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सफल और अकल?

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शशिकांत गुप्ते

अकल और सफल ये दो शब्द तुकांत कविता के लिए उपयोगी हो सकतें हैं।  व्यावहारिक तौर पर इन दो शब्दों पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए।

व्यावहारिक रूप से किसी भी सफलता का मापदण्ड अकल के साथ जोड़ना उचित नहीं है।

सफलता को व्यापक दृष्टि से समझना चाहिए।

जो *देशवासी* खाद्य पदार्थों, दवाइयों में मिलावट करतें हैं? जो लोग बहुत से उत्पादकों की नकल कर बेंचतें हैं। क्या इन्हें अकाल वाला व्यापारी कहा जा सकता है?

मिलावट खोर,जमाखोर, नकली वस्तुओं को अपने ही देशवासियों को मतलब अपने ही परिवार के लोगों को बेईमानी से बेंचने में सफल होतें हैं? क्या इन्हें अकल वाला कहा जा सकता है? क्या अपने देश की कानून व्यवस्था को धता बताने में स्वयं को निपुण समझने वालों को अकल वाला कहना उचित होगा?

इसीतरह सियासत में बगैर किसी योग्यता के धनबल और बाहुबल पर सफलता प्राप्त व्यक्ति को अकल वाला राजनेता कहा जा सकता है।?

वह विद्यार्थी जो परीक्षा में परीक्षकों की आँखों में धूल झोंक कर नकल करने में सफल हो जाता है,उसे अकल है यह कहा जा सकता है? वह शिक्षक जो विद्यार्थियों को शिक्षत करने के बजाए उन्हें नकल करवा कर परीक्षा में उतीर्ण करवाएं क्या ऐसे शिक्षक को अकल वाला व्यक्ति कह सकतें हैं? ऐसे असंख्य प्रश्न उपस्थित होतें हैं।

उपर्युक्त मुद्दों के संदर्भ में प्रख्यात हास्य व्यंग्य के कवि *स्व.काका हाथरसी* रचित इस कविता का स्मरण होता है।

*मन मैला तन ऊजरा भाषण लच्छेदार*

*ऊपर सत्याचार है भीतर भ्रष्टाचार*

*झूठों के घर पंडित बाँचें कथा सत्य भगवान की*

*जय बोलो बेईमान की!*

*लोकतंत्र के पेड़ पर कौआ करें किलोल*

*टेप-रिकार्डर में भरे चमगादड़ के बोल*

*नित्य नयी योजना बनतीं जन-जन के कल्यान की*

*जय बोलो बेईमान की!*

*बेकारी औ भुखमरी महँगाई घनघोर*

*घिसे-पिटे ये शब्द हैं बन्द कीजिए शोर*

*जय बोलो बेईमान की !*

ठीक इसीतरह सन 1972 में प्रदर्शित और मनोजकुमार अभिनीत फ़िल्म *बे-ईमान* के इस गीत की कुछ पंक्तियों का स्मरण स्वाभविक ही हो जाता है।इस गीत के गीतकार हैं *वर्मा मलिकजी*

*जय बोलो बेईमान की जय बोलो*

*न इज्ज़त की चिंता न फिकर कोई अपमान की*

*बेईमान के बिना मात्रे होते अक्षर चार*

*ब बदकारी ई ईर्ष्या म से बने मक्कार*

*न सा नमक हराम समझो हो गए पूरे चार*

*चार गुनाह मिल जाएँ होता बेईमान तैयार*

हर तरह बेईमानी कर सफल व्यक्ति को अकल वाला कहना बुद्धिहीनता ही तो कहलाएगी?

इसीलिए सफलता का मापदंड अकल कतई नहीं हो सकता।

यदि सफलता का मापदंड अकल को समझा जाएगा तब सभी बेईमानो को अकल वाला कहना पड़ेगा?

अकल से सफलता प्राप्त करने वाले बिरले ही होतें हैं। इन लोगों की फेरहिस्त में वे तमाम वैज्ञानिक, सच्चें संत,क्रांतिकारी, समाज के कल्याण के लिए सुधार की जगह परिवर्तन लाने वालें, वे तमाम साहित्यकार जो समाज को योग्य दिशा निर्देश देकर साहित्य समाज का दर्पण है,इस उक्ति को सिद्ध करने में सफल हैं। वे लोग जो कलयुग में भी नीतिमत्ता से चलतें हैं। यह भी बहुत बड़ी फेरहिस्त है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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