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सिर्फ एक मेयर के चुनाव तक सीमित नहीं है सुप्रीम कोर्ट का चंडीगढ़ मेयर पर फैसला

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महेंद्र मिश्र

चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत दूरगामी है। यह सिर्फ एक मेयर के चुनाव तक सीमित नहीं है। बल्कि लोकतंत्र को पैरों तले रौंदने का जो पिछले दस सालों से खेल चल रहा है यह उसके लिए भी एक संदेश है। इस बात में कोई शक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट से यह सवाल बनता है कि गोवा से लेकर मणिपुर और महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक तक जब लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई जा रही थीं तब वह कहां था? लेकिन कहते हैं जब जागो तभी सवेरा। वह सुप्रीम कोर्ट जो अब तक राम मंदिर से लेकर ज्ञानवापी तक और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के पैनल के गठन से लेकर तमाम सवालों पर सरकार के सुर में सुर मिला रहा था। अचानक नींद से जाग गया है। इलेक्टोरल बॉन्ड पर उसका रुख उसके पिछले रवैये से बिल्कुल अलग था।

हालांकि देरी की बात तमाम लोग उठा रहे हैं और सत्तारूढ़ पार्टी जब 6500 करोड़ अवैध तरीके से बना चुकी है तब यह फैसला आया है। जिससे स्वाभाविक तौर पर यह सवाल बनता है कि अगर कोई प्रक्रिया अवैध या गैरकानूनी है तो उससे हासिल किया जाने वाला लाभ कैसे वैध और कानूनी हो सकता है? लिहाजा अगर सही मायने में कानून लागू हो तो बीजेपी के इस माध्यम से आए सारे फंड को या तो ‘दानदाताओं’ को लौटा दिया जाना चाहिए या फिर उसे सरकार के खाते में जमा करा दिया जाना चाहिए। जैसा की तमाम लावारिस और अवैध संपत्तियों के मामले में होता है। बहरहाल इलेक्टोरल बॉन्ड के बाद यह लगातार दूसरा फैसला न केवल सरकार के खिलाफ आया है बल्कि उसकी पूरी कलई भी खोल कर रख दी है। इस बात में कोई शक नहीं कि दोनों मामले लोकतंत्र के बुनियादी अस्तित्व से जुड़े थे।

इलेक्टोरल बॉन्ड का यह सिलसिला अगर जारी रहता तो एक दिन लोकतंत्र अपने आप खत्म हो जाता और किसी दूसरे को मारने की जरूरत ही नहीं पड़ती। और चंडीगढ़ के चुनाव में भी जो तरीका अपनाया गया और फिर जिसको कि पूरे देश ने देखा अगर उसको बख्श दिया जाता तो लोकतंत्र तो नहीं बल्कि उसका नाटक ज़रूर जिंदा रहता। लिहाजा दोनों मसलों पर सीजेआई ने कड़ा रुख अपना कर कम से कम यह साबित करने की कोशिश की है कि वह लोकतंत्र के मसले पर कोई समझौता नहीं करने जा रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए बनाए गए पैनल पर उन्होंने जो समझौता किया है वह अभी भी सवालों के घेरे में है। और यह तब उन्होंने किया जब अपनी ही कलम से सरकार को ऐसी गाइडलाइन दे चुके थे जिसमें पीएम और विपक्ष के नेता के साथ ही उनके पैनल का एक सदस्य बनने की बात शामिल थी।

लेकिन संसद ने उसको पलट दिया और नये कानून में पीएम, विपक्ष का नेता और पीएम द्वारा मनोनीत कैबिनेट का एक सदस्य पैनल में शामिल होगा। और इस तरह से चुनाव आयोग को पूरी तरह से सरकार की जेब में डाल दिया गया। जहां से कम से कम लोकतंत्र की व्यवहारिक अभिव्यक्ति कहे जाने वाले चुनावों का संचालन होता है। यानि पूरे उद्गम स्थल को ही सरकार के हवाले कर दिया गया। 

हां तो बात हो रही थी चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट के रुख की। अभी जबकि लोकसभा चुनाव एक-दो महीने बाद होने वाले हैं। और जैसी कि संभावनाएं हैं। सत्ता पक्ष के लिए तस्वीर बहुत अच्छी नहीं दिख रही है। ऐसे में चुनावों को अगर चंडीगढ़ के रास्ते पर धकेल दिया जाए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। या कहा जा सकता है कि चंडीगढ़ कांड लोकसभा चुनाव के पहले सरकार के लिए एक रिहर्सल था। हालांकि कोर्ट ने इसको पकड़ लिया और उसका इलाज भी कर दिया। लेकिन यहां यह बात रह ही जाती है कि एक सरकार जो मेयर जैसे एक छोटे से चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक देती है। लोकसभा चुनाव तो उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। उसमें तो वह अपने जान की बाजी लगा देगी।

