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*सूर- साहित्य :  लोकमानस समालोचक*

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          ~ पुष्पा गुप्ता

वल्लभाचार्य का आचार्य-मानस  सूरदास के कविमानस के बिना लोकमानस में संक्रमित कैसे होता?

लेकिन तथाकथित प्रगतिशील आलोचक भारत के लोकमन से दूर ही रहे , यही कारण है कि जो सूरदास भारत के लोकमन की गहराई में उतर  गये थे , वे उन  आलोचकों की समझ में ही नहीं आये।

     प्रेम से बड़ा जीवनमूल्य है कौन सा ? और प्रेम के इतने बड़े गायक को जैसे कोर्स से ही बाहर कर दिया गया ?  लोकमानस से बड़ा सेक्यूलर और कौन हो सकता है?

     यदि लोकमानस ही समझ में नहीं आया तो  साहित्य की जैसी पहली परंपरा वैसी ही दूसरी और तीसरी परंपरा क्योंकि अन्तत: तो साहित्य का गंतव्य लोकमानस ही है, लोकमंगल ही साहित्य की कसौटी है। 

     उन्होंने सूरदास को देखा ही नहीं कि वेद परम्परा इस प्रकार से लोक परम्परा में रूपांतरित हुई कि वेद परम्परा हतप्रभ हो कर देखती ही रह गई।

   मेरे एक मित्र बताते हैं : उस दिन अपने कुछ मित्रों के साथ कुरुक्षेत्र में था। स्थाण्वीश्वर मंदिर मार्ग में बहुत सी नई दुकानें बन गयी हैं। कई दुकानों पर कैसेट्स बज रहे थे। उनमें एक गीत था-‘ राधे राधे बोल चले आयेंगे बिहारी’ और दूसरा गीत था- ‘श्याम चूड़ी बेचने आया।’

पहला गीत सुना तो मेरे मन में ब्रज का एक लोकगीत गूंजने लगा :

‘जहाँ राधे-राधे गामें  तहाँ सुनबे को हम आमें, 

कीरतजू की राजकुमारि जपें जा राधे-राधे।

राधे सब बेदन को सार रटै जा राधे-राधे। 

दूसरा गीत सुना, तब कई गीत याद आये :

‘बन गये नंदलाल लिलहार कि लीला गुदवाय लै प्यारी। यह लिलहारी लीला है और “श्याम चूड़ी बेचने आया’ का गीत मनिहारी लीला का गीत है।

रासलीला के लोक मंच पर उन  लीलाओं का मंचन किया जाता है-साँवरी सहेली, गोरे- ग्वाल, जोगिन लीला, चितेरिन-लीला, सुनारिन-लीला, मनिहारी लीला, मालिन लीला, विसातिन-लोला, पटविन लीला, तमोलिन- लीला, ब्रह्मचारी- लीला, राजवैद्य लीला। गारुड़ी लीला सूरसागर में है -‘महरि गारुड़ी कुँवर कन्हाई।’

जब हम लोग स्थाण्वीश्वर से भद्रकाली की  ओर मुड़े, तभी आसमान गूंजा : 

‘मोहि पनघट पे नंदलाल छेड़ गयौ री 

कँकरिया मोहि मारी गगरिया फोरि डारी, मेरी नाजुक कलइया मरोर गयौ री।

     गीत तो यह फिल्म का है, पर चन्द्रावली-भाव का है और इस भाव के दर्जनों पद सूरसागर में हैं :

“गागरि मारे काँकरी लागे मेरे गात, 

गैल माँझ ठाड़ी रहै खूटै आवत जात.’ 

(पृ. 759)

      तभी मेरे मन में एक सवाल उठा इन सारे गीतों में सूरदास का राग है या नहीं है? यदि इन गीतों में सूरदास का राग है, सूरदास का स्वर है, तो भले ही समीक्षाशास्त्रियों के लिए सूरदास मध्यकाल के कवि रहे आवें, लोकचित्त के रूप में वे आज भी नवनवायमान हैं। माना कि इन गीतों के शब्द सूरदास के शब्द नहीं है पर लोकवार्ता के अध्येता जानते हैं कि लोकगीत देश में भी चलता है और काल में भी चलता है और निरंतर कायाकल्प करता है। जिस जनपद में जाता है, उस जनपद के शब्दों का बाना पहन लेता है, जिस प्रांत में जाता है, उस प्रांत की भाषा की प्रकृति को स्वीकार कर लेता है, जिस युग में उतरता है उस युग का बन जाता है।

     लोकगीत का स्वभाव ही यह है कि  वह पराया बनकर नहीं, अपना बनकर सबके साथ रहता है। सबके साथ उठता है, बैठता है और चलता है क्योंकि वह सबका होता है। 

