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पिंडदान की नौटंकी बंद करें, समझें इसका आदि~दर्शन

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ज्योतिषाचार्य पवन कुमा

 माना जाता है कि गया, पेहवा (कुरुक्षेत्र) आदि में पिण्डदान से पितरों का उद्धार होता है। मेरे एक मित्र गया जा कर स्वयं अपना श्राद्ध कर आये : यह सोच कर कि बेटों का क्या ठिकाना ? वे पिण्ड दें कि न दें।

यह साधारण लोगों की समझ है।
तथ्य कुछ और है।
वह क्या है ?
गय+टाप् = गया, स्त्रीलिंग शब्द। गय शब्द पुंलिंग है। दोनों का अर्थ समान है, एक ही है। गय/गाय कहते हैं, प्राण को।
‘प्राणा वै गया:।’
-बृहदारण्यक उपनिषद (५ । १४।४)
इस प्रकार वैदिक दर्शन में गया का अर्थ कोई भू-खंड नहीं है. गया में श्राद्ध करने / पिण्ड देने का अर्थ है- प्राणों में आहुति देना।
कृष्ण कहते हैं :
‘अपाने जुह्वति प्राणं प्राणोऽपानं तथापरे।’
– गीता (४ । २९ )
१.अपान में प्राण की आहुति देना।
२. प्राण में अपान की आहुति देना।

आगे पुनः कहा गया है +
‘अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति।’
-गीता (४ । ३०)
३. प्राणों में प्राणों की आहुति देना।
यहाँ श्वाँस का बाहर से भीतर जाना प्राण है, श्वसन। तथा श्वांस का भीतर से बाहर आना अपान है, निःश्वसन। प्राण और अपान की गति को रोक देना प्राणायाम है।

‘प्राणापान गती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः। ‘
-गीता ४। २९)
प्राणायाम के परायण होना ही गया में पिण्डदान करना है। शरीर के भीतर गया (प्राण) है। शरीर के बाहर गया (प्राण) है। ये प्राण ही पितर (पालन कर्ता) हैं।

मुख्यतः पाँच पितर हैं- प्राण, अपान, व्यान, उदान,समान। इन पितरों का उद्धार प्राणायाम से होता है। प्राणायाम करने वाले को पूर्वजन्मकृत् पाप स्पर्श तक नहीं करते।
कहा गया है : ‘गीताध्ययन शीलस्य प्राणायामपरस्य च। नैव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्म कृतानि च।।’
प्राण में आयु है। प्राण पुष्ट होने पर दीर्घायु होती है। कुम्भक से प्राण पुष्ट होता है। इसके द्वारा व्यक्ति इच्छानुसार अपनी आयु बढ़ा लेता है। एक होरा अर्थात् ६० घटी (२४ घंटे) कुम्भक करने से व्यक्ति की आयु में ६० वर्ष की वृद्धि होती है। १ पल के कुम्भक से ६ दिन आयु बढ़ती है। नाम जप के साथ कुम्भक करना श्रेष्ठ है। प्राण अपान की गति को रोक देना ही कुम्भक है।
यह कुम्भक सभी प्राणियों में स्वतः होता है। इसकी कालावधि की वृद्धि के लिये प्रयास करना पड़ता है। प्राण को प्रसन्न करने का सूत्र है-कुम्भक।
पञ्चम भाव और द्वितीय भाव में उत्पादक और उत्पाद्य का संबंध है।
५ + ९ = १४ । १४ १२= २ [ द्वितीय भाव २ – ९ = (१२ + २) – ९ = १४ – ९ = ५ [पंचम भाव] दूसरा भाव नासिका है।
नासाछिद्रों से प्राण प्रवेश करता है। यह प्राण वायु फुफ्फुस में प्रसारित होकर पेट पर्यन्त फैलती है। पेट है, पंचम भाव नासा से लेकर नाभि (कुक्षि) तक प्राण का विस्तार है। प्राण वायु का परिमाण भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न होता है।
यथा :
१. प्रवेश समय प्राणवायु = १० अंगुल।
२. निर्गम समय प्राणवायु = १२ अंगुल।
३.चलते समय प्राणवायु =२४ अंगुल।
४. दौड़ते समय प्राणवाय=४२ अंगुल।
५. मैथुन समय प्राणवायु = ६५ अंगुल।
६. निद्रा समय प्राणवायु १०० अंगुल।
७. भोजन/ वमन समय प्राणवायुप=१८ अंगुल।

