राज्य के कानून विभाग ने एक प्रशासनिक समिति और पूर्ण अदालत की बैठक के बाद परिवीक्षा अवधि के दौरान उनके प्रदर्शन को असंतोषजनक पाते हुए बर्खास्तगी के आदेश पारित किए। जिन न्यायाधीशों की सेवाएं समाप्त की गई हैं, उनमें उमरिया में तैनात सरिता चौधरी शामिल हैं; रचना अतुलकर जोशी, जिन्होंने रीवा में सेवा की; इंदौर से प्रिया शर्मा; मुरैना से सोनाक्षी जोशी; टीकमगढ़ से अदिति कुमार शर्मा; और टिमरनी से ज्योति बरखेड़े।
जेपी सिंह
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा छह महिला सिविल जजों की सेवाओं को उनके असंतोषजनक प्रदर्शन के आधार पर खत्म करने पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया है। सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड की गई आफिस रिपोर्ट के मुताबिक अपने प्रार्थना-पत्र में इन पूर्व जजों ने कहा कि उन्हें इस तथ्य के बावजूद बर्खास्त कर दिया गया कि कोविड महामारी के कारण उनके कार्य का मात्रात्मक मूल्यांकन नहीं किया जा सका।
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने सुप्रीम कोर्ट को लिखे गए इन छह में से तीन पूर्व क्लास-2 सिविल जजों (जूनियर डिवीजन) के प्रार्थना-पत्र पर संज्ञान लिया और उसे रिट याचिका मानने का फैसला किया। पीठ ने इस मामले में अधिवक्ता गौरव अग्रवाल को न्यायमित्र नियुक्त किया है।
सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड की गई आफिस रिपोर्ट के मुताबिक, अपने प्रार्थना-पत्र में इन पूर्व जजों ने कहा है कि उन्हें इस तथ्य के बावजूद बर्खास्त कर दिया गया कि कोविड महामारी के कारण उनके कार्य का मात्रात्मक मूल्यांकन नहीं किया जा सका। ऑफिस रिपोर्ट के मुताबिक, उन्हें मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा में नियुक्त किया गया था और निर्धारित मानकों पर खरा नहीं उतरने के कारण सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।
एक प्रशासनिक समिति और फुल कोर्ट मीटिंग में प्रोबेशन अवधि के दौरान उनका प्रदर्शन असंतोषजनक पाए जाने के बाद प्रदेश के न्याय विभाग ने जून, 2023 में उनकी बर्खास्तगी के आदेश जारी किए थे।
इनमें से एक पूर्व जज द्वारा अधिवक्ता चारू माथुर के जरिए दाखिल प्रार्थना-पत्र के मुताबिक, चार वर्षों का बेदाग सर्विस रिकॉर्ड और कोई भी प्रतिकूल टिप्पणी नहीं होने के बावजूद उन्हें कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना बर्खास्त कर दिया गया।
उन्होंने इसे अनुच्छेद-14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) एवं अनुच्छेद-21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार) के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया। यह भी कहा कि अगर मात्रात्मक कार्य मूल्यांकन के दौरान मातृत्व एवं बच्चे की देखभाल के अवकाश पर भी विचार किया गया था तो यह उनके साथ गंभीर अन्याय है।
जून 2023 में, मध्य प्रदेश सरकार ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की सिफारिश पर छह न्यायाधीशों की सेवाओं को समाप्त कर दिया था।
राज्य के कानून विभाग ने एक प्रशासनिक समिति और पूर्ण अदालत की बैठक के बाद परिवीक्षा अवधि के दौरान उनके प्रदर्शन को असंतोषजनक पाते हुए बर्खास्तगी के आदेश पारित किए। जिन न्यायाधीशों की सेवाएं समाप्त की गई हैं, उनमें उमरिया में तैनात सरिता चौधरी शामिल हैं; रचना अतुलकर जोशी, जिन्होंने रीवा में सेवा की; इंदौर से प्रिया शर्मा; मुरैना से सोनाक्षी जोशी; टीकमगढ़ से अदिति कुमार शर्मा; और टिमरनी से ज्योति बरखेड़े।
उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला था कि अक्टूबर 2023 के पहले सप्ताह में, उन्हें वर्ष 2022 के लिए अपनी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) प्राप्त हुई, जिसमें उन्हें प्रधान जिला और सत्र न्यायाधीश और पोर्टफोलियो न्यायाधीश द्वारा ग्रेड बी (बहुत अच्छा) दिया गया, लेकिन मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा ग्रेड डी (औसत) से सम्मानित किया गया। उन्होंने दावा किया कि यह ग्रेडिंग एक विचार था क्योंकि इसे उनकी समाप्ति के एक महीने बाद पारित किया गया था।
इसके अलावा, न्यायाधीश ने इस बात पर प्रकाश डाला कि नवंबर 2020 में उनकी परिवीक्षा अवधि समाप्त होने के बाद भी उनकी बर्खास्तगी का आदेश पारित किया गया था। उन्होंने कहा कि अगर परिवीक्षा अवधि नियमों के अनुसार बढ़ाई भी जाती तो यह नवंबर 2021 से आगे नहीं बढ़ सकती थी।
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने आदेश पारित करते हुए कहा कि इस मामले का स्वत: संज्ञान चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने पहले ही ले लिया था। यह याचिका अनुच्छेद 32 की प्रकृति में है।
