जेपी सिंह
कारवां मैगजीन की एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने “इन एससीज नेम” (सर्वोच्च न्यायालय के नाम पर) शीर्षक से छपी इस संपादकीय में लिखा था कि, “भारतीय सर्वोच्च न्यायालय को इस बात पर चिंतन करना होगा कि क्या इसकी भूमिका और रुतबा, जो संवैधानिक प्रक्रिया और मूल्यों के अभिरक्षक के रूप में है, इस तरह का हो गया कि वह न्याय के लिए उसका दरवाजा खटखटाने वाले हिंसा से पीड़ित लोगों पर ही अपनी नाराजगी दिखाए।” एक्सप्रेस संपादकों ने यह टिप्पणी 2002 की गुजरात हिंसा पीड़िता जाकिया जाफरी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में लिखा था। दंगा पीड़ितों की लड़ाई लड़ने पर सुप्रीम नाराजगी सामाजिक कार्यकर्त्ता तीस्ता को भारी पड़ रही है।
24 जून, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने जाफरी की अपील को खारिज करते हुए कहा था कि 2002 में हुए गुजरात दंगे किसी साजिश का हिस्सा नहीं थे और न इसमें सरकार का कोई भी उच्च पदाधिकारी, जिनमें उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित 63 लोगों के नाम शामिल थे, संलिप्त पाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट यहीं नहीं रुका, उसने कहा कि जिन लोगों ने गुजरात दंगों को एक साजिश बताने की कोशिश की उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। कोर्ट का फैसला आने के दूसरे दिन ही गुजरात की पुलिस ने मुकदमे की दूसरे नंबर की अपीलकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जाफरी के पति एहसान जाफरी को, जो एक सांसद थे, हिंदू दंगाइयों ने उनके निवास स्थान गुलबर्गा सोसाइटी में जला कर मार दिया था। आधिकारिक रूप से गुजरात दंगो में 790 मुसलमान और 254 हिंदू मारे गए थे।
2014 में बीजेपी के नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद उच्च और उच्चतम न्यायपालिका की विश्वसनीता पर कई बार सवाल खड़े हुए हैं। हालांकि भारतीय मीडिया, जिसमें सवर्ण पत्रकारों का दबदबा शुरू से रहा है, बहुत विरले ही भारतीय न्याय-व्यवस्था की आलोचना करता है, या करता भी है तो बहुत दबे स्वरों में। यहां सवर्ण पत्रकारों के प्रभाव का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि न्यायपालिका के ज्यादातर विपरीत फैसलों का असर इस समुदाय पर नहीं, बल्कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अलपसंख्यकों पर पड़ता है, जो कुल मिल कर देश की आबादी के लगभग एक तिहाई हैं।
पिछली दफा भी दिसंबर 2019 में उच्च न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह तब लगा था जब दिल्ली के न्यायाधीशों ने नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे अल्पसंख्यक छात्रों पर हुए दिल्ली पुलिस के हमले के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। फैसला आते ही, पूरे कोर्ट परिसर में, कई वकीलों ने न्यायाधीशों के खिलाफ “शेम शेम” (शर्म करो) का नारा लगाना शुरू कर दिया था। उसी साल, करीब छह महीने पहले, जब उच्चतम न्यायालय ने बाबरी मस्जिद को ढहाने और उसकी जगह राम मंदिर के निर्माण का फैसला दिया था तब भी अल्पसंख्यकों का विश्वास न्यायपालिका पर कमजोर होने की बात कानून के जानकारों ने दोहराई थी।
