अग्नि आलोक

धर्मनिरपेक्षता को पुनर्स्थापित करता सर्वोच्च न्यायालय का शानदार फैसला 

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,मुनेश त्यागी

        आजकल भारत के संविधान के बुनियादी सिद्धांतों में उल्लेखित धर्मनिरपेक्षता को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं हो रही हैं। वर्तमान सरकार के लगभग सभी मंत्रियों, विधायकों और सांसदों ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की जैसे बलि ही दे दी है। वे एक सुनियोजित तरीके से धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को जमींदोज कर रहे हैं और जान पूछ कर एक ऐसा माहौल बना रहे हैं कि लोग धर्मांता और अंधर्विश्वासों की आंधी में दबकर धर्मनिरपेक्षता की बातें करना ही छोड़ दें।

     मगर ऐसे भी हालात हैं कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के कुछ जज साहिबान सरकार की इस मानसा से सहमत नहीं है। उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता के वही मतलब हैं जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मुकदमों में दर्ज किए हैं। ऐसा ही एक मामला पिछले दिनों आया जिसमें अश्विनी उपाध्यक्ष द्वारा एक पीआईएल सर्वोच्च न्यायालय में डाली गई और जिसमें मांग की गई कि भारत के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक स्थानों के नाम को पुनर्स्थापित किया जाए।

      सर्वोच्च न्यायालय की दो जजों की बेंच ने इस मामले को पूरी तरह से जांचा-परखा और पूरी बहस सुनने के बाद, उसने एक ऐतिहासिक और शानदार फैसला दिया जो भारत के संविधान में लिखित धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों में चार चांद लगा देता है और सरकार की उस मुहिम पर लगाम लगा देता है जिसमें सरकार धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को धराशाई करने पर आमादा है।

       इस फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने लिखित फैसले में कहा है कि “राज्य” को इस बात से निर्देशित होना चाहिए कि “भारत” एक धर्मनिरपेक्ष देश है जो जनता को संविधान में दिए गए बुनियादी अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध है।

     सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के एम जोजफ और बीवी नागरत्ना की बेंच ने उस पीआईएल को सिरे से ही खारिज कर दिया जिसमें भारत के पुरातन सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक स्थानों के नामों को पुनः स्थापित करने की मांग की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि भाईचारे का स्वर्णिम सिद्धांत जो भारत के संविधान की प्रस्तावना का बुनियादी सिद्धांत है और जो भारत के सभी नागरिकों को लगातार याद दिलाता रहता है कि जनता के विभिन्न हिस्सों में भाईचारे और मेलजोल की भावना को बनाए रखने और भारत के राज्य को मजबूत बनाए रखने की नींव रखता है जो आखिरकार भारत में एक संप्रभु, जनतांत्रिक गणराज्य की स्थापना करेगा।

      सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा है कि हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि “कानूनी अदालतें राज्य का अभिन्न हिस्सा है जो इस सिद्धांत से हमेशा निर्देशित होनी चाहिए कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।” न्यायालय ने आगे कहा है कि हमारे देश का वर्तमान और भविष्य भूतकाल का गुलाम नहीं रह सकता। भारत की सरकार कानून के शासन, धर्मनिरपेक्षता और संविधान की धारा 14 से निर्देशित होनी चाहिए जिसमें राज्य कार्यों को समानता और निष्पक्षता से काम करना चाहिए।

     अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत के सभी न्यायालयों को संविधान की प्रस्तावना में दिए गए सिद्धांतों और दिशा निर्देशों से ही निर्देशित होना चाहिए। फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती केस 1973 में 13 जजों की रुलिंग का हवाला दिया, जिसमें यह स्थापित किया गया था कि “धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान की बुनियादी संरचना है।” इस बहुत ही महत्वपूर्ण केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है जिसमें राज्य का कोई धर्म नहीं है। धर्मनिरपेक्षता और संघवाद भारतीय संविधान के बुनियादी सिद्धांत हैं।”

      बैंच ने अपने फैसले में एस आर बोम्मई आदि बनाम भारत सरकार 1994 का भी हवाला दिया जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फिर से यह प्रतिपादित किया गया था कि धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान की बुनियादी संरचना (Structure )है। 

      धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को आगे बढ़ते हुए इस फैसले में एम पी गोपालकृष्ण बनाम केरल राज्य के फैसले का भी हवाला दिया गया जिसमें घोषित किया गया था कि “1. भारत का संविधान धर्माधारित राज्य की मनाही करता है, 2. राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा, बल्कि राज्य को इस बात के लिए भी मनाही की गई कि वह किसी धर्म विशेष का पक्ष नहीं लगा, 3. धर्मनिरपेक्षता का मतलब है कि राज्य की नजरों में सभी धर्म बराबर हैं जो किसी धर्म का पक्ष नहीं लेगा और किसी धर्म के साथ भेदभाव भी नहीं करेगा।”

       सर्वोच्च न्यायालय के इस शानदार फैसले ने वर्तमान समय में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को एक बार फिर से बल दिया है और सरकार को इंगित किया है कि वह किसी धर्म विशेष के अनुसार कार्यवाही न करें और संविधान की प्रस्तावना में दिए गए धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के अनुसार ही राज्य के कार्यों को आगे बढ़ाएं और धर्मांधता के कार्यों को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के साथ गड्ड-मड्ड ना करे। सच में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को एक बार फिर से बल देकर बहुत ही सराहनीय और शानदार फैसला दिया है जो इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत बन गई है।

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