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*कहानी : सुकून की तलाश*

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          रश्मिप्रभा सिंह

   मेरे मीत, प्रीत और पतिश्री के शब्दों में : पीले पड़ चुके पत्ते हर तरफ बिख़रे हुए थे। शरद अपने अन्त की ओर बढ़ रहा था। तेज़ ठिठुरन पैदा करने वाली हवाएँ बीच-बीच में रुक कर चल रही थी। उस पर सूरज की चमकदार किरणें राहत दे रही थी।

     लाउडस्पीकर से फटी हुई आवाज़ में शोर करता हुआ भक्ति गीत इस पूरे माहौल में लगातार खलल डालने का काम कर रहा था। अन्दर मन्दिर के बड़े से पार्क में तीन-चार लोगों के पचासों छोटे-छोटे समूह बिखरे हुए थे, जो अपने में ही मग्न थे। पार्क के बीच में मन्दिर के प्रवेश द्वार से लेकर मुख़्य मूर्ति तक टाइल्स को बिछाकर आने जाने के लिये सड़क बनायी गयी थी।

       सड़क के दूसरी ओर के पार्क का हिस्सा भी इसी तरह के समूहों से भरा हुआ था। इस हिस्से में क़रीब बीस फीट ऊँची गणेश, शंकर, लेटे हुए विष्णु और हाथ में धनुष लिये राम की मूर्ति बनी हुई थी। इन मूर्तियों के आसपास लोगों का आना-जाना लगातार ज़ारी था।

     मन्दिर के बीच में तीन तरफ़ से दीवार को खड़ाकर कृष्ण की मूर्ति को स्थापित किया गया था। वहाँ पर दस-बीस लोग कतार में लगे थे, प्रसाद चढ़ाने के लिए। इसके अलावा मन्दिर के चारों ओर के किनारे छोटे-छोटे पेड़ों से सजे थे।

      मन्दिर में प्रवेश का एक द्वार मुख़्य सड़क की ओर से था और दूसरा द्वार ठीक सामने बाज़ार की ओर खुलता था, जो कि आज के दिन इन लोगों के लिए लगता था। पढ़ने वाले ज़रूर सोच रहे होंगे कि आख़िर ये कौन लोग हैं? इससे आप समझ जायेंगे।

      यह मन्दिर चारों तरफ़ से कारख़ानों से घिरा हुआ है और कारख़ानों की यह श्रृंखला एक औद्योगिक इलाक़े में स्थित है और ये लोग मज़दूर, उनके परिवार और बच्चे हैं जो इन कारख़ानों में काम करते हैं। आज इनकी छुट्टी का दिन है, तो यह सब अपने कारख़ानों को छोड़कर, यहाँ सुकून की तलाश में आयें हैं क्योंकि दूर-दूर तक यहाँ सिर्फ़ कारख़ाने ही हैं।

       यही कारख़ाने है जो दिन की शुरुआत से लेकर रात, बीतते दिन, महीनों, साल और अन्त आते-आते ज़िन्दगी को पूरी तरह सोख़ लेते हैं। इन सबसे जूझते हुए ही सब सुकून की तलाश करते हुए कुछ घण्टे बिताने आते हैं। यहाँ सब अलग-अलग हैं, पर सबकी ज़िन्दगियाँ जुड़ी हुई हैं।

लाउडस्पीकर में घोषणा हुई सभी रामभक्त इस बुधवार को दो बजे मन्दिर निर्माण के लिये निकाली जा रही रैली में ज़रूर शामिल हों और रामलला का आशीर्वाद लें।

      “अब बताओ छुट्टी करके इनके रैली में जायें, तो खाने को देंगे यह लोग।” मुंह से बीड़ी निकालकर साइड में रखते हुए काली शर्ट, काला पज़ामा पहने व्यक्ति ने कहा। तीन मज़दूर जो उसके बगल में बैठे थे उन्होंने हामी भरी।

      “कल उस चमचे फोरमैन को तो पीट दिया होता मैंने। साला! बहुत उल्टा सीधा बोल रहा था मुझे।” आँखें छोटी गोल और सपाट चेहरा जिस पर हल्की दाढ़ी और मूंछ थी, पतला दुबला शरीर और हल्की दबी आवाज़ में सुनील बोला।.