गुजरात हाईकोर्ट द्वारा तीस्ता सीतलवाड़ की जमानत याचिका खारिज की-“तुरंत सरेंडर” करने को कहने से न्यायपालिका के कतिपय न्यायाधीशों के निर्णयों में उनके वैचारिक, राजनीतिक पूर्वाग्रहों के परिलक्षित होने का मामला अब एक बार फिर चर्चा में आ गया है।
तीस्ता सीतलवाड़ पर साल 2002 के गुजरात दंगों से जुड़े मामलों में ‘निर्दोष लोगों’ को फंसाने के लिए फर्जी सबूत गढ़ने का आरोप है। सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2022 में उन्हें अंतरिम जमानत दी थी।
न्यायमूर्ति निर्जर देसाई के फैसले के बाद, वरिष्ठ वकील मिहिर ठाकोर ने अदालत से फैसले के क्रियान्वयन पर 30 दिनों की अवधि के लिए रोक लगाने का अनुरोध किया। हालांकि, अनुरोध को न्यायमूर्ति देसाई ने खारिज कर दिया।
तीस्ता सीतलवाड़ा एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह गुजरात दंगों के पीड़ितों की लड़ाई लड़ रही हैं। तीस्ता सीतलवाड़ का जन्म महाराष्ट्र में 1962 में हुआ। वह मुंबई में पली बढ़ी और मुंबई यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया। उनके पिता अतुल सीतलवाड़ वकील थे और उनके दादा एमसी सीतलवाड़ देश के पहले अटॉर्नी जनरल थे।
तीस्ता सीतलवाड़ ने अपनी कानून की पढ़ाई बीच में छोड़कर पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ाए। बतौर रिपोर्टर उन्होंने कई अखबारों में काम किया। उन्होंने पत्रकार जावेद आनंद से शादी की और आगे चलकर कुछ लोगों के साथ मिलकर सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस नामक एनजीओ की शुरुआत की।
तीस्ता सीतलवाड़ को वर्ष 2007 में पद्मश्री से नवाजा जा चुका है। पद्मश्री के अलावा उनको साल 2002 में राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार भी मिल चुका है।
सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ पर साल 2002 के गुजरात दंगों से जुड़े मामलों में ‘निर्दोष लोगों’ को फंसाने के लिए फर्जी सबूत गढ़ने का आरोप है। सीतलवाड़ा पर आईपीसी के सेक्शन 468 (धोखे देने की नीयत दस्तावेजों से छेड़छाड़) और सेक्शन 194 (फर्जी सबूत गढ़ना) के तहत मामला दर्ज है। तीस्ता सीतलवाड़ पर विदेश से आए पैसे के दुरुपयोग और धोखाधड़ी का भी आरोप है।
उच्चतम न्यायालय ने सितम्बर 22में तीस्ता सीतलवाड़ को अंतरिम जमानत दे दी थी, जो 2002 के गुजरात दंगों के संबंध में मामले दर्ज करने के लिए कथित रूप से फर्ज़ी दस्तावेज बनाने के आरोप में 26 जून से हिरासत में थीं। हाईकोर्ट द्वारा मामले पर विचार किए जाने तक उन्हें अपना पासपोर्ट सरेंडर करने के लिए कहा गया है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि तीस्ता, एक महिला, दो महीनों से हिरासत में है और जांच तंत्र को 7 दिनों की अवधि के लिए हिरासत में पूछताछ का लाभ मिला है।
पीठ ने यह भी कहा कि तीस्ता के खिलाफ कथित अपराध वर्ष 2002 से संबंधित हैं और अधिक से अधिक 2012 तक संबंधित दस्तावेज पेश करने की मांग की गई थी। हिरासत में पूछताछ सहित जांच के आवश्यक तत्व, पूरे हो जाने के बाद, मामला एक जटिल रूप ले लेता है जहां अंतरिम जमानत की राहत स्पष्ट रूप से दी गई। पीठ ने कहा कि हमारे विचार में अपीलकर्ता अंतरिम जमानत पर रिहा होने का हकदार है।