पीठ ने दलीलें सुनने के बाद स्वत: संज्ञान रिट याचिका में नोटिस जारी किया। 6 अधिकारियों में से एक को पक्षकार बनाने के आवेदन की अनुमति दी गई। जैसे ही एडवोकेट रेखा पांडे 3 अधिकारियों की ओर से उपस्थित हुईं, एमपी हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के अलावा शेष 2 अधिकारियों को नोटिस जारी करने का निर्देश दिया गया।
अगर वकील माफी मांग ले तो उसे छोड़ दिया जाए
सुप्रीम कोर्ट ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय से अनुरोध किया कि वह एक वकील के आचरण पर एक सहानुभूति का दृष्टिकोण अपनाए, जिसके खिलाफ अदालत को गुमराह करने के लिए 20,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की तीन जजों की बेंच ने अपने आदेश में कहा,”इस्माइल हक द्वारा उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के समक्ष लिखित में बिना शर्त माफी मांगने की शर्त पर, हम एकल न्यायाधीश से अनुरोध करेंगे कि इस तथ्य के संबंध में मामले पर उचित दृष्टिकोण लें कि गलती बार में एक जूनियर द्वारा की गई थी।
हालांकि, अदालत ने उच्च न्यायालय की चिंताओं को भी स्वीकार किया और कहा कि अदालत के समक्ष पेश होने वाला वकील अदालत के अधिकारी से ऊपर है और उसे उस क्षमता में अपने कर्तव्यों का पालन करने की आवश्यकता है।
बार में जूनियर होने के नाते उचित व्यवहार संहिता का पालन करने से छूट नहीं है, खासकर अदालत से निपटने में। साथ ही, हमें इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यदि अधिवक्ता उच्च न्यायालय के विद्वान एकल न्यायाधीश के समक्ष लिखित व्यक्तिगत माफी मांगता है, तो विद्वान एकल न्यायाधीश उचित आदेश पारित करके सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाएंगे।
जिला स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करने की याचिका
अल्पसंख्यकों की जिलेवार पहचान से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (12 जनवरी) को पिछले अनुस्मारक के बावजूद कुछ राज्य सरकारों द्वारा हलफनामे और प्रतिक्रिया प्रस्तुत करने में विफलता पर अपनी अस्वीकृति व्यक्त की।
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें केंद्र सरकार को ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को परिभाषित करने और जिला स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए व्यापक दिशानिर्देश बनाने का निर्देश देने की मांग की गई।
सुनवाई के दौरान, पीठ ने सवाल किया कि पहले के मौकों पर याद दिलाने के बावजूद सभी राज्यों द्वारा अभी तक जवाब क्यों नहीं दिया गया। जस्टिस खन्ना ने टिप्पणी की कि अदालत अनुपालन में विफल रहने वाले राज्यों पर जुर्माना लगाएगी।
सख्त रुख के बावजूद, पीठ ने अंततः अनुपालन न करने वाली राज्य सरकारों को छह सप्ताह के भीतर जवाब प्रस्तुत करने का एक और अवसर दिया। इसमें निर्दिष्ट समयसीमा के भीतर अनुपालन करने में विफलता के परिणामस्वरूप संबंधित राज्य सरकारों को 10,000 रुपये का जुर्माना भरना पड़ेगा। भारत संघ को अगली सुनवाई की तारीख से दो सप्ताह पहले स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का भी निर्देश दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट में क्यों भिड़ गए कपिल सिब्बल और तुषार मेहता
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, ये मामला देश की सबसे बड़ी अदालत में है। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई के दौरान एएमयू ओल्ड बॉयज एसोसिएशन के वकील कपिल सिब्बल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के बीच तगड़ी बहस हुई।
खास बात ये कि दोनों ही अपनी बात रखने के लिए एक ही शख्स के भाषण का सहारा लिया। वह भी अलग-अलग मौकों या जगहों पर दिए भाषण की नहीं, बल्कि संसद में दिए भाषण की। दोनों ने सितंबर 1965 में संसद में दिए गए तत्कालीन शिक्षा मंत्री एम. सी. छागला के भाषण को कोट किया।
सिब्बल जहां छागला को कोट कर ये दलील दे रहे थे कि तत्कालीन मंत्री भी एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को बरकरार रखने के पक्ष में थे। दूसरी तरफ मेहता भी छागला गला को ही कोट करके ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि उनकी मंशा तो कुछ और ही थी।
1965 में केंद्र सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ऐक्ट, 1920 में संशोधन किया था। नए कानून में जो सबसे प्रमुख बदलाव था वो ये था कि प्रशासनिक शक्तियों को ‘यूनिवर्सिटी कोर्ट’ से एग्जिक्यूटिव काउंसिल को दे दिया गया। तब एएमयू को लेकर सरकार की आखिर मंशा क्या थी? क्या वह उसे एक अल्पसंख्यक संस्थान की तरह देख रही थी या एक ऐसे संस्थान में जो हर समुदाय के लिए हो?
सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़ की अगुआई वाली बेंच के सामने इसी मुद्दे को लेकर सिब्बल और मेहता भिड़ गए। 1965 में एएमयू ऐक्ट में किए गए बदलाव के वक्त छागला ही शिक्षा मंत्री थे। वह बॉम्बे हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाना चाहते थे लेकिन उन्होंने उनकी पेशकश ठुकरा दी थी।
कपिल सिब्बल ने 3-6 सितबंर 1965 में संसद में दिए छागला के भाषण का जिक्र किया। ये वो वक्त था जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था। सिब्बल ने छागला को कोट करते हुए कहा, ‘एक अघोषित युद्ध चल रहा है। हमें सांप्रदायिक सौहार्द को बरकरार रखने के लिए हमें सबकुछ करना चाहिए जो हमारे वश में हो। हमें ऐसा एक भी शब्द नहीं बोलना चाहिए जिससे उस सौहार्द को नुकसान पहुंचे।’
सिब्बल ने दलील दी कि आज के ‘असहिष्णु’ माहौल में ये शब्द और भी महत्वपूर्ण हैं। वरिष्ठ वकील ने कहा कि 1965 के एएमयू (अमेंडमेंट) बिल पर चर्चा के दौरान छागला ने कहा था कि इस बिल से यूनिवर्सिटी के स्पेशल करेक्टर पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इस तरह सिब्बल ने ये स्थापित करने की कोशिश की कि सांसदों ने हमेशा एएमयू को एक अल्पसंख्यक संस्थान के तौर पर ही देखा है।
इतना ही नहीं, अपनी दलील के समर्थन में उन्होंने उस ऐतिहासिक तथ्य का भी जिक्र किया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए मुस्लिम समुदाय ने तब 30 लाख रुपये (आज उसकी कीमत करीब 500 करोड़ रुपये होगी) जुटाए थे।
सिब्बल ने छागला को कोट करते हुए आगे कहा, ‘धर्मनिरपेक्ष भारत में यह (एएमयू) मुस्लिम संस्कृति का प्रतीक होनी चाहिए। यह बाकी दुनिया के लिए एक नजीर होनी चाहिए कि कैसे अलग-अलग समुदाय हमारे देश में एक साथ शांति और सद्भाव से रह सकती हैं.. अलीगढ़ को मजबूत किया जाना चाहिए और इसे आधुनिक प्रगतिशील यूनिवर्सिटी बनना चाहिए जिसकी चमक न सिर्फ भारत में हो बल्कि दुनियाभर में हो। जो दुनिया में हमारी सामासिक संस्कृति की चमक बिखेरे।’
सिब्बल ने पूछा, ‘आखिर सरकार को एक राष्ट्रीय महत्व की ऐसी यूनिवर्सिटी जिसने देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को मजबूती दी हो, उसके अल्पसंख्यक चरित्र को नष्ट करने की कोशिश क्यों करनी चाहिए? आखिर अदालत ये फैसला क्यों दे कि ये अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और इस तरह सदियों पुरानी विरासत को नष्ट करे?’
