पुष्पा गुप्ता
दक्षिण भारत का मनोहारी स्थान चिदंबरम. संध्या का समय। सूर्य अपनी अरुणिम प्रकाश बिखेर रहा था। आसमान में उड़ते श्वेत बादल भी इस सुनहरे रंग से रंगकर स्वर्णिम हो गए थे। पीपल वृक्ष के नीचे बैठे एक संत के दिव्य मुखमंडल पर सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश उनकी दिव्यता को और भी शोभायमान कर रहा था। शांत-शीतल हवा बह रही थी। इसी समय एक युवा संन्यासी ‘अप्पार-अप्पार’ (पिता) कहकर पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे महात्मा के चरणों में भक्तिपूर्वक लोटने लगे।
युवा संन्यासी का नाम संबंध था। उनका जन्म ६३९ ईसवी सन् में हुआ था। उनके ‘अप्पार’ कहकर पुकारने से महात्मा को सभी संत अप्पार के नाम से जानने लगे थे।
संत अप्पार का आविर्भाव काल ६०० ई० सन् माना जाता है। इनका जन्म दक्षिण आरकट जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। परिवार संपन्न एवं समृद्ध था। अप्पार के संत बनने की भी बहुत अद्भुत कथा थी। यद्यपि संतों के जीवन में सांसारिकता का अभाव होता है, तथापि वे संसार की सेवा में, लोक-कल्याण में एवं आत्मकल्याण में अपने समय का नियोजन करते हैं। अप्पार के साथ भी यही हुआ।
अप्पार को संसार एवं सांसारिक संबंधों का बोध होने से पहले ही उनके माता- पिता का स्वर्गवास हो गया। बड़ी बहन ने आपका भरण- पोषण किया था।
एक बार उनकी बहन उनको भोजन परोस रही थी। हाथ-मुँह प्रक्षालन कर जैसे ही अप्पार आसन पर बैठने लगे कि वे भयंकर पीड़ा से छटपटाने लगे। किसी भी प्रकार की दवा से कोई लाभ नहीं मिला। अंततः उनकी शिवभक्त बहन ने कहा- ” भाई! महादेव मंदिर में जाकर प्रार्थना करो। महादेव सारे विघ्नों एवं सारी पीड़ाओं का नाश करते हैं। वे ही तुम्हारी सहायता कर सकते हैं।”
बहन की आज्ञा का पालन कर अप्पार शिवमंदिर में जाकर प्रार्थना करने लगे। प्रार्थना के स्वर तो पीड़ा के चरम में और भी घनीभूत हो जाते हैं। दरद तो तत्क्षण शांत हो गया।
वहाँ पर दिव्यज्योति के सघन पुंज के रूप में महादेव प्रकट होकर कहने लगे- “पुत्र! आज के बाद तुम्हारा जीवन मानवता के लिए समर्पित होगा। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी वाणी में सरस्वती का वास होगा। तुम शरीर से पीड़ित मानवता की सेवा करना।”
अप्पार के जीवन में भगवान शिव की कृपा से एक नया मोड़ आया। वे अपने प्रभु का आदेश पालन करने हेतु अपनी एकमात्र बहन से विदा लेकर भ्रमण को निकले। इसी भ्रमणकाल में ही चिदंबरम में संन्यासी संबंध से आपकी भेंट हुई।
किसी दिव्य प्रेरणा के वशीभूत होकर युवा संन्यासी संबंध ने आपको अप्पार कहकर पुकारा और तबसे आपका नाम अप्पार ही पड़ गया। संत अप्पार और सन्यासी संबंध के संबंधों की आत्मीयता एवं अपनेपन की गहराई की कोई थाह नहीं थी।
संत अप्पार के हृदय में संन्यासी संबंध बसते थे और संबंध भी उन पर अपने प्राण निछावर करते थे। सांसारिक संबंधों की अपेक्षाओं एवं चाहतों से बहुत परे इन आध्यात्मिक संबंधों की व्याख्या संभव नहीं है, केवल उनका अनुभव एवं बोध ही किया जा सकता है।