पीठ ने कहा था कि जैसा कि सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया था कि मामला अभी भी हाईकोर्ट के समक्ष विचाराधीन है, इसलिए हम इस पर विचार नहीं कर रहे हैं कि अपीलकर्ता को जमानत पर रिहा किया जाए या नहीं। उस पर हाईकोर्ट द्वारा विचार किया जाना है। हम केवल इस दृष्टिकोण से विचार कर रहे हैं कि क्या मामले पर विचार के दौरान अपीलकर्ता की हिरासत पर जोर दिया जाना चाहिए।
पीठ ने कहा कि इस मामले पर केवल अंतरिम जमानत के दृष्टिकोण से विचार किया है और हमें यह नहीं माना जाएगा कि हमने अपीलकर्ता की ओर से प्रस्तुत किए गए प्रस्तुतीकरण के गुण-दोष पर कुछ भी व्यक्त किया है। गुण-दोष के आधार पर पूरे मामले पर हाईकोर्ट द्वारा स्वतंत्र रूप से विचार किया जाएगा और इस न्यायालय द्वारा की गई किसी भी टिप्पणी से प्रभावित नहीं होगा। यह स्पष्ट किया जाता है कि इस तथ्य पर विचार करते हुए पारित किया गया कि वह एक महिला है और अन्य अभियुक्तों द्वारा उपयोग नहीं किया जाएगा और अन्य अभियुक्तों की दलीलों को उनके गुण-दोष के आधार पर पूरी तरह से माना जाएगा।
तीस्ता की ओर से पेश हुए सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने तर्क दिया था कि उनके खिलाफ एफआईआर में वर्णित तथ्य और कुछ नहीं बल्कि कार्यवाही की पुनरावृत्ति है जो 24 जून के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में थी और तीस्ता के खिलाफ अपराध का गठन नहीं होता है।
गुजरात सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया था कि जमानत के लिए आवेदन हाईकोर्ट के समक्ष विचाराधीन है और इस तरह मामले को यहां दी गई चुनौती पर विचार करने के बजाय हाईकोर्ट द्वारा विचार करने की अनुमति दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि कथित अपराध में तीस्ता की संलिप्तता की ओर इशारा करते हुए एफआईआर में जो कुछ भी बताया गया है, उसके अलावा पर्याप्त सामग्री है। सरकार की ओर से उपस्थित एएसजी एसवी राजू ने यह भी कहा कि भले ही सीआरपीसी की धारा 340 के तहत जालसाजी की शिकायत दर्ज की जानी हो, लेकिन धारा 195 के तहत बार संज्ञान के स्तर पर लागू होगा, न कि एफआईआर के स्तर पर।
तीस्ता ने अंतरिम जमानत देने से गुजरात हाईकोर्ट के इनकार के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। उन्हें 26 जून को गुजरात एटीएस द्वारा मुंबई से गिरफ्तार किया गया था, जिसके एक दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने जकिया जाफरी द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 2002 के दंगों के पीछे राज्य के उच्च पदस्थ अधिकारियों और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को कथित बड़ी साजिश में एसआईटी की क्लीन चिट को चुनौती दी गई थी।
पीठ ने मामले की निम्नलिखित विशेषताओं को भी इंगित किया था, जो इसके अनुसार, परेशान करने वाली थीं, 1. याचिकाकर्ता दो महीने से अधिक समय से हिरासत में है। कोई चार्जशीट दाखिल नहीं की गई। 2. सुप्रीम कोर्ट द्वारा जकिया जाफरी के मामले को खारिज करने के अगले ही दिन एफआईआर दर्ज की गई। एफआईआर में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के अलावा और कुछ नहीं बताया गया। 3. गुजरात हाईकोर्ट ने तीन अगस्त को तीस्ता की जमानत याचिका पर नोटिस जारी करते हुए एक लंबा स्थगन दिया, जिससे नोटिस 6 सप्ताह के लिए वापस करने योग्य हो गया। 4. कथित अपराध हत्या या शारीरिक चोट की तरह गंभीर नहीं हैं, बल्कि अदालत में दायर दस्तावेजों की कथित जालसाजी से संबंधित हैं। 5. ऐसे कोई अपराध नहीं हैं जो जमानत देने पर रोक लगाते हों।