सासनी में जब लोकवार्ता-संग्रह कर रहा था, तब एक मुस्लिम विद्यार्थी ने मुझे अपने घर में गाये जाने वाले दो जच्चागीत दिये, एक गीत था- “फातिमा ने जाये नंदलाल’ और दूसरा गौत था-‘ अलबेली जच्चा मान करे नंदलाल से।’

     इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि नाम जसोदा का है या फातिमा का है। मूलतत्त्व तो वह वात्सल्यभाव है, मातृ-हृदय है। लाल का मुख निहारती है और छातियों में क्षीरसागर उमड़ पड़ता है।

मथुरा के पं. जवाहरलाल चतुर्वेदी सूरसागर के पाठांतरों की खोज के लिए वल्लभ-संप्रदाय के सातों घरों में गये। सन् 1966 में पहले खंड का लोकार्पण हुआ। डा. नगेन्द्र अध्यक्ष थे और हरिवंशराय बच्चन से लेकर ब्रजेश्वर वर्मा तक विद्वानों की पंक्ति उपस्थित थी। सबने देखा और सबने विचारा कि प्रत्येक पृष्ठ पर सूर के पद की • पंक्तियाँ तो दो हैं और पाठांतर की पंक्तियाँ सत्ताइस हैं। गोष्ठी में यह तथ्य उभर कर आया कि वाचिक परंपरा ने सूर के पदों को अपनी-अपनी अभिव्यक्ति के अनुसार अपना बनाया है। कहीं राजस्थानी शब्द है, तो कहीं गुजराती का शब्द है।

     भाषा का रूप कहीं बुंदेली हो गया है तो कहाँ पंजाबी बन गया है। लोकवार्ताशास्त्री इस प्रक्रिया को Folkloric Process कहते हैं। इस प्रक्रिया से व्यक्ति -रचना समष्टि रचना बनती है, लोक- अभिव्यक्ति बनती है। 

कई बार यह सवाल उभरकर आया कि सूरजदास, सूरजप्रभु, सूरस्याम, सूरज जैसी छाप अष्टछापी  सूरदास की हैं या सुरजदास, सूरजप्रभु कोई दूसरे सूरदास थे। सैकड़ों ही पद हैं, जो भिन्न-भिन्न संपादकों ने परिशिष्ट में रख दिये हैं- ‘यहाँ सूरसागर की विभिन्न प्रतियों में प्राप्त वे पद दिये जा रहे हैं, जिनके सूरदासजी द्वारा रचित होने में संपादक को संदेह है।’

     मुझे ये सवाल और ये संदेह इसलिए प्रिय हैं कि ये सिद्ध करते हैं कि सूरदास लोकजीवन की वाचिक परंपरा में अभिन्न हो गये हैं। उदाहरणों के साथ में इस तथ्य को आपकी सेवा में रखना चाहता हूँ कि सूरदास के पद लोकगीतों का रूप धारण करके ब्रजमंडल के आकाश में गूंज रहे हैं। 

सूरदास का पद है ‘हाँ इक नई बात सुनि आई। महर जसोदा ढोटा जायौ, घर घर बजत बधाई।’ 

अब लोकगीत देखिये ‘जसोदा जायौ  ललना मैं बेदन में सुनि आई। 

सूरदास का पद है – ‘साँवरौ  साँवरी रैन कौ जायो।’ 

लोकगीत है – “जसोदा  नें कारी अँधेरी में

जायौ  याते कारौ ई कृष्ण कहायौ ।’ 

सूरदास का पद है – ‘आज  तौ  बधाई बाजी मंदिर महर के।’

लोकगीत है – आज तौ बधाई बाजी रंगमहल में।’

सूर का पद है – ‘मैं जोगी जस गाया रे बाला।’

लोकगीत है- ‘देखौ री एक बाला जोगी द्वार तिहारे आया है री।’

सूर का पद है – ‘झुनक स्याम की पैजनियाँ। 

जसुमति सुत को चलन सिखाबै 

अँगुरी  गहि  द्वै जनियाँ ।

लोकगीत है- रुमझुम रूमझुम छनन छनन पैजनियाँ बाजे रे, 

प्यारे कौ अलगोजा बाजै रे।’

“अपनी गाँव लेउ नँदरानी बड़े बाप की बेटी पूतहिं भली पढ़ावत बानी।’ 

सूरदास का पद है। इस का लोकगीत है – ‘अपनी गाँव लेउ नंदरानी, हम कहुँ अंत बसेंगे जाय।’ 

सूर का पद हैं – ‘जागौ मेरे लाल गोकुल सुखदाई।’

लोकगीत है – “उठौ  कृष्ण प्यारे हुआ है सबेरा।’ 