प्राण वायु के परिमाण को जितना ही कम किया जाय, उतना ही आयु में वृद्धि होती है। अधिक सोने से आयु क्षीण होती है। अधिक मैथुन से आयु अल्प होती है। अधिक चलने एवं दौड़ने से भी आयु का ह्रास होता है।
कम भोजन करने से तथा वायु को अधिक देर तक भीतर रोके रहने से आयु बढ़ती है। सर्वाधिक आयु का क्षयन निद्रा एवं मैथुन से होता है। निद्रा कम होनी चाहिये। मैथुन में कुम्भक का प्रयोग करना चाहिये। प्राण निकलते समय १२ अंगुलि होता है।
इसके अंगुलात्मक परिमाण को कम करते रहने से निम्नलिखित उपलब्धियां होती है।
१ अंगुल कम करने से निष्कामता।
२ अंगुल कम करने से आनन्द ।
३ ,, ,, ,, ,, ,, काम शक्ति मे वृद्धि।
५ ,, ,, ,, ,, ,, दूर दर्शन की शक्ति।
६ ,, ,, ,, ,, ,, आकाश गमन।
७ ,, ,, ,, ,, ,, प्रबलता वेगता/अव्यहत गति।
८ ,, ,, ,, ,, ,, अष्टसिद्धियाँ।
९ ,, ,, ,, ,, ,, नौ निधियाँ।
१० ,, ,, ,, ,, ,, दस मूर्तियाँ।
११ ,, ,, ,, ,, ,, छाया शक्ति/अदृश्य उपस्थिति।
१२ ,, ,, ,, ,, ,, हंस / मोक्ष।

प्राण की लम्बाई जब १२ अंगुल कम होती है अर्थात् शून्य हो जाती है तो प्राणन क्रिया का अभाव होता है। ऐसा योगी हंस वा ब्रह्म है। तस्मै नमः।
प्राण पंचतत्वात्मक होता है। इनमें से किसी न किसी तत्व की अतिशयता होती है। कैसे यह जाना जाय कि अमुक समय में प्राणान्तर्गत कौन तत्व प्रवाहित हो रहा है? स्वर दैर्ध्य द्वारा तत्व का ज्ञान होता है।
१६ अंगुल स्वर की लम्बाई होने पर, पृथ्वी तत्व।
१२ ,, ,, ,, ,, ,, जल तत्व।
८ ,, ,, ,, ,, ,,अग्नि तत्व।
६ ,, ,, ,, ,, ,, वायु तत्व।

३ ,, ,, ,, ,, ,, आकाश तत्व।
इन पञ्च तत्वों के ज्ञान से बुद्धि में प्रकाश होता है। जिससे भविष्य कथन किया जाता है। इसमें गणित की खटपट नहीं होती।
इन तत्वों के संबंध में कहा जाता है :
१. पृथ्वी तत्व नासा छिद्रों के बीचोबीच प्रवाहित होता है। इसका स्वाद मधुर, वर्ण पीत, आकार चौकोर, अग्रगामी सरल मन्द प्रवाह, स्थिर कार्यों में सफलता दायक।
२. जल तत्व नासा छिद्रों के तल को स्पर्श करता हुआ नीचे की ओर प्रवाहित होता है। इसका स्वाद कषैला, लवण होता है। श्वेतवर्ण, अदर्श चन्द्राकार, नीचे की ओर तीव्र गति से प्रवहमान, ध्वनियुक्त, शीतस्पर्श तथा शुभ कार्यों में सफलता दायक है।
३. अग्नि तत्व नासिका की छत को स्पर्श करता हुआ ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। इसका स्वाद तिक्त, वर्ण रक्त, आकार त्रिकोण, प्रवाह चक्राकार, उष्ण स्पर्श, ऊर्ध्वगामी वेग है। यह क्रूर कर्मों में प्रशस्त है।
४. वायु तत्व नासिका की बगल वाली दीवार को स्पर्श करता हुआ तिरछे प्रवाहित होता है। इसका स्वाद खट्टा/ क्षारीय होता है। इसकी गति तिर्यक्, रंग नीला, काला, स्पर्श समशीतोष्ण/कुनकुना, आकार गोल है मारण, मोहनादि कर्मों के लिये यह प्रशस्त है।
५. आकाश तत्व नासारन्धों के भीतर ही प्रवाहित होता है। यह चित्रवर्ण वाला वा बुदुद्दत/बिन्दु पुक्कमात्र होता है। इसमें गति का अभाव होता है। इसके उदय होने पर आत्मचिन्तन, ध्यान, धारणदि कर्म किये जाते हैं। इसका स्वाद कटु है। यह स्पर्शहीन है।