एक बार संन्यासी संबंध से एक जिज्ञासु ने पूछा- “हे महात्मन् ! मैंने अनेक विषयों का गंभीर अध्ययन किया, अनेक गूढ़ ग्रंथों का अनुशीलन किया और मुझे तमाम शास्त्र एवं ग्रंथ मुँहजबानी याद हैं। मुझे अपने ज्ञान पर बड़ा गर्व भी है। लोग जब मुझे विद्वान कहते हैं और मेरी विद्वता की प्रशंसा करते हैं तो मेरे अहंकार को बड़ी तुष्टि एवं तृप्ति मिलती है, परंतु इन सबसे शांति एवं आनंद नहीं मिलता। अकेले में एवं एकांत में स्वयं के तर्क मुझे ही छलनी करने लगते हैं। एक तर्क मेरे ऊपर हँसता है तो दूसरा उसे निरुत्तर करने के लिए अन्य अनेक तर्कों के तीर चलाता है। तर्कों के इस संघर्ष में केवल मेरा अंतःकरण ही क्षत-विक्षत होता है। बड़ा ही द्वंद्व है। दूसरों के प्रश्नों का विद्वत्तापूर्ण समाधान प्रस्तुत करने की क्षमता के बावजूद स्वयं की समस्याओं से मुक्त न हो पाना ही एक गंभीर समस्या बन गई है। कोई समाधान प्रदान करें।”
संन्यासी संबंध ने उस विद्वान को संत अप्पार के पास जाकर समाधान माँगने का संकेत दिया। संकेत को समझ वह विद्वान संत अप्पार को नमन कर वहीं पास में एक आसन पर बैठ गए। संत अप्पार की स्नेहिल एवं प्रेमपूर्ण दृष्टि से वह विद्वान अत्यंत पुलकित हो उठे। उन्हें इतना स्नेह तो कभी मिला ही नहीं, मिली थी तो केवल प्रशंसा एवं प्रशस्ति।
वे इस अपनेपन एवं आत्मीयता की सजल धारा से सदा अछूते रहे थे। संत अप्पार की दृष्टि से ही उनका अंतर्मन भीगने लगा। संत की दृष्टि होती ही ऐसी है। बड़े ही मधुर स्वर में संत अप्पार ने कहा- “वत्स ! तुमने अध्ययन तो बहुत किया है, अब आवश्यकता है स्वाध्याय करने की। स्वाध्याय से ही तुम्हारी समस्याओं का समाधान हो सकेगा।”
विद्वान विस्मित हुए। उन्होंने कहा- “हे महात्मन् ! अभी तक स्वाध्याय ही तो कर रहा था। मैं तो इसके अलावा कुछ और जानने-समझने आया था।” अप्पार के अधरों पर एक मुस्कराहट बिखर गई, ठीक ऐसी, जैसे बच्चों की नासमझी से अभिभावकों के मुख पर आती है। अप्पार ने बड़े प्यार से कहा- “वत्स ! अभी तक जो तुमने किया है, वह अध्ययन है न कि स्वाध्याय।
अध्ययन का अर्थ है, दूसरों के लिपिबद्ध विचारों को, जिन्हें ग्रंथ कहते हैं, उनका अनुशीलन करना, पढ़ना। ग्रंथ में निहित आँकड़ों, तथ्यों, घटनाओं एवं विचारों का तर्कसंगत संबंध स्थापित करना, समालोचना करना एवं व्याख्या करना, यही अध्ययन है। स्वाध्याय इससे सर्वथा भिन्न है।”
विद्वान ने जिज्ञासापूर्वक पूछा – “फिर स्वाध्याय किसे कहते हैं ?” संन्यासी संबंध भी वहीं आकर एक आसन पर विराजमान हो गए थे। संत अप्पार का मनमोहक स्वर उभरा और उसने शब्दों का आकार लिया। वह बोले- “स्वाध्याय जीवन के सिद्धांतों का मनन एवं चिंतन करना है। जीवन का आधार क्या है।
मन कैसे क्रियाशील, गतिशील है एवं कैसे विकास के सोपानों को पार करता चला जाता है, ये सब ही जीवन के सिद्धांतों में सम्मिलित हैं। जीवन के सिद्धांत सत्कर्म, सदाचार एवं सद्भाव पर आधारित हैं- सत्कर्म की परिणति एवं परिणामों पर चिंतन करना, शिष्टाचार एवं सदाचारपूर्ण व्यवहार बन पा रहा है या नहीं, इस पर गंभीरता से विचार करना, औरों के प्रति हमारे मन-भाव कैसे हैं, इसका निरीक्षण एवं अवलोकन करना ही तो स्वाध्याय है।”
संत अप्पार कह रहे थे-“स्वाध्याय के लिए अध्ययन मात्र एक माध्यम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अध्ययन में हम औरों के विचारों का विश्लेषण करते हैं; जबकि स्वाध्याय में हम स्वयं के विचारों एवं भावनाओं का अध्ययन करते हैं। स्वाध्याय का विषय हमारे विचार, भाव एवं आत्मा होते हैं। स्वाध्याय अंतरतम में गोते लगाना एवं अनुभव प्राप्तः करना है; जबकि अध्ययन में यह सुविधा नहीं है।” विद्वान ने ऐसी बातों को कभी सुना ही नहीं था। स्वाध्याय की ऐसी मौलिक व्याख्या से प्रथम बार परिचित हुए थे। वे अपने विषय में पहली बार सोच की गहराई में उतर रहे थे।