सिब्बल की दलीलों के जवाब में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी 2 सितंबर 1965 को संसद में दिए गए छागला के भाषण का जिक्र किया जिसमें उन्होंने कहा था कि एएमयू की स्थापना मुस्लिम समुदाय ने नहीं, बल्कि तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने की थी।
सॉलिसिटर जनरल ने संसद में दिए उनके भाषण को कोट किया, ‘मैं इस सदन से कहना चाहता हूं कि मुस्लिम समुदाय ने न तो एएमयू की स्थापना की है और न ही वह इसका प्रशासन करता है.. सर सैयद अहमद ने उस समय की ब्रिटिश सरकार ने एक यूनिवर्सिटी स्थापित करने की मांग की थी और ब्रितानी हुकूमत ने यूनिवर्सिटी की स्थापना की। इस तरह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना विधायिका ने की, न कि किसी समुदाय ने।’
मामले में अब अगली सुनवाई 23 जनवरी को होगी। इस मामले की सुनवाई कर रही बेंच में सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्य कांत, जे बी पार्दीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश शर्मा शामिल हैं।
केंद्र के विरुद्ध केरल की याचिका पर नोटिस
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने केरल राज्य द्वारा राज्य की उधार लेने की क्षमता पर केंद्र द्वारा सीमा लगाए जाने को चुनौती देने वाले मामले में केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया।
उक्त मुकदमे के माध्यम से राज्य ने वित्त मंत्रालय (सार्वजनिक वित्त-राज्य प्रभाग), व्यय विभाग, भारत सरकार द्वारा जारी 27 मार्च, 2023 और 11 अगस्त, 2023 के पत्रों और वित्त अधिनियम, 2018 के माध्यम से राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 की धारा 4 में किए गए संशोधनों को चुनौती दी।
इसका दावा है कि संघ शुद्ध उधार सीमा लगाकर राज्य के वित्त में हस्तक्षेप कर रहा है। इसमें आगे कहा गया कि लगाई गई सीमाओं के कारण राज्य वार्षिक बजट के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में असमर्थ है।
याचिका में कहा गया,“बजट को संतुलित करने और राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए राज्य की उधारी निर्धारित करने की क्षमता विशेष रूप से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है। यदि राज्य-राज्य के बजट के आधार पर आवश्यक सीमा तक उधार लेने में सक्षम नहीं है तो राज्य विशेष वित्तीय वर्ष के लिए अपनी राज्य योजनाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं होगा। इसलिए राज्य और राज्य के लोगों की प्रगति, समृद्धि और विकास के लिए यह आवश्यक है कि राज्य अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करने में सक्षम हो और उसकी उधारी किसी भी तरह से बाधित न हो।”
यह भी तर्क दिया गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 293(3) सपठित अनुच्छेद 293(3) के तहत शक्तियों के प्रयोग की आड़ में शर्तें लगाने से राज्य की विशेष संवैधानिक शक्तियां कम हो जाती हैं।
सुनवाई के दौरान, सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल केरल राज्य की ओर से पेश हुए और कहा कि यह मुकदमा गंभीर सवाल उठाता है, जिसमें अनुच्छेद 293(3) से संबंधित सवाल भी शामिल है। उन्होंने अनुरोध किया कि अंतरिम राहत की प्रार्थना पर विचार किया जाए, क्योंकि राज्य को पेंशन आदि का भुगतान करना है।
तदनुसार, पीठ ने अंतरिम राहत के लिए राज्य के आवेदन पर भी नोटिस जारी किया और मामले को 25 जनवरी, 2023 के लिए सूचीबद्ध किया।
सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश के DGP के तबादले का हाईकोर्ट का आदेश खारिज किया
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें आईपीएस संजय कुंडू को राज्य के डीजीपी पद से इस आरोप में ट्रांसफर किया गया कि वह मामले की निष्पक्ष जांच में हस्तक्षेप कर रहे हैं।
सीजेआडीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने हाईकोर्ट के प्रारंभिक आदेश एकपक्षीय रूप से पारित करने के तरीके पर आपत्ति व्यक्त की और फिर जब याचिकाकर्ता ने संपर्क किया तो पहले आदेश को वापस लेने से इनकार कर दिया।
ट्रांसफर के प्रारंभिक आदेश और उसके बाद पहले आदेश को वापस लेने से हाईकोर्ट के इनकार को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कार्रवाई का उचित तरीका पहले एकतरफा आदेश को वापस लेने के बजाय मामले को नए सिरे से सुनना था।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने आदेश में कहा, “हाईकोर्ट के लिए कार्रवाई का सही तरीका यह होता कि वह अपने एक पक्षीय आदेश को वापस ले लेता और मामले की नए सिरे से सुनवाई करता.. इसके बजाय, हाईकोर्ट ने अपने आदेश में पहले की स्थिति रिपोर्टों को काफी हद तक पीछे छोड़ दिया।…
… हाईकोर्ट का आदेश अधिकार क्षेत्र की मूल त्रुटि से प्रभावित होता है, क्योंकि इसके निर्देशों से गंभीर परिणामों का आदेश पारित किया गया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। निर्णय के बाद की सुनवाई से बेचैनी पैदा हो सकती, क्योंकि सुनने के लिए विवेक का कोई नया प्रयोग नहीं किया गया। पहली बार में पक्ष को नहीं सुना गया।”