सब उसे छोटू कहकर बुलाते थे। उसका ये नाम कैसे और क्यों पड़ गया, ये उसे भी नहीं पता था। उसका क़द छोटा नहीं था। भारत के हिसाब से, वह औसत क़द का था। मगर शायद वह भारतीय था ही नहीं, या शायद था? उसे ख़ुद भी इसका इल्म नहीं था। अभी उसी दिन की तो बात है, ‘आधार’ कार्यालय के मोटे बाबू ने उसे फ़ॉर्म देने से इन्कार कर दिया था क्योंकि वह अपने ‘भारतीय’ होने को साबित नहीं कर पाया था। इतने सालों के दौरान जब भी उसने भारतीय होने की कोशिश की थी, वह अपनी ‘भारतीयता’ साबित करने में नाकाम रहा था।
उसे आजकल ख़ूब काम मिल रहा था क्योंकि ज़्यादा से ज़्यादा दिल्ली वाले शादियाँ कर रहे थे। पिछले साल नवम्बर में एक ऐसा शुभ दिन आया था जब एक ही दिन में राजधानी में तेरह हज़ार बारातें निकली थीं। उस दिन नेक चन्द घोड़ीवाले को अपनी घोड़ी धन्नो से हाथ धोना पड़ गया था। बेचारी को उस दिन दस घण्टों के अन्दर सत्ताइस दूल्हों का बोझ उठाना पड़ा था। थकान के मारे उसने दम तोड़ दिया। जब उसकी मौत हुई तो उसकी पीठ पर अट्ठाइसवाँ दूल्हा विराजमान था जिसके बाप ने धन्नो की मौत को अशुभ संकेत मानकर शादी रद्द कर दी थी। उस समय छोटू बैण्ड में बज रहे गाने पर होंठ हिला रहा था, जब सितारों के आकार वाली फ़्लैश लाइटों की जगमग रोशनी से सजे मैरिज हॉल के ऐन सामने धन्नो ऐसे ढेर हो गयी थी, जैसे कोई लकड़ी का कठपुतला। छोटू को मिलने वाले पचास रुपये भी उस दिन डूब गये थे।
छोटू उस बड़े फ़्लाईओवर के नीचे रहता था जिससे गुज़रकर तमाम सुखी परिवार सुदूर देशों में शानदार छुट्टियाँ बिताकर घर लौटते थे। फ़्लाईओवर के नीचे उसके साथ तीन और भी रहते थे। गर्मियों में वे सड़क के बिल्कुल पास सोते थे, क्योंकि गाड़ियों से निकलने वाली गर्म हवा की वजह से ख़ून के प्यासे मच्छरों की फ़ौज दूर रहती थी। दिल्ली कभी सोती नहीं थी और इसलिए गाड़ियाँ रात-भर गुज़रती रहती थीं और इसलिए छोटू सो सकता था। अजीब बात थी न, कि रात-भर जागने वाले शहर के चलते छोटू चैन से सो लेता था। सर्दियाँ ज़्यादा कठिनाई भरी होती थीं। वे अपनी बरसाती को सड़क के दूसरी ओर स्ट्रीट लैम्प के नीचे बिछा लेते थे। लैम्प से आने वाली पीली रोशनी से उन्हें गर्माहट का एहसास होता था और जब तीनों एक-दूसरे से चिपककर सोते थे तो उनकी नीली पॉलीथीन उनका स्लीपिंग बैग बन जाती थी। किसी भी तरह ज़िन्दा रहने का हुनर बेहद ज़रूरी था। ज़िन्दगी और मौत के मामलों में निजता आदि के कोई मायने नहीं थे। कोहरे वाली रातों को उन्हें और भी ज़्यादा पेट्रोल सूँघना पड़ता था। उन्हें धुँधले सपनों से भरी नशीली नींद आ जाती थी। दिल्ली की बढ़ती कारों और बढ़ते प्रदूषण का मतलब था और ज़्यादा कोहरे भरी रातें और सूँघने को पहले से भी ज़्यादा पेट्रोल।