सूरदास का पद है -‘सो बल कहा भयौ भगवान, तथा जैसें तुम गज को फंद छुड़ायौ।’

लोकगीत हैं – ‘मोहि यही अचरज जिय आयौ नाथ कैसें गज को फ़ंद छुड़ायौ ।’

सूरदास का पद है- ‘स्याम कों भाव दे गयी राधा।

लोकगीत है- ‘जमुना किनारे मेरो गाँव सामरे आय जइयो।’

सूर का पद है – “तब हरि भये अंतरधान। जब कियौ मन गर्व प्यारी कौन मो -सी आन।’

लोकगीत है – ‘करत करत महारास समलिया है गयौ अन्तरध्यान।’

सूरदास का पद है – ‘आज रैन हरि कहाँ गँवाई ।’

लोकगीत है – ‘अलकें अनूठी झलकें तिहारी हे स्याम रतियाँ कहाँ तुम जगे।”

सूरदास का पद है – ‘वन में जाय इकेली जुवतिन मारग रोकत धाय।’ 

लोकगीत है – ‘इकली घेरी बन में आय स्याम तैनें कैसी ठानी रे।’ ‘

सूरदास का पद है – ‘अकेली भूल परी बन मौहिं ।’

लोकगीत है – “बता दीजै स्याम मैं तो भूली डागरिया । ‘ 

सूर का पद है – ‘सिंगी मुद्रा कर खप्पर लै करि हौं जोगिन भेस

“कंथा पहिर विभूत लगाऊँ जटा बँधाऊँ केस।’

लोकगीत है ” लाला नंद कौ ,हमें तौ जोगिनियाँ बनाय गयौ  री । ” 

सूरदास जी के ऐसे पद भी हैं, जी लोकजीवन के भिन्न संदर्भों में लोकाचार का अंग बन गये हैं । सूरदास का एक पद है जग में जीवत ही कौ नातौ ।

मैं  मेरी कबहू  नहिं कीजै   कीजै पंच सुहातौ ।” ब्रज के गाँवों में जब किसी के यहाँ गमी हो जाती है, तब होली से पहले फूलडोल की टीम  उसके यहाँ त्यौहार जगाने आती है, तब गाया जाता “ए जग जीवत ही कौ  नातौ  ह्याँते सरग झोंपड़ा साँचौ ।

    सूरदास ने रुक्मिणी- विवाह के संदर्भ में एक पद गारी-गीत की शैली में लिखा है :

तोकों गार कहा कहि दीजै, बप जुग, नाँउ  कौन कौ लीजै।

नित रहत मन्मथ मदहिं छाकी निलज कुच झाँपत नहीं।

ता देखि देखि जु छैल मोहत विकल है घावत नहीं।

सिर सेत पट कटि नील लंहगा लालचोली बिन तनी ।

सो को जु मिल कर नहिं विगोयौ फिरत निस वासर बनी।

ब्रज में विवाह के समय जो गाली गीत गाया जाता है, उसकी शब्दावली देखिये :

वह तो नितनूतन रति जोरै

सुनि दूल्हा रे तोहि गारि कहा कहि दीजै रे।

माई  निसि गलियन में डोलै फिरत मदनमद छाकी रे। फिरती मदन मद  छाकी कुच दोऊ ढाकै नहीं।

हुरकियन संग गीत गावै काम रंग में राँची रे।

यह बात ठीक है कि लोकमानस की पहचान के लिए हम जनपद में जाते हैं, परन्तु लोकसत्ता जनपद की सीमा से बँधी नहीं है। सूरदास की इसी भावभूमि को आप हरियाणवी में देखिये, बुंदेली में देखिये, मैथिली में देखिये, सीएच रामलु ने तेलुगु में इस भावभूमि की खोज की तथा सूरदास और पोतन्ना का तुलनात्मक अध्ययन किया। ए. एस. केलकर ने मराठी में इस भावभूमि को देखा तथा नामदेव और एकनाथ के साथ सूरदास की तुलना की। भादों के महीने में जब गुजरात ब्रजचौरासी कोस की यात्रा करने आता है, तब यहाँ गोपी भाव के गुजराती गीत सुनाई देते हैं –

सखी सहेली ना संगमाँ रे अमें चाल्याँ छे यमुनातीर रे, आज कोई रोको नहीं।

     रस- दशा या हृदय की मुक्तावस्था का विवेचन करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक वाक्य कहा है “लोक- हृदय में हृदय के लीन हो जाने की दशा का नाम ही रसदशा है।” सूरदास रसदशा में पहुँच चुके थे। वल्लभ संप्रदाय में अष्टसखा और अष्टसखी की परिकल्पना है। अष्टछाप के आठों कवि गोप-लीलाओं में सखा के रूप में सम्मिलित हैं और माधुर्य-लीलाओं में वे अष्टसखी के रूप में श्रीकृष्ण लीला में सम्मिलित हैं। सखा रूप में सूरदास कृष्णसखा हैं और सखी-रूप में वे चंपकलता हैं।