     सुनील की उम्र 25-26 रही होगी, जवानी का जोश व उत्साह उसके पतले-दुबले शरीर के बावजूद उसमें दिख रहा था।

“मैंने तो उसे पहली बार में ही पहचान लिया था कि वह कितना बड़ा हारामी है।” अपनी बात ज़ारी रखते हुए सुनील बोला।

     “भाई फोरमैन को तो लंबुआ चुगली करता है जाकर।” सुनील के बगल में बैठा उसी के उम्र का लड़का बोला। बीड़ी पीते हुए सुनील और बाक़ी लोगों ने सहमति में सिर हिलाया।

     “भाई साहब का फोन भी आया था कल। उसे बोल रहे थे अगले इस हफ़्ते अब नाइट भी लगानी होगी 3 दिन।” तीसरा मज़दूर बोला।

     “अरे जब से नयी मशीन आयी है, काम बढ़ गया है।” बात जारी रखते हुए आख़िरी नौजवान मज़दूर बोला।

“हाँ यह तो है! पर साला बनिया काम बढ़ा देता है, पर पैसा बढ़ाने की बात करो तो फैक्ट्री के घाटे गिनाने लगता है। अब राजू और चन्दन को ही ले लो उनके पैसे नहीं बढ़ाए और पैसा बढ़ाने के लिये बोलने पर काम से निकाल दिया। वह तो दस साल पुराने थे, हमें तो अभी लगे हुए मुश्किल से दो साल हुए हैं तो हमारा क्या घंटा बढायेगा।” सुनील सोचते हुए बोला।

      “चलो अब कर ही क्या सकते हैं, हम चारों के बोलने से क्या होगा! बाक़ी 15 लोग तो चुपचाप काम ही करते रहते हैं।” तीसरा मज़दूर बोला :

      “चलो छोड़ो यह सब तो पूरे हफ़्ते लगा ही रहता है, अभी सामान क्या-क्या लेना है बोलो। अब एक घण्टा ही बचा है, फिर गार्ड फैक्ट्री का गेट बन्द कर देगा।”

“हाँ यार! सब्जी लेनी है, बर्तन धोने का साबुन और मुझे शर्ट चाहिए अगले हफ़्ते दिल्ली जाऊँगा लाल किला घूमने।”

    “अबे दारू और चखना भी तो लेना है।” बात पूरी करते हुए सुनील बोला।

(2).

कृष्ण की मूर्ति के पास से धीरे-धीरे भीड़ कम हो रही थी। अब फ़ोटो खिंचवाने वाले लोग वहाँ से जा रहे थे। एक औरत जिसकी छोटी कद काठी थी, सलवार कमीज़ पहने, गोद में एक साल का बच्चा लिये हुए, मूर्ति के पास अपना और बच्चे का सर झुका कर खड़ी थी और सामने की ओर देख रही थी।

     सामने उसका पति जिसने हाथ में सब्जी के दो थैले और एक जलेबी का पैकेट पकड़ा था, फोन को टेढ़ा करके फ़ोटो ले रहा था। बड़ी मूर्तियों के पास जाकर भी कई लोग सेल्फी ले रहे थे। कोई भौं ऊपर चढ़ा रहा था, कोई होठों को पूरा चौड़ा करके तस्वीर ले रहा था, कुछ बिल्कुल सीरियस होकर। पर सब कोशिश कर रहे थे कि आजकल जिस तरह के सेल्फी पोज़ प्रचलित है, तस्वीर वैसी ही आये।

       एक नौजवान जिसके बाल बिल्कुल करीने से कंघी किये हुए थे, चेहरा सफ़ाचट और उसने हरे रंग की टी-शर्ट और काली जीन्स पहनी थी। आँखों के सामने हाथ लाकर उसमें फोन पकड़े बात कर रहा था।

      फोन के दूसरी ओर उसकी पत्नी ही रही होगी, यह उसके चेहरे पर लगातार क़ायम हल्की-हल्की मुस्कान से लग रहा था।

“देखो बोला था ना तुमको कितना बड़ा मन्दिर है। अब देख रही हो इतनी बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ हमारे चार गाँव में भी ऐसा नहीं है।”

   फिर वह थोड़ा रुका जैसे कुछ सुन रहा हो।

     “तुम तो बार-बार एक ही बात का रट लगाती हो। कैसे ले आऊँ तुमको यहाँ? हम कोनो महल में रहता हूँ? फैक्ट्री में रहता हूँ, तुम अच्छी लगोगी यहाँ रहते हुए। सब कहेंगे देखो राहुलवा नयी-नयी बीवी को फैक्ट्री में रखता है। थोड़ा रुक जाओ कमा लेने दो एक-दो साल, फिर पास में कमरा ले लूँगा, तब बुला लूँगा तुमको हमरी जान!”

