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सुप्रिया रौय:बुजुर्गो की प्रेरणा

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रमाशंकर सिंह,पूर्व मंत्री

कुछ पहचानते होंगें और कई नहीं भी ! 

नाम है सुप्रिया रॉय बल्कि रौय ! 

बग़ैर हिचके खूब ज़ोर से अपनी उम्र बताती है , ५६ साल के ऊपर  

मैं इन्हें तबसे जानता हूँ जब विवाह पूर्व ये टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की वामा नाम की पत्रिका के संपादकीय विभाग में थीं करीब ३०- ३५ साल पहले या कुछ ज़्यादा भी ! फिर नवभारत टाइम्स होते हुये एकाध टीवी चैनल में भी और दस साल पहले मीडिया उद्योग को अंतिम नमस्कार किया।  

लगातार पिछले तीस से ज़्यादा बरसों से गर्मी सर्दी आँधी बरसात  के दिल्ली के  मौसमों में एक काम तो इन्होने अनिवार्यत: किया – व्यायाम योग प्राणायाम ध्यान रोज़ सुबह अपने नज़दीकी पार्क में , नियमित। और दिन में मरीज़ों ( कैंसर मरीज़ों ) की काउंसिलिंग भी ! इस अद्भुत पहलू पर आज नहीं। 

पड़ोस के पार्क में किन्हीं रिटायर हुये एथलीट कोच ने लगातार दौड़ लगाते  देखकर साल के एक दिन हिम्मत कर कहा कि ‘ क्या तुम दौड़ की अखिल भारतीय कंपीटिशन में भाग लेना चाहोगी ? ‘ ना तो कहना ही था कि कभी भी यह सोचा न था ! धीरे धीरे दो तीन महीनों में कोच ने बार बार कह कर समझा कर स्टेडियम में आने के लिये तैयार कर लिया जहॉं सुबह का नजारा ही अलग होता है । हर उम्र के सैंकड़ों लोग अपनी अपनी तैयारी कर रहे होते हैं ! सब सिर्फ़ प्रतियोगी भाव से लक्ष्यसंधान में लगे रहते हैं ! वहॉं ऐसे भी कोच होते हैं तो बग़ैर कुछ पैसा लिये सिर्फ़ इसलिये कोचिंग करते हैं कि उनके प्रशिक्षित शिष्य सेहत ठीक रखें और हो सके तो प्रतिस्पर्धाओं में नाम कमाये और उन्हें भी शोहरत मिले। यह समूह कुछ अलग है , भावनात्मक रूप से बहुत अच्छा है। 

स्टेडियम में पहुँचने के तीन दिन में ही यह तय हो गया कि चैन्नई में होने वाले उसी माह की राष्ट्रीय स्पर्धा में जाना है। सुप्रिया संकोच में थी कि सबसे आख़िरी नंबर होगा और हंसी उड़ेगी ! कभी पेशेवर दौड़ स्पर्धा देखी भी न थी कि अंदाज भी हो ।अपनी उम्र के समूह में एक ही स्पर्धा में कई समूह अलग अलग दौड़े और अपने ग्रुप में निकटतम प्रतिद्वंद्वी काफ़ी पीछे दूर था तो धीमी हो गई । बाद में पता चला कि दूसरे ग्रुप में दौड़े प्रतियोगियों ने कम समय में दौड़ पूरी करने के आधार पर बाज़ी मार ली और इनका  नंबर चौथा आया पर कोच व टीम उत्साहित हुई कि संभावना है। चैन्नई के क़रीब एक माह बाद  वडोदरा गुजरात में राष्ट्रीय स्पर्धा हुई और ४०० मीटर तथा ८०० मीटर में क्रमश: स्वर्ण और रजत पदक  जीत कर एक लक्ष्य बनाया कि हारूँ या जीतूँ जाना  ज़रूर है । 

खेल में खेल के कपड़े ज़रूरी हैं , एक एक सैंकड का भी महत्व होता है इसलिये भारतीय मन का यह संकोच भी दूर होना ही होता है 

सुप्रिया अब तो दस किमी की मैराथन में भी हिस्सा लेने लगी हैं । डिकेथेलन की मैराथन में गयी और कल वेदांता उद्योग समूह  द्वारा प्रायोजित दिल्ली की मैराथन में जाना है । अभ्यास दौड़ में गिरने से चोट लगी है पर जाना है। देखिये कल क्या होगा ? 

ये स्पर्धायें ५० से ज़्यादा उम्र के वर्गों की होती हैं जिनमें हरियाणा की एक ९०+ वर्षीय वृद्धा भी शामिल हो कर अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मैडल जीतती हैं। ऐसे ऐसे जुनूनी वृद्ध भी भाग लेते हैं जो अस्पताल से उठकर चले आते हैं जबकि सर्जरी या इलाज के पेशाव की थैली लटकी होती है  और अपने आयुवर्ग में जीतते भी है। ग़ज़ब उत्साह से लबरेज़ रहते हैं ये प्रतिस्पर्धी! कुछ राज्य सरकारें पदक विजेताओं को नक़द राशि भी देती है उत्साहवर्धन के लिये।  

हम यदि ऐसे समाज बन सकें जहॉं के मैदान पार्क सड़कें सुबह शाम खेल भावना के प्रतियोगियों  से गुलज़ार रहें तो क्या ही बात हो ! अभी भी कई स्थानों पर ऐसे आयुवर्ग की महिलायें पुरुष देखे जाते हैं जो सुबह योग व्यायाम करते दिखे पर संख्या बहुत कम है। कुछ पुरुष सिर्फ़ सुबह की गप्प करने ही आते है। बढ़ी या पकी उम्र के लोगों को हम सदैव हतोत्साहित कर क्यों उनके जीवन को और कष्टमय बनाते हैं ? 

कुछ बुझाया ? 

आसपास की जगहों पर सेवानिवृत्त या पचास साल से ज़्यादा की उम्र के सुबह के अधिकतम समूह बनाओ जो कम से कम ६०-९० मिनिट आपस में मिलकर व्यायाम करना शुरु करें और देखिये कि जीवन कैसे बदलता है। ज़िला स्तरीय प्रतिस्पर्धा की भी सोचिये जिसमें पदक या ईनाम ज़रूर हो !

रमाशंकर सिंह,पूर्व मंत्री

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