      सूरदास देहभाव की सीमा को पार कर चुके हैं। देहभाव अन्नमयकोश है। अन्नमयकोश के बाद प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश है। विज्ञानमय कोश के बाद आनन्दमयकोश। शरीर से परे इंद्रिय, इंद्रिय से परे मन, मन से परे बुद्धि आनन्दमय कोश चेतना की उस गहराई में हैं, जहाँ तर्क-वितर्क के हाथ नहीं पहुँचते। देहभाव से भावदेह।

इस बात को हम यों भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार बूँद की बूँदता के लय हो जाने पर बूँद समुद्र बन जाती है, उसी प्रकार व्यक्तिमानस जब सामान्य होकर सर्वजनचेतना से अभिभूत हो जाता है, व्यक्ति के सारे विशेषण सौंप की केंचुली की तरह से उतर जाते हैं, तब लोकमानस स्वयं उसके मन में अपना अधिष्ठान करता है। जब कविमानस की अनुभूति लोकधर्मी  बन जाती है, तब उसकी अभिव्यक्तियों में लोकमानस अपनी ही वाणी को  सुनता है।

      सूरदास का हृदय लोकहृदय है। हम कह सकते हैं कि लोकमानस ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वयं सूरदास का वरण किया है। 

    यह सच है कि समूचा भक्ति आंदोलन लोकमानस का उद्वेलन है। मिथक  की  भाषा में कहूँ तो जब कभी

लोकमानस का उद्वेलन होता है, तब धरती पर अवतार होता है। अवतार एक दर्पण है, जिसमें लोकसत्ता अपना बिंब देखती है। लोकजीवन में इस बिंब  की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बिंब भ्रम नहीं है, सत्य है।

कहा जाता है कि सूरसागर की लीला भागवत में से आई है, यहाँ सवाल उठता है कि भागवत की लीला कहाँ से आई ? स्वयं भागवत में एक परंपरा का उल्लेख है- परीक्षित को शुकदेव ने सुनाई, शुकदेव को व्यासदेव ने सुनाई ,व्यास को नारद ने सुनाई, नारद को सनक ने सुनाई और सनक को ब्रह्मा ने सुनाई। भागवत के ही अनुसार उसका पहला प्रवक्ता ब्रह्मा है और अंतिम प्रवक्ता सूत है। एक परंपरा है। व्यास को भी कृष्ण-कथा नारद से मिली, उधर वाल्मीकि की भी रामकथा नारद से मिली। नारद, जो अबाध रूप से लोकजीवन में भ्रमण करता है। रामकथा का स्रोत भुशुड काक है और कृष्णकथा का स्रोत शुक है। यह शुक कौन है?

सूरसागर में ही मुंडमाल की कथा है। पार्वती शिव से पूछती हैं- ‘मुंडमाल कैसी तव ग्रीवा।’ लोकजीवन में प्रचलित मुंडमाल की गाथा को अमरकथा नाम से सुनाया जाता है। परमगुह्य कथा के  वक्ता शिव  हैं और पार्वती श्रोता है। शिव कहते हैं कि कथा इस शर्त पर सुना रहा हूँ कि हुंकारा देते रहना। कथा सुनते-सुनते पार्वती सो गयीं पर वृक्ष की डाल पर बैठा  तोता इस गुह्यकथा को सुन रहा था, उसने हूँकरा देना शुरू कर दिया। कथा सुनाते-सुनाते शिव ने देखा कि गौरा तो सो गयी।

     यह हूँकरा कहाँ से आ रहा है? शिव की दृष्टि तोते पर पड़ी। शिव ने त्रिशूल उठाया और तोता भयभीत होकर उड़ा। व्यास पत्नी जम्हाई ले रही थी, तोता उनके गर्भ में चला गया। यह शुक है। यह शुक एक टोटम है, गणगोत्र शुक की कथा उस शुक गण की कथा है। इतिहास का वह अध्याय, जब मनुष्य गण समाज में रहता था। मनुष्य युगंधर है, एपीटोम।

     वाचिक परंपरा के प्रवाह में कृष्णकथा ने कितनी बार अपने कलेवर को बदला, इसे कौन बता सकता है? इतिहासकार सभ्यता के स्तर की पहचान अस्त्र-शस्त्रों से भी करते हैं, जैसे आधुनिक सभ्यता के पास एटमबम है। सभ्यता का एक स्तर वह भी है, जहाँ तीर कमान हैं। कृष्णलीला को देखें, गोकुल में असुरों का संहार करते हैं पर उनके पास कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं है, सूरदास के ही पद हैं :