सुनवाई में चीफ जस्टिस ललित ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि तीस्ता के खिलाफ आरोपित अपराध सामान्य आईपीसी अपराध हैं, जिनमें जमानत देने पर कोई रोक नहीं है। उन्होंने कहा था कि इस मामले में कोई अपराध नहीं है जो इस शर्त के साथ आता है कि यूएपीए, पोटा की तरह जमानत नहीं दी जा सकती। ये सामान्य आईपीसी अपराध हैं। ये शारीरिक अपराध के अपराध नहीं हैं, ये अदालत में दायर दस्तावेजों के अपराध हैं। इन मामलों में सामान्य विचार यह है कि पुलिस हिरासत की प्रारंभिक अवधि के बाद ऐसा कुछ भी नहीं है जो जांचकर्ताओं को हिरासत के बिना जांच करने से रोकता है और 468 जनादेश के अनुसार, महिला अनुकूल उपचार की हकदार है।
चीफ जस्टिस ने कहा था कि एफआईआर जैसा कि यह है, अदालत में जो हुआ उससे ज्यादा कुछ नहीं है। तो क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अलावा कोई अतिरिक्त सामग्री है? पिछले दो महीनों में क्या आपने चार्जशीट दायर की है या जांच चल रही है? पिछले दो महीनों में आपको क्या सामग्री मिली है? नंबर एक, महिला ने दो महीने की कस्टडी पूरी कर ली है। नंबर 2, उससे हिरासत में पूछताछ की गई है। क्या आपने इससे कुछ हासिल किया है?
चीफ जस्टिस ने आश्चर्य जताया था कि इस तरह के मामले में हाईकोर्ट तीन अगस्त को नोटिस जारी करता है और इसे 19 सितंबर को वापस करने योग्य बनाता है? इसलिए 6 सप्ताह की जमानत के मामले को वापस करने योग्य बनाया जाता है? क्या गुजरात हाईकोर्ट में यह मानक अभ्यास है। उन्होंने कहा कि हमें एक मामला दें जहां एक महिला इस तरह के मामले में शामिल है और एचसी ने इसे 6 सप्ताह तक वापस करने योग्य बना दिया है?
तीस्ता की ओर से कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला 24 (जून) को आया, एफआईआर 25 (जून) को आई। एक दिन के भीतर वे जांच नहीं कर सकते है। उन्होंने जालसाजी के आरोपों से इनकार किया और कहा कि सभी दस्तावेज एसआईटी द्वारा दायर किए गए हैं। उन्होंने कहा कि मैंने कुछ भी दर्ज नहीं किया। सिब्बल ने कहा कि मामले में एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती, जब सभी कार्यवाही अदालत के संबंध में हैं।
उन्होंने कहा था कि अपराधों में से आईपीसी की धारा 471 का संज्ञेय है, बाकी गैर-संज्ञेय हैं। सवाल यह है कि सभी दस्तावेज अदालत में दायर किए गए हैं। अगर कोई झूठ या जालसाजी है तो वह अदालत है, जो शिकायत दर्ज कर सकती है। कोई एफआईआर दायर नहीं हो सकती। यह तय कानून है, सीआरपीसी धारा 195 देखें। यह शुरू होता है कि कोई अदालत अदालत की कार्यवाही के संबंध में उस अदालत द्वारा लिखित शिकायत के अलावा अपराधों का संज्ञान नहीं लेगी। तो एफआईआर कैसे दर्ज की जा सकती है?
आईपीसी की धारा 194 के तहत अपराध का जिक्र करते हुए सिब्बल ने दलील दी, कि यह केवल अदालत द्वारा किया जा सकता है। धारा 194 के तहत कोई एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती। तीस्ता के खिलाफ आरोपित अन्य अपराधों में आईपीसी की धारा 211 शामिल है, जो गैर-संज्ञेय, जमानती और तीन साल के साथ दंडनीय है। इसके अलावा, आईपीसी की धारा 218 है जो तीन साल की जेल की सजा के साथ दंडनीय है।