बेघर होना कोई पहचान नहीं थी, यह एक प्रक्रिया थी। बेघर का मतलब महज़ बिना घर के होना नहीं था, यह इससे भी बढ़कर था। इसका मतलब था प्यार के बिना, देखभाल के बिना, शिकायतों के बिना, किसी पर ग़ुस्सा हुए बिना, गर्म रोटी की चाह रखे बिना, किसी भी चीज़ के बिना जीना। यह ऐसे शून्य में जीना था जहाँ कुछ भी नहीं था। छोटू को जब से याद है तभी से वह बेघर था। ख़ालीपन का शून्य ही उसका अस्तित्व था। वह इस निर्मम हृदयहीन शहर में बड़ा हुआ था। शादी की पार्टियों में वेटर का काम करता था। दिल्ली के बहुत से बेघर ऐसा करते थे। शादी की दावत में खाना परोस रहे बेघर एक ऐसी विडम्बना थी जो दिल्ली शहर अपने नागरिकों के सामने रोज़ पेश करता था, मगर किसी को परवाह नहीं थी। कभी-कभी वह बारात के बैण्ड में गाने के बोल पर होंठ हिलाने का काम भी करता था जैसे वह उस रात कर रहा था जब धन्नो की मौत हुई थी। वेटर के काम में थोड़े ज़्यादा पैसे मिल जाते थे लेकिन उसे ज़्यादा मेहनत भी करनी पड़ती थी। काम के घण्टे तय नहीं थे। कुछ शादियाँ रात-भर चलती थीं जिसके कोई अतिरिक्त पैसे नहीं मिलते थे।
उस दिन बैण्डवाले ने उसे सिविल लाइन्स के बँगले में होने वाली आलीशान शादी के बारे में बताया था। जिसमें शहर का हर बड़ा नेता आने वाला था। उस शादी में परधानमन्त्री भी आने वाला था। बहुतों की तरह, छोटू को भी परधानमन्त्री बहुत अच्छा लगता था। वह वाक़ई उस शादी में वेटर बनने के लिए जाना चाहता था। बैण्डवाले के आदमी ने छोटू का नाम लिखने के लिए उससे कुछ वसूली भी कर ली। छोटू जानता था कि उसे ठगा जा रहा है लेकिन उसे परवाह नहीं थी। परधानमन्त्री को जीते-जागते देखने का मौक़ा बार-बार थोड़े ही मिलना था। इससे बढ़कर कुछ नहीं था।
शादी का दिन आ गया। छोटू ने अपने ठिकाने के पास स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठने वाले नाई से बाल बनवाये और गँदला पानी देने वाले सरकारी नलके पर जाकर नहाया। बैण्डवाले ने उसे कत्थई रंग का सूट पहनने को दिया जिसमें कड़क चीनी कॉलर और कन्धों पर सुनहली पट्टियाँ लगी थीं। बैण्ड पार्टी और वेटर दो घण्टा पहले बँगले पर पहुँच गये।
शानदार ढंग से सजे बँगले के फाटक पर लकड़ी का एक छोटा-सा गेट लगा था जिसे छोटू ने पहले नहीं देखा था। उसके नीचे से जब कोई गुज़रता था तो हल्की-सी ‘टिंग’ की आवाज़ आती थी। अचानक काला सफ़ारी सूट पहने एक हट्टे-कट्टे शख़्स ने उसे रोक दिया।
“अपना आइडेण्टिटी कार्ड दिखाओ – पहचान पत्र!” उसने कठोर आवाज़ में कहा।
छोटू के पास कोई पहचान नहीं थी। उसका नाम भी उसका अपना नहीं था। वह चकरा गया। सफ़ारी वाले शख़्स ने उसे खींचकर किनारे कर दिया। दूसरे बेघर वेटरों को भी अन्दर जाने से रोक दिया गया। उन्हें ही जाने दिया गया जिनके पास पहचान पत्र था। बैण्डवाले ने अन्दर जाने वालों को ज़्यादा पैसे देने का वादा किया। अचानक उसे काम करने वालों की कमी पड़ गयी थी।
छोटू और दूसरों के वापस जाने से पहले बैण्डवाले ने कड़क कॉलर वाली उनकी कत्थई वर्दियाँ उतरवा लीं। अपनी धूसर टीशर्ट और कार्गो पैण्ट पहने छोटू को अचानक लगने लगा कि वह नंगा हो गया है। उसके कपड़े पसीने से भीगे हुए थे। आँसूभरी आँखों से ढलते सूरज को देखते हुए वह पैदल फ़्लाईओवर के नीचे लौट आया। शहर अब शाम के लिए जाग रहा था। सड़क के दूसरे किनारे पर लगी विशाल होर्डिंग पर परधानमन्त्री की तसवीर थी जिसके मोटे होंठ ऐसे फैले थे जिससे लगता था कि वह मुस्कुरा रहा है।
उस पर लिखा था : “सबका सपना, घर हो अपना।”