वृषभासुर बाँई पकरि भुजसों गहि फेरयौ भूतल माहि पछार्यौ। 

शंखचूड़ ‘मुष्टिक मार गिराय दियौ तिहिं।’ 

बकासुर “चोंच फारि बका संहारौ ‘ 

अघासुर “ब्रह्मद्वार सिर फोर कें निकसे गोकुलराय ‘ 

केशी – ‘एक हाथ मुख भीतर नायौ पकरि केस घिघियाइ।’

भागवत में जिन कथाओं का संकलन है, वे लोकजीवन की वाचिक परंपरा में उस युग में भी प्रवाहित हो रही थीं तथा भागवत की रचना के बाद, तब से आज तक यह प्रवाह अविच्छिन्न है। कायाकल्प होता है और होता रहेगा परंतु लोकगाथा कहें या मिथकगाथा कहें, उसके कालजयी होने का रहस्य भी तो यही है कि वह निरंतर कायाकल्प करती हुई लोकजीवन में चलती है।

     कृष्णकथा के मोटिफ और कथातंतु वैसे ही हैं, जैसे संसार के विभिन्न देशों में प्रचलित प्राचीन कथाओं के हैं। ग्रीक-पुराणों के कथानायक धरती को उठा लेते हैं, आग को पी जाते हैं, नागलोक तथा पाताल में चले जाते हैं, स्वर्ग के देवताओं को परास्त कर देते हैं। अन्यान्य देशों की  गाथाओं  में भी नायक अजगर से युद्ध  करते हैं, बैल और घोड़ों से युद्ध करते हैं. शेर के साथ खेलते हैं और हाथी को पछाड़ देते हैं। कृष्णकथा को देखें तृणावर्त आधी या बवंडर है, बकासुर बगुला है, अघासुर  बैल है. केशी दानव घोड़ा है, . धेनुकासुर जंगली गधा है कुवलियापीड़ हाथी है। कृष्ण दावानल को भी जाते हैं, साँप को वश में करते हैं. पर्वत को उठा लेते हैं। वरुण के लोक में चले जाते हैं। 

चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानका राजदूत  मेगास्थनीज  आया था ।उसने कृष्णजन्मस्थान देखा था और कृष्णलीला सुनी थी। उसने अपने विवरण में कृष्ण की पहचान इंडियन हेराक्लीज ” के रूप में की है। हरक्युलिस यूनानी पुराणकथाओं के ऐसे ही नायक हैं। लोकवार्ता-शास्त्र की दृष्टि से कृष्ण गोपों के नायक तथा यादववंश के कुलदेवता है। सांस्कृतिक प्रक्रिया इतिहास के साथ चलती है। जातियों की जय-पराजय साथ संस्कृतियों की भी जय-पराजय होती है तथा जातियों की अन्तर्भुक्ति के साथ ही संस्कृतियाँ भी एक-दूसरे में लय हो जाती हैं। तमिल के प्राचीन ग्रंथ ‘तोलकाप्पियम’ में संदर्भ है कि आयर कहलाने वाले लोग मुल्लैवन प्रांत में गाय चराते और कण्णन के गीत गाते।

जरासंध के  आक्रमण के समय यादवों को एक शाखा द्वारका पहुँची परंतु दूसरी शाखा ने दक्षिण में मदुरै बसाया। दक्षिण की विष्णुगाथा कृष्णकथा में अंतर्भुक्त हुई।

   यही बात हम राधा की कथा में देखते हैं राधा के बिना कृष्णलीला की कल्पना तक नहीं की जा सकती परन्तु भागवत में राधा का नाम तक नहीं है, एक अस्पष्ट संकेत है अनयाराधितोनूनम्।’ लोकजीवन की भिन्न भिन्न प्रेमकथायें राधा की प्रेमकथा में अन्तर्भुक्त होती है। कहीं राधा गुजरी हैं, तो कहीं अहीर और कहीं  बनजारिन। चैतन्य संप्रदाय में राधा महाभाव है, परकीया। वल्लभसंप्रदाय में राधा स्वामिनी हैं, स्वकीया है। सूरसागर में भी कृष्ण राधा का गंधर्व-विवाह हुआ है, हालांकि वहाँ उल्लेख है ‘निकट ननद न सास’ वल्लभसंप्रदाय की सेवा प्रणाली में राधा स्वकीया है, यह बात निर्विवाद है, परन्तु सूरसागर में राधा की जिस प्रेमकथा का विस्तार है, उसमें राधा स्वयं कहती है कि पिता मुझे धमकी देते हैं-‘तुझे तलवार से काट दूंगा। “पिता कोपि करवाल गहत

हैं।’