     “अभी कैसे ले लूँ? अभी देखो फैक्ट्री में रहने पर ही फ़ायदा है। 12 घण्टे काम करता हूँ, तब जाकर कहीं दस हज़ार हो पाता है और उसमें से ही भी गाँव भेजने होते हैं, किश्त चुकानी रहती है तो बताओ कैसे लूँ, बाहर कमरा?”

      “हाँ! गुस्सा नहीं हो रहा बस तुमको सब बता रहा हूँ। हाँ! आज ही सारी सब्जी ले जाऊँगा और चावल कल तक का है वह परसों ले लूँगा, वहीं फैक्ट्री के सामने से। चलो तुम्हें सारा मन्दिर घुमाते हैं।” राहुल खड़ा हुआ और फोन को सामने करके चलने लगा।

(3).

हवाएँ ज़्यादा ठंडी और तेज़ हो चली थी और सूरज की चमक उसके आगे फीकी पड़ रही थी। पार्क के एक तरफ़ दस-पन्द्रह लड़के व आदमी इकट्ठा गये और दो हिस्सों में बँटकर सब कबड्डी खेलने लगे। आसपास बैठे लोग भी उनमें दिलचस्पी ले रहे थे।

      टी-शर्ट, बनियान, पैज़ामा पहने अब सब कबड्डी पर मशगूल थे। चप्पलों को एक साथ जोड़कर बीच में विभाजन रेखा बना दी गयी। आसपास के सब लोगों ने भी अपनी पसंदीदा टीम चुन ली और उनको जिताने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे। “पकड़-पकड़, अबे रोक साले को, बस थोड़ा और ये गया” इस तरह की आवाज़ों का मिश्रण आसपास सुनायी देने लगा।

     खेल में शामिल सभी बीस मिनट में ही पसीने से तरबतर हो गये, पर आसपास के लोगों के उत्साह ने उन्हें खेल जारी रखने और जीतने का हौसला दिया। पर खेल जारी रखने का सिर्फ़ यही कारण नहीं था, असल में देखने वालों में कई लड़कियाँ भी थी। इससे कुछ खिलाड़ी ज़्यादा ही जोश में आ गये ताकि लड़कियों को अपने खेल के हुनर से प्रभावित कर सके। पर धीरे-धीरे खिलाड़ी आउट होते गये और आसपास के लोग भी कम हो गये।

        मन्दिर और बाज़ार में मेले जैसा माहौल था। बहुत से लोग नये-नये कपड़ों में दीख रहे थे। कइयों ने नये भड़कीले चमकदार कपड़े पहने थे, जो उसी बाज़ार से सबसे सस्ती वाली दुकान से ख़रीदे गये थे। सफ़ेद शर्ट, चमकीली नीली जैकेट और पेंट जिस पर शेर-चीते के डिज़ाइन थे और बालों को बीच से खड़ा करके, काला चौकोर चश्मा पहने जो उसके पतले चेहरे पर बड़ा लग रहा था।

      बीस साल का दीखने वाला पतला दुबला सा लड़का कृष्ण के मूर्ति के आस पास घूम रहा था, लड़कियों के पास से गुज़रने पर अपने बालों पर हाथ फेरता और फ़ोन को आगे पर अपनी तस्वीर खींचने लगता और उसके बाद बगल से गुज़र रही लड़की को हल्का चश्मा नीचे करके देखने लगता।

वहीं पास में एक लड़का-लड़की भी मन्दिर तक जाने वाली सड़क पर टहल रहे थे। दोनों ने एक भूरे रंग की जीन्स पहनी थी, जिसमें बस थोड़ा सा ही रंग का अन्तर था, साथ ही गुलाबी टीशर्ट पहनी थी। साथ चलते-चलते दोनों के हाथ सट जाते तो शर्माते हुए एक-दूसरे की आँखों में देखने लगते।

