारे पर नाचती केंद्रीय एजेंसियों की करतूतों के खिलाफ रात-दिन चलने वाली लड़ाइयों से लेकर, केंद्र व राज्यों की भाजपा सरकारों की नीतियों व आचरण के खिलाफ तरह-तरह के अभियान शामिल हैं।
कांग्रेस की महत्वाकांक्षी, ”भारत जोड़ो यात्रा” भी ऐसी ही एक कार्रवाई है, जो मोदी सरकार की नीतियों और आचरण, सभी पर सवाल उठा रही है। बेशक, इस यात्रा की डिजाइन, इसमें देखने को मिल रही कांग्रेस की प्राथकिताओं और इस के दौरान पेश की जा रही मोदी सरकार की आलोचनाओं की धार को लेेकर तो सवाल किए जा सकते हैं। इसी प्रकार, इस पर भी सवाल उठ सकते हैं कि व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर ही बहुत ज्यादा फोकस करने के जरिए, क्या राजनीतिक मुकाबले को व्यक्ति-केंद्रित मुकाबले में घटाए जाने की, गलती को ही नहीं दोहराया जा रहा है? लेेकिन, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती हैं कि महीनों लंबी और हजारों किलोमीटर की इस अनवरत यात्रा के जरिए, लगातार उठाने के जरिए, जनता के वास्तविक मुद्दों को रेखांकित किया जाएगा।
इस क्रम में सबसे बढ़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तथा सत्ताधारी दल की हिंदुत्ववादी पहचान को उभारने के जरिए, रोटी-रोजगार जैसे मुद्दों को पीछे धकेलने के पैंतरों को, किसी हद तक भोंथरा जरूर किया जाएगा। इसी प्रकार, विभिन्न राज्यों के स्तर पर, टीआरएस जैसी पार्टियों की भाजपा तथा उसकी केंद्र सरकार के खिलाफ राजनीतिक-आंदोलनात्मक कार्रवाइयां भी, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के पैंतरों के खिलाफ वातावरण बनाने में योग देती हैं। इस सब को मिलाकर ही धीरे-धीरे देश में मोदी राज के खिलाफ एक वातावरण बन रहा है।
इससे संघ-भाजपा खेमे में बेचैनी बढ़ती जा रही है। सत्ताधारी खेमे की यह बेचैनी उसके ढोल पीटकर 2024 के आम चुनाव की तैयारियों में जुट जाने तथा पूरे सत्तातंत्र को इसी काम में झोंकने की शुरूआत कर दिए जाने में तो देखने को मिल ही रही है, विपक्षी सरकारों पर उनके हमलों के साथ ही साथ, जनता के बीच विपक्ष की गतिविधियों पर हमलों के रूप में भी देखने को मिल रही है। राहुल गांधी की महंगी टीशर्ट, जूते आदि से लेकर, यात्रा के दौरान रात में सोने के लिए ट्रकों पर लगे कंटेनरों तथा राहुल गांधी के कन्याकुमारी में जाकर, विवेकानंद की मूर्ति के सामने सिर झुकाने, न झुकाने तक को सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेताओं द्वारा हमलों का निशाना बनाया जाना, इसी बेचैनी को दिखाता है। विरोधी हवा जैसे-जैसे जोर पकड़ेगी, ये बेचैनी और बढ़ेगी। और ये हमले भी बढ़ेंगे। पर आंधी जब तेज हो, तो छाते काम नहीं आते।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*