   भाई मारने को दौड़ता है, बहिन कहती है कि राधा कुल की मरजाद को डुबो रही है :

मातपिता मोहि त्रास दिखावत।

भ्राता मोहि मारन को धावै देखें मोहि न भावत। 

जननी कहत बड़े की बेटी तोकों लाज न आवत। 

भगिनी देखि देत मोहि गारी काहे कुलहिं लजावत।

     ब्रज की माताएँ अपनी बेटियों को सावधान करती हैं और सास-ननद अपनी बहुओं को चेतावनी देती है। यह करनी उनही  कों छाजै उनके संग न जै हो। सूरसागर की राधाकथा-निर्भ्रान्त रूप से लोककथा है-“राधाकान्ह कथा ब्रज घर-घर ऐसे जनि कहते हो।”     

      पुराण को राधा के नाम का पता नहीं, पर लोकजीवन को राधा की नानी के गाँव का भी पता है। राधा की नानी का नाम मुखरा था, उनके गाँव का नाम है- मुखराई।

     लोकमानस ने राधा की प्रेमकथा को साँकरीखोर, मोरकुटी, गहरवरवन, संकेत, कुमुदवन, आंजनोख, जाब, कामर, मानसरोवर और न जाने कितने कुंड, वृक्ष, घाट और स्थलों की लिपि में लिख दिया है। कहीं कृष्ण ने राधा के पैरों में महावर रचाया था और कहीं राधा-कृष्ण से रूठ गयी थीं। कहीं छिपकर के मिलने आई थीं और कहीं रास रचाया था।

     कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण पर्व का स्नान करने द्वारका से राजकुल आया और नन्द का गोकुल भी आया द्वारिका  के राजकुल को पता चला कि राधा भी आयी है  तो  रुक्मिणी पूछती हैं 

“इनमें को वृषभानु किशोरी ? 

हमें दिखाऔ अपने बालापन की जोरी। 

कृष्ण ने दूर से संकेत किया।  रुक्मिणी राधा को निज मंदिर ले गई जैसे बहुत दिनन की बिछुरी एक बाप की बेटी।’ यहाँ राधा-माधव की भेंट हुई परंतु सूरदास कहते हैं कि- माधव राधा प्रीत निरंतर रसना कहि न गई। सूरदास की वाणी अवरुद्ध हो गयी।

आगे की कहानी लोकसरस्वती ने सुनाई। रात को रुक्मिणी प्रभु की पाद सेवा को आई, तो देखा प्रभु के पैरों मैं तो फफोले हैं। विदर्भराज की बेटी ने बहुत पूछा तो कृष्ण बोले-रुक्मिणी, राधा के आतिथ्य  के समय तुम अपने आपको ऐसी भूल गयी थीं कि तुमने राधा को गरम दूध दिया और राधा ने पी लिया। राधा के हृदय में मेरे चरणों का नित्यनिवास है। 

लोकजीवन की वाचिक परंपरा में ऐसी कितनी ही कहानियाँ है कि कृष्ण के पेट में दर्द हुआ, वैद्य ने कहा कि परमप्रेमी की चरणरज से औषधि बनेगी, नारद रुक्मिणी के पास गये। रुक्मिणी ने उत्तर दिया- “पति परमेश्वर को   चरणरज ? नरक में भी ठौर न मिलेगी।”

राधा के पास गये। “कन्हैया की पीड़ा दूर होती है तो कितनी ही चरणरज ले जाओ।” 

नारद ने कहा- “पाप का डर नहीं है।” 

राधा का उत्तर था, “पाप-पुन्न दोऊ परित्यागे  होनी  होय सो होय ‘ 

आचार्य शुक्ल का यह कथन युक्तिसंगत और प्रमाण-संगत है कि, “सूर के पद लोकजीवन में पहले से चली आ रही गीत परंपरा का विकास हैं।

सूरसागर में जौनारगीत, सोहिलो, झूमक, मलार तथा अन्यान्य लोकशैलियों के विस्तार तथा लोकाचार, लोक- अनुष्ठान, पर्व त्यौहार, शकुन-अपशकुन, टोना-टोटका, मेंहदी, महावर, नाच, चंदनचौक, मंगल कलश, कुलदेवता, सांझी और लोकोक्तियों के व्यापक प्रयोग के आधार पर तत्कालीन ब्रज के लोकजीवन का सर्वांगीण चित्रण किया जा सकता है।” 

थापे देत घरन के द्वारे, द्वार साथिया देत।

शताब्दियों तक उपासना में नारी अधिकार का प्रश्न शास्त्रों को मथता रहा।वही नारीमानस भक्तिमार्ग में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित है। साधना भी वही है और साध्य भी वही है।