    “कल काम ख़त्म होने के बाद तू कहाँ चली गयी थी? मैं तेरा वेट कर रहा था।”

     “चुप कर! मैंने तो वहीं से रिक्शा पकड़ी थी जहाँ से रोज पकड़ती हूँ। बस कल हुआ यह कि वह कमीना ठेकेदार पीछे ही पड़ गया था, कह रहा था ओवरटाइम लगा कर जाना है। मैंने तो बोल दिया तबीयत ठीक नहीं है आज नहीं रुक पाऊँगी। तभी जल्दी-जल्दी रिक्शा पकड़ कर भाग गयी।”

     “मेरे को बता देना अगर ज़्यादा फ़ालतू बोले तो, साले की हड्डी पसली तुड़वा दूंगा।” अपना रौब जमाते हुए लड़का बोला।

“और तूने क्या सोचा फिर?”

  “किस बारे में?”

  “बताया तो था तुझे छह महीने बाद गाँव जाना है। पापा ने किसी लड़के को देखा है मेरे लिये।”

    दोनों का का चेहरा निराशा से लटक गया। लड़के के सूखे गाल और अन्दर धँस गये। जेब में हाथ डालकर चलते हुए वह बोला :

    “अभी तो 6 महीने हैं करता हूँ कुछ। नहीं होगा तो भागकर शादी कर लेंगे, वैसे भी फैक्ट्री में ही कमाकर खा रहे हैं, तो इधर से कहीं दूर मुम्बई या कहीं भी जाकर भी काम कर ही लेंगे। कौन सा वहाँ तक हमें कोई ढूँढ लेगा।”

     दोनों टहलते टहलते बाज़ार की ओर चले गये।

(4).

बाज़ार में प्रवेश करते ही भीड़ बढ़ गयी। सारी आवाज़ें मिलकर शोर और चिढ़ पैदा कर रही थी। मन्दिर से निकलते ही प्रसाद की दुकानें थी और उसके सामने टैटू बनायें जा रहे थे। वहाँ कई नवयुवक व युवतियाँ टैटू बनवाने के लिए खड़े थे। कोई अपना, अपनी प्रेमिका या माँ-बाप का नाम गुदवा रहा था, तो कोई चाँद-सितारे या कंकाल जैसा डिज़ाइन बनवा रहा था।

      उसके पास जलेबी-समोसे, चाट पकौड़ी, छोले भटूरे की दुकानें थी, जहाँ बच्चे सबसे ज़्यादा इकट्ठा थे। जो एक दूसरे को हल्का-हल्का ठेलकर अपनी पसंदीदा चीज़ लेने की कोशिश में लगे थे। इससे आगे कपड़ों की दुकानें थी जहाँ साड़ी से लेकर पज़ामे तक सब मिल रहे थे। कुछ दुकानों में कपड़े सज़ाकर रखे गये थे, ताकि दूर से ही दिखाई दे।

      कई लोग आकर्षित होकर आते और उनमें से ज़्यादातर दाम सुनने के बाद निराश होकर लौटते जाते। फिर बारी आती उन दुकानों की जहाँ सबसे अधिक भीड़ थी। बेतरतीब, एक-दूसरे पर फेंककर रखे हुए कपड़े जो सबसे कम क़ीमत पर बिक रहे थे। इन दुकानों पर आलू-प्याज़ की तरह पड़े कपड़ों को उठाते देखते और मोलभाव करने की कोशिश करते।

      कुछ दुकानों पर ‘सौ रुपये सेल-सौ रुपये सेल’ का रिकॉर्ड बार-बार बज रहा था तो अधिक लोग वहीं जाते। ये थे फीके, बेकार गुणवत्ता, हल्के कटे-फटे या पुराने पड़े कपड़े, उन्ही में से छाँटकर लोग अपनी पसन्द के कपड़े ले रहे थे। सबसे आख़िर में सब्ज़ियों की दुकानें थी जहाँ सबका बराबर आना-जाना लगा था।

      मन्दिर के सबसे दूर कोने में कुछ दो-चार लोगों के झुण्ड बैठे थे। वहीं काली पेंट सफ़ेद शर्ट उस पर काला कोट और टाई पहने एक अधेड़ उम्र का आदमी अपने काले चमड़े के बैग से कुछ काग़ज़ निकालकर वहाँ बैठे लोगों को दिखा रहा था। उसके गोल भरे चेहरे का मांस  लटककर गले के ऊपरी भाग को ढक रहा था और उसने काला गोल चश्मा पहना हुआ था।

“कब तक ऐसे फैक्ट्रियों में काम करके सात-आठ हज़ार कमाते रहोगे। आप भी सोचते होंगे कि अच्छी ज़िन्दगी हो, अच्छे कपड़े पहन कर बाहर घूमने जायें, बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ायें। तो बताइए क्या फैक्ट्री में काम करते करते ये सब कर पाओगे?”