जिस जातक का पश्ञ्चम भाव शुभ एवं बली होता है, उसकी बुद्धि में ये तत्व प्रकाश करते हैं। जिससे इनके स्वरूप का ज्ञान होता है। ऐसा जातक त्वरित प्रश्नफल कहता है। घुटनों में पृथ्वी तत्व पाँव में जल तत्व, कन्धों पर अग्नि तत्व, नाभि में वायु तत्व तथा सिर पर आकाश तत्व रहता है।
पृथ्वी तत्व पूर्व से पश्चिम तक, जल तत्व नीचे से ऊपर तक, अग्नि तत्व दक्षिण में, वायु तत्व उत्तर में तथा आकाश तत्व मध्य में स्थित होता है। पृथ्वी तत्व के समय में लाभ विलम्ब से होता है, सफलता देर से मिलती है। जल तत्व के समय में लाभ तत्क्षण होता है, सफलता शीघ्र मिलती है।
अग्नि तत्व के समय में हानि होती है, मृत्यु तुल्य कष्ट होता है।
वायु तत्व भी हानिकारक है तथा कार्य का नाश होता है। आकाश तत्व में विफलता की प्राप्ति होती है। पृथ्वी तत्व में स्तम्भन कार्य, खेती का कार्य, उद्योग स्थापन, वाणिज्य कर्म, मन्त्रार्थ करना, लाभार्थ यत्न करना, प्रतियोगिता में संमिलित होना शुभ होता है।
जल तत्व में मन्त्रसिद्ध करना, यज्ञ करना, अनुष्ठान करना, औषधि ग्रहण करना, उपदेश देना, दीक्षा लेना-देना प्रशस्त माना गया है। अग्नि वायु और आकाश तत्व अलाभकर हैं।
आकाश तत्व प्रत्येक कार्य में अशुभ है। इसमें नाम जप ईश चिन्तन भजन ही श्रेयस्कर है। पृथ्वी और अग्नि तत्व में यात्रा करने पर सुख मिलता है। अग्नि और वायु तत्व में यात्री को दुःख को प्राप्ति होती है। आकाश तत्व में यात्री दिवंगत हो जाता है।
यात्रा के प्रश्न में, पिंगला में वायु तत्व हो तो है यात्री निरन्तर यात्राप्रेल होता है। पिंगला में जल तत्व हो तो यात्री वापस आ रहा होता है। पिंगला में पृथ्वी तत्व हो तो यात्री जहाँ गया है, वहाँ रुका हुआ होता है। पिंगला में अग्नि तत्व हो तो यात्री को इहलीला समाप्त हो गई होती है। इड़ा नाड़ी में यात्रा का अभाव होता है।

यदि कोई घात-प्रतिघात, रोग, व्रण, सम्बन्धी प्रश्न पूछे तो :
१. पृथ्वी तत्व के उदय होने के समय पेट में रोग/ व्रण/ घात होता है।
२. जल ” ” ” ” ” पैर में रोग/हानि/ चोट।
३. अग्नि ” ” ” ” “जाँघों घुटने में रोग/ घाव।
४. वायु ” ” ” ” ” हाथों अंगुलियों में रोग।
५. आकाश ” ” ” ” ” मस्तक में पीडा / प्रहार।

यदि कोई प्रतियोगिता, स्पर्धा, विवाद, लड़ाई, झगड़ा, युद्ध की स्थिति आ पड़े तो ऐसी स्थिति में :
१. पृथ्वी तत्व के चलने पर बराबर की स्थिति रहती है।
२. जल तत्व के चलने पर विजयश्री मिलती है।
३. अग्नि तत्व में शरीर के अंगों की हानि होती है।
४. वायु तत्व में हार अपमान, मृत्यु तुल्य कष्ट होता है।
५. आकाश तत्व में निश्चित पराजय / अपमृत्यु होती है।
कुम्भक में प्राण का होम करने से हर प्रकार की जय तथा इष्ट की सिद्धि होती है-यह सत्य है।

यदि कोई जानना चाहे कि गर्भ में क्या है ? तो :
१. पृथ्वी तत्व के उदय होने से कंन्या होती है।
२. जल तत्व के उदय होने से पुत्र होता है।
३. वायु तत्व हो तो क्षीणकाय कन्या होती है।
४. अग्नि तत्व हो तो गर्भ का अभाव होता है।
५. आकाश तत्व में नपुंसक सन्तान जन्मती है।
प्रश्न कर्ता पूर्ण प्राण की ओर बैठकर प्रश्न करे तो संतान स्वस्थ होती है। शून्य प्राण की ओर बैठकर प्रश्न पूछे तो गर्भ ठहरता ही नहीं। सुषुम्ना गत प्राण में गर्भपात हो जाता है।