सूरसागर में उपासना का आदर्श माँ यशोदा और वे समस्त ब्रजांगना है, जो वात्सल्य-माधुर्य भाव में डूबी हैं। 

‘जाकौ ब्रह्मा अंत न पावे, 

ताप नंद की नार 

जसोदा घर की टहल कराबै। जप-तप-संजम ध्यान न आवै, 

सोई नंद के आँगन धाबै। 

वेद उपनिषद जासुकों निरगुनहिं बताबें। 

सोई सगुन है नंद की दाँवरी बँधाबै ‘ 

यशोदा के इस सुख के आगे मुक्ति नमकीन है- 

और सुख रंक की कौन 

इच्छा करे मुक्ति हू   

लौन सी खारी लागे।’

पुष्टि- मर्यादा का आदर्श वे गोपियाँ हैं, जिनके मन में कृष्ण को पति रूप में पाने की लालसा है। सूरदास कहते हैं– 

‘ब्रजसुंदरि नहिं नारि रिचा श्रुति की सब आहीं। 

ये सारी गोपियाँ वेद की ऋचायें हैं। 

भगवान शंकर को रास रहस्य का सबसे बड़ा ज्ञाता माना जाता है, पर उन्होंने गोपीमानस में संक्रमण किया। ब्रज में नारदकुंड है, यहाँ माधवी सखी ने उन्हें वृंदासर में स्नान कराया, जिससे वे नारी-भाव में हो गये, नारदी- गोपी बने, रास के आस्वादन का अधिकार पाया। गोपी के मन में प्रेम उद्वेलित हो रहा है परन्तु यहाँ मर्यादा है और स्वसुखसुखित्व है। पुष्टिभक्ति की सर्वोच्च अवस्था पुष्टिपुष्टि है। इसका आदर्श वे गोपांगना हैं, जिन्होंने कृष्ण के लिए वेद को भी त्याग दिया और लोक को भी त्याग दिया। तत्सुखसुखित्व। उनकी दशा ही विचित्र है। 

‘दधि को नाम बिसरि गयौ  

सजनी लै लेउ  री कोउ  स्याम सलौना।”

भाषाशास्त्री जानते हैं कि भाषा का विकास लोकजीवन में होता है, अभिजात वर्ग उसे संस्कृत बनाता है, परिनिष्ठित भाषा बनाता है परन्तु लोकजीवन में संस्कृत का पुनः तद्भवीकरण होता है और उससे पुनः प्राकृतों का जन्म होता है। इस प्रकार लोक और शास्त्र में द्वन्द्व तथा अन्तर्द्वन्द्व की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है परन्तु लोक और शास्त्र का संबंध समुद्र और मेघ का संबंध है। जीवन का संघर्ष सूर्य का ताप है और इस ताप की प्रक्रिया से लोक-जीवन के समुद्र में बादल उठते हैं, यह बादल ही शास्त्र है। बादल लोकजीवन की धरती पर बरसता है, नदियाँ उमड़ती है और फिर समुद्र में समा जाती हैं। बादल समुद्र से फिर उठता है।

      भक्ति आंदोलन में लोकमानस का उद्वेलन हुआ, समुद्र से बादल उठे। भक्तिशास्त्र की प्रतिष्ठा हुई। भक्तिशास्त्र ने वेद को स्वीकार किया, पर वह वेद नहीं, जो नारी को उपासना के अधिकार से वंचित करता है। वे वेद नहीं, जिसके देवता ने ब्रज को डुबोने के लिए मेघों की सेना भेजी थी, उस वेद वाले ब्रह्मा की तो मति मारी गयी। ब्रह्मा गयौ भूल यहाँ बहरा चुराये आप यह ऐसा वेद है, जो मोक्ष के स्थान पर रस की प्रतिष्ठा करता है हरिरस इस रस का प्रमाण क्या है? सूरदास के उद्धव उत्तर देते हैं

हरिरस तौ ब्रजवासी जानें।

ब्रह्मलोक सिवलोक नाहिं 

सुख निगम जु नेत बखानें। 

आनन्द और प्रेम की इस गहराई को, सौंदर्य- माधुर्य की इस अगाधता को, रस की परिपूर्णता को आप जिस नाम से भी पहचानना चाहें, पहचानें उसे आप परमानंद कहें, सच्चिदानंद कहें, सौंदर्य-माधुर्य का सार सर्वस्व कहें, रसामृतसिंधु कहें, उसे अनुराग सरोबर कहें, प्रेम- सरोवर कहें, मानसरोवर कहें अपने मूल रूप में वह प्रेम है सख्य, वात्सल्य, माधुर्य और निकुंजभाव सख्यभाव का प्रमाण गोप-ग्वाल हैं। वात्सल्य का प्रमाण माँ यशोदा हैं। माधुर्य का प्रमाण गोपीजन हैं और निकुंज-भाव का प्रमाण-वृन्दावनेश्वरी हैं। कर्मकांड, यज्ञ, तपस्या, तीर्थ, व्रत, जप, योग, शास्त्रज्ञान और भाँति-भाँति के विधिनिषेध जहाँ हैं, वहाँ रहे आयें, यहाँ तो प्रेम हो साध्य है और प्रेम ही साधन है, प्रेम ही फल है और प्रेम ही बीज है। ‘जो रस रास रंग हरि कीन्हों वेद नहीं ठहरायौ।’