     उसके सामने बैठे दोनों लोग सोच में पड़ गये। उनमें से एक बोला- “नहीं”

       “देखिए ये सब करने के लिये आपको मेहनत के साथ-साथ अकल से ही काम लेना होगा। आपको आयुर्वेदा कम्पनी से जुड़ना होगा। क्यों जुड़ना होगा ये समझिये। हमारी कम्पनी से आप जुड़कर अपने साथ तीन लोगों को और जोड़िये और तब आपको दस हज़ार रुपये मिलेंगे, जब वह तीन और तीन लोगों को जोड़ेंगे तब आपको बीस हज़ार मिलेंगे।

      तो सोचिए बैठे-बैठे आपको बढ़कर पैसे मिलने लगेंगे, तभी लाइफ में सक्सेस मिलेगी। देखिये यह शर्मा जी हैं।” एक फ़ोटो निकालकर बोला

“आप लोगों की तरह ही छोटा-मोटा काम करते थे और देखिये हमारी कम्पनी से जुड़ने के बाद इनके पास दो साल में ह्युंडई की कार है। यह देखिये ये झा जी हैं। पहले झुग्गी में रहते थे अब अपना फ्लैट है। यह सब आपके पास भी हो सकता है।”

      सामने बैठे दोनों एक दूसरे की आँखों में देखने लगे। तभी उनमें से एक ने बड़ी मासूमियत के साथ पूछा- “आप तो ई रिक्शा से आये हैं, आपके पास नहीं है ये सब?”

      काला कोर्ट पहने आदमी थोड़ा सोच में पड़ गया, पर चेहरे पर बिना कोई शिकन दिखाये जवाब दिया : “मैं अभी नया-नया जुड़ा हूँ। यह मेरा कार्ड है, आप रख लीजिये जब समझ आयेगा फ़ोन करना।” दाल गलते न देख उसने अपना झोला उठाया और निकल गया।

   मन्दिर के लाउडस्पीकर पर एक बार फिर घोषणा होती है :

      “सभी राम भक्तों से निवेदन है इस बुधवार को मन्दिर निर्माण की रैली में ज़रूर आयें और रामलला का आशीर्वाद पायें।” घोषणा ख़त्म होते ही भजन और तेज़ आवाज़ में बजने लगा, जो फैलते-फैलते बेसुरी होती जा रही थी:  “श्री राम जानकी बैठे हैं मेरे सीने में! राम लला हम आयेंगे, मन्दिर वहीं बनायेंगे।”

      डूबते सूरज की लालिमा अपना चरम पर थी। आज आख़िरी बार सूर्य अपनी ओर से किरणें बिखरने की कोशिश कर रहा था। इस कारण सारा आसमान में हल्का गुलाबी सा प्रतीत होने लगा। इस वक्त हवा कुछ ठहरी हुई थी।

(5).

    आख़िर सूरज डूब गया, तेज़ हवाओं ने सब कुछ अपने आगोश में ले लिया। अँधेरा हर तरफ़ फैल चुका था। पूरे पार्क में सन्नाटा पसर गया, कहीं कोई नहीं दिखाई दे रहा था। लाउडस्पीकर का शोर अभी ख़त्म नहीं हुआ, बस अभी उसकी आवाज़ धीमी थी।

      सब लौट गये फिर अपने ठिकानों में जहाँ अगले दिन उन्हें सुबह से रात तक, अपने हाड मांस को गलाना था ताकि अपना व परिवार का पेट का गड्ढा भर सके। यही पहिया घूम रहा है दिन, रात, महीनों, सालों से।

     इसी में एक दिन निकाल कर आते हैं सभी सुकून की तलाश करते हुए, पर अन्त में रह जाता है तो सिर्फ़ अँधेरा जो सब कुछ अपने अन्दर समा लेना चाहता है।

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