स्त्री की योनि में वीर्य डालने पर यदि :
१. पृथ्वी तत्व होता है तो गर्भ ठहरता है तथा जन्मने वाला जातक भोगी होता है, सम्पत्ति उसके पैर है तथा वह शक्ति शाली होता है।
२. जल तत्व में गर्भ ठहरने पर जायमान सुत सुखी एवं लोक-विख्यात होता है, विद्वान् यात्री होता है।
३. अग्नि तत्व में गर्भ ठहरने पर जातक रुग्ण एवं अल्पायु होता है, विकलांग होता है।
४. वायु तत्व में गर्भ रहने से बच्चा जीवन भर दुःखी रहता है। वह मारा-मारा फिरता तथा भिक्षा मांगता है।
५. आकाश तत्व में गर्भ ठहर जाय तो गर्भपात निश्चित है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश – इन पाँच तत्वों की गुरुता में ५ : ४ :३:२: १ का अनुपात होता है।
अर्थात् :
पृथ्वी तत्व = ५ इकाई ५० पल पर्यन्त अवधि वाला।
जल तत्व = ४ इकाई ४० पल पर्यन्त अवधि वाला।
अग्नि तत्व = ३ इकाई ३० पल पर्यन्त अवधि वाला।
वायु तत्व = २ इकाई । २० पल पर्यन्त अवधि वाला।
आकाश तत्व = १ इकाई । १० पल पर्यन्त अवधि वाला।
इससे स्पष्ट हैं-पृथ्वी से आकाश पर्यन्त पाँचों तत्व गुणों की दृष्टि से क्रमशः न्यून न्यूनतर होते चले गये हैं। इन तत्वों के प्रवाह के समय जन्मने वाली संतति गुणात्मक दृष्टि से हीन-हीनतर होती चली जाती है। इस प्रकार पृथ्वी तत्व एवं जल तत्व उत्तम, अग्नि तत्व मध्यम, वायु तत्व अधम तथा आकाश तत्व व्यर्थ होता है। जल तत्वज जातक में वीर्य, रक्त, मज्जा, मूत्र, लार का बाहुल्य होता है।
अग्नि तत्वज जातक के शरीर में भूख, प्यास, नींद, कान्ति, आलस्य का आधिक्य होता है। वायु तत्वज जातक का शरीर रुकना, चलना, फैलना, सिकुड़ना, दौड़ना गुणों से ओतप्रोत होता है। आकाश तत्वज जातक में प्रेम, द्वेष, भय, लज्जा, मोह की प्रबलता होती है।
इडा में पृथ्वी तत्व के उदय होने पर शांति एवं पुष्टि करने से सिद्धि मिलती है। पिंगला में अग्नि तत्व होने पर क्रूर कर्म करने से सिद्धि शीघ्र मिलती है। दिन में चलने वाला पृथ्वी तत्व लाभ देता है। रात्रि के समय प्रवाहित होने वाला जल तत्व लाभ कराता है। अग्नि, वायु और आकाश तत्व मृत्यु, हानि एवं विनाश कारक होते हैं।

शत्रु के आगमन संबंधी प्रश्न में :
१. पृथ्वी तत्व से शत्रु को आया हुआ समझें।
२. जल तत्व से शत्रु द्वारा लाभ मिलता है।
३. वायु तत्व से शत्रु को अन्यत्र गया हुआ समझे।
४. अग्नि तत्व में शत्रु द्वारा घेरान्दी होती है।
५. आकाश तत्व में शत्रु से पूर्णतः हानि होती है।
मूक प्रश्न में; पृथ्वी तत्व से मूल चिन्ता, जल और वायु तत्व से जीव चिन्ता, अग्नि तत्व से धातु चिन्ता तथा आकाश तत्व से चिन्ता का अभाव समझना चाहिये।
अन्य प्रकार से, पृथ्वी तत्व में कीट चिन्ता, जल तत्व में मनुष्य चिन्ता, वायु तत्व में पक्षी चिन्ता, अग्नि तत्व में पशु चिन्ता तथा आकाश तत्व में अपद (सर्पादि) चिन्ता होती है। (चेतना विकास मिशन).

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