यहाँ लोक और शास्त्र की अन्तःक्रिया को पहचानने की आवश्यकता है। लोक में से शास्त्र निकल रहा है, लोक के वेद का प्रतिपादन हो रहा है, गोकुल का शास्त्र ‘सीम- सुहद निगमन की तोरी।’

भागवत का हृदय रासपंचाध्यायी है और सूरसागर का हृदय भ्रमरगीत है। शास्त्र और लोक का संवाद है। एक और उद्धव हैं ‘शिष्यो बृहस्पतेः साक्षात् उद्धवो बुद्धिसत्तमः।’ अपने जमाने कि बुद्धिजीवियों में अग्रगण्य राजन्य वर्ग का प्रतीक- वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री, वेदवेदान्त का व्याख्याता, योगदर्शन का प्रतिपादक दूसरे पक्ष में गोपियाँ हैं, 

‘हम तौ निपट अहीर बाबरी अबला मति अति थोरी 

समझत नहीं ज्ञान गीता कौ हम अजान मति भोरी।’ 

उद्धव ने तर्क तो बहुत किये पर गोपियों ने टिप्पणी की- ‘उद्धव, बँध्यौ  ज्ञान पोथी कौ।’ पोथी का ज्ञान बँधा हुआ होता है, रस निर्बन्ध है। उद्धव लौटकर आया, बोला- श्रीकृष्ण, आपने मुझे पढ़ाने के लिए जरूर भेजा था, पर  आपको मालूम था कि में साक्षात् षड्दर्शन को बारहखड़ी पढ़ाने जा रहा हूँ। मैंने ब्रज के गोप-जीवन में जो आनन्द भाव देखा, जो समर्पण देखा, जो अनुराग देखा, जो रस देखा उसके आगे उपनिषदों का प्रतिपाद्य ब्रह्म अब मुझे भी फीका लगता है। 

‘वह सुख देखि जु नैन 

हमारे ब्रह्म न देख्यौ भावत।’

सूरकाव्य की धरती सर्वजन-चेतना की धरती है। गोपाल सबके हैं और सब गोपाल के है। यहाँ कोई भेदभाव नहीं है। 

‘जातपात, कुलकान गिनत नहि 

रंक होय के रानौ ।’ 

विदुरानी ने प्यार से याद किया, गोपाल ने दरवाजा खटखटा दिया। बिदुरानी आपा भूल गयी, केले के छिलके गोपाल को खिला रही है। 

“हम तो प्रेम प्रीत के गाहक 

भाजी साक छकइये। 

दुर्योधन को समाचार मिला तो उलाहना दिया – 

हमतें बिदुर कहा है नीकौ।

ताकी झुगिया में तुम बैठे कौन बड़प्पन पायौ।

जात-पाँत कुल हू तें न्यारी 

है दासी को जायौ।

कृष्ण ने कहा- 

दुर्योधन, ‘जहँ अभिमान तहां मैं नाही 

वह भोजन बिस लागे।’

गोपाल को दुर्वासा जैसे तपस्वी का भी गर्व स्वीकार नहीं।

सूरदास कहते हैं ‘मुनिमद मेटि दासव्रत राख्यौ अंबरीष हितकारी। एक ओर मुनिमद है और दूसरी ओर दासव्रत है और गोपाल दासव्रत के पक्ष में खड़े हैं, यह उपासना का लोकतंत्र है।सूर के कवि-मानस में जब भी झाँकता हूँ, लोकमानस दिखाई देता है।

     लोकमानस की भावधारा निरंतर और अविच्छिन्न है, सूर का कविमानस उस भावधारा से ओतप्रोत है, अभिन्न है। कभी वह प्रवाह मंद हो जाता है, तो कहीं वह प्रवाह वेगवान हो जाता है। किसी भी रूप में सही, वह वाचिक परंपरा आज भी है। वे गीत, जो उस दिन कुरुक्षेत्र में सुने थे, उनमें सूर की रागिनी है, इसमें संदेह नहीं। 

‘राधे-राधे बोल चले आयेंगे बिहारी। 

राधे सब वेदन की सार जपें जा राधे-राधे।’

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