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में पहली सुनवाई के बाद जब बाजी पटलती हुई दिखी तो बीजेपी ने तत्काल पार्षदों की खरीद-फरोख्त शुरू कर दी और उसमें उसे सफलता भी मिली जब तीन पार्षद उसने ‘आप’ से तोड़ लिए। यानी फिर से चुनाव होने पर उसके मेयर के जीत की गारंटी हो गयी थी। अच्छा यह रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इसका भी संज्ञान लिया और अपनी टिप्पणी में सीजेआई ने उस हॉर्स ट्रेडिंग का हवाला भी दिया। और उसी का नतीजा था कि उन्होंने पुराने चुनाव और बैलेट के आधार पर नतीजों की घोषणा की और नतीजतन ‘आप’ के मेयर को जीत मिल सकी। लेकिन इससे मामला फिर भी हल नहीं होने जा रहा है।

क्या माना जाए कि इस सबक के बाद सरकार और उसके कारिंदे सीख जाएंगे और आने वाले किसी चुनाव में ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे उनकी किरकिरी हो? सभी लोग जानते हैं इसका उत्तर न है। यह एक ऐसी थेथर और निर्लज्ज सरकार है जिसने शर्मो-हया के सारे पर्दे फाड़ डाले हैं। और नंगी होकर खुलेआम सड़कों पर घूम रही है। उसको न तो किसी मूल्य से जुड़ी व्यवस्था का बोध है। और न ही उसके पालन का कोई ख्याल। इसके लिए नैतिकता और सिद्धांत इतिहास के पन्नों में सिमट गए हैं। इसलिए इस बात में रत्ती भर भी शक नहीं है कि मौका आने पर वह इसे नहीं दुहराएगी। बल्कि सही तो यह है कि जरूरत पड़ने पर वह इससे आगे बढ़कर अंजाम देगी। 

इसलिए सुप्रीम कोर्ट को यहां दो चीजें ज़रूर करनी चाहिए थी। एक काम तो उसने किया कि इस धांधली के प्रत्यक्ष कर्ताधर्ता अनिल मसीह को कानून के तहत मुकदमा चला कर सजा देने का निर्देश दिया है। लेकिन इससे बहुत कुछ ज्यादा बात बनने वाली नहीं है। अनिल मसीह तो महज एक प्यादा है। इस पूरे मामले का जो सूत्रधार है उसकी तलाश की जानी चाहिए और असली सजा उसको मिलनी चाहिए।

और उसमें अगर सत्ता के केंद्र में बैठा कोई शख्स हो या फिर ऊंचे से ऊंचे ओहदे पर विराजमान कोई महानुभाव किसी को भी नहीं बख्शा जाना चाहिए। सजा के तौर पर न केवल उसकी कुर्सी छीनी जानी चाहिए बल्कि उसे भी अनिल मसीह के साथ अदालत के कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। तभी लोकसभा चुनाव या फिर आने वाले चुनावों में इस तरह की धांधलियों को रोका जा सकता है। अनिल मसीह को सजा दिलवाकर एक बात की गारंटी ज़रूर की जा सकती है कि आइंदा किसी नौकरशाह को अगर इस तरह की धांधली करने का निर्देश दिया जाता है तो वह उस पर आंख मूंद कर आगे बढ़ने से पहले सौ बार सोचेगा। 

लेकिन एक सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने ज़रूर रह जाता है। वह यह कि एक अदने से नौकरशाह को अदालत में बुलाकर मास्टरों की तरह उसका क्लास लेना बहुत आसान है। यह काम उन दूसरे बड़े से बड़े लोगों के साथ क्यों नहीं किया गया जो इससे भी बड़े अपराधों में शामिल रहे हैं। किसी कुर्सी की इज्जत तभी बढ़ती है जब वह कमजोरों की जगह मजबूत लोगों पर हंटर चलाने की हिम्मत करे। इसलिए उम्मीद करते हैं कि आने वाले दिनों में मौका आने पर किसी शक्तिशाली के साथ भी सीजेआई इसी तरह से पेश आएंगे जैसा उन्होंने अनिल मसीह के साथ किया है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

जनचौक से साभार

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