Site icon अग्नि आलोक

“काल” अमृत में सुंदर रावण?

Share

शशिकांत गुप्ते

यह तो शाश्वत सत्य है कि,परिवर्तन संसार का नियम है।

लेकिन आश्चर्य होता है,जब स्वार्थ सिद्धि के लिए परिभाषाएं बदल दी जाती है।

इनदिनों लोकतंत्र के मूलभूत अधिकार असहमति को गाली की उपमा दी जा रही है। असहमति मतलब सत्ता की गलत,नीतियों के विरोध को गाली जैसी तुच्छ उपमा देना,ना सिर्फ छद्म उपलब्धियों पर पर्दा डालने का असफल प्रयास है,बल्कि सत्ता की अलोकतांत्रिक सोच को भी दर्शाता है।

लोकतंत्र में सत्ता की गलत नीतियों का विरोध यदि गालियां है,तो Hate speech को क्या  सौहाद्रपूर्ण वक्तव्य कहा जाएगा?

चाकू को सिर्फ घर में तरकारी काटने तक सीमित न रखते हुए,मानव की गर्दन को धड़ से अलग करने की सलाह को मित्रता स्थापित करने का उपदेश समझना चाहिए?

हम विपक्ष में होते हैं,तब बगैर सबूत के देश के पवित्र सदन में हंगामा करते हैं। तात्कालिक सत्ता अपनी उदार मानसिकता का परिचय देते हुए,जांच करवाती है। न्यायालय में बाकायदा मुकदमा दायर होता है, नतीजा टांय टांय फीस?

लेकिन आज आरोपों को साथ सबूत मांगा जा रहा है?

इस संदर्भ में एक कहावत का स्मरण होता है।

*हम करें तो रास लीला,तुम करों तो कैरेक्टर (Character) ढीला* 

Character का हिंदी में शब्दार्थ होता है,”चरित्र”।

पिछले एक दशक से चरित्र का जो चित्र दिखाई दे रहा है,वह भयावह तस्वीर में तब्दील होता दिखाई दे रहे है।

एक व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्य में लिखा है कि,एक चित्रकार ने रावण का चित्र रेखांकित किया,किसी व्यंग्य कार ने रावण के चित्र के नीचे लिख दिए, बहुत सुंदर।

रावण और सुंदर क्या कमाल की प्रतिक्रिया है। 

इनादिनो *काल* का अमृत से समन्वय स्थापित किया जा रहा है। अमृत के महत्व को समझाते हुए व्यंग्यकार ने कहा। 

समुद्र मंथन से निकला अमृत तात्कालिक असुरों के ही हाथों लगा था। तात्कालिक असुर ईमानदार थे,वे अमृत कलश लेकर देश के भीतर ही भागे रहे। विदेश भाग कर नहीं गए।

व्यंग्यकार का वक्तव्य सुनकर मेरे मुंह से सहज ही निकल गया,

वाह वाह क्या बात है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

Exit mobile version