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स्वीडन सिनेमा ने कान, बर्लिन, वेनिस फिल्म समारोहों में अपनी खास जगह बनाई

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अजीत राय

विश्व सिनेमा में स्वीडन का नाम अक्सर इंगमार बर्गमैन के कारण लिया जाता है। इसमें दो राय नहीं है कि इंगमार बर्गमैन दुनिया के महानतम फिल्मकारों में शुमार है और उनकी लगभग सारी फिल्में आज क्लासिक का दर्जा प्राप्त कर चुकी हैं। लेकिन आज के स्वीडन का नया सिनेमा जिन फिल्मकारों से जाना जाता है, उनमे तीन नाम सबसे प्रमुख है – रूबेन ओसलुंड, अली अब्बासी और तारिक सालेह।

रूबेन ओसलुंड को जब 70 वें कान फिल्म समारोह (2017 ) में ‘ द स्क्वेयर फिल्म के लिए बेस्ट फिल्म का पाम डि ओर पुरस्कार मिला तो सारी दुनिया का ध्यान एक बार फिर स्वीडन के सिनेमा की ओर गया। इसके पांच साल बाद 75 वें कान फिल्म समारोह ( 2022) में रूबेन ओसलुंड ने अपनी फिल्म ‘ ट्रायंगल आफ सैडनेस ‘ के लिए बेस्ट फिल्म का पाम डि ओर पुरस्कार जीतकर सबको अचंभित कर दिया। ये दोनों फ़िल्में यूरोप में पूंजीवाद का मजाक उड़ाती हैं । पर यहां स्वीडन के उन दो मुस्लिम फिल्मकारों की चर्चा करना जरूरी है जिन्होंने इस्लामी कट्टरवाद और उसकी राजनीति पर साहसिक फिल्में बनाई हैं। ये हैं – अली अब्बासी और तारिक सालेह।

75 वें कान फिल्म समारोह में इस बार इन दोनों फिल्मकारों को विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कार दिए गए। बेस्ट पटकथा का पुरस्कार इजिप्ट मूल के स्वीडिश फिल्मकार तारिक सालेह को उनकी फिल्म ‘ ब्वाय फ्राम हेवन’ के लिए मिला है तो ईरानी मूल के स्वीडन में विस्थापित फिल्मकार अली अब्बासी की फिल्म ‘ होली स्पाइडर ‘ में यादगार भूमिका के लिए जार अमीर इब्राहिमी को बेस्ट अभिनेत्री का पुरस्कार मिला है। ये दोनों फिल्में जिस साहस के साथ इस्लामी कट्टरवाद का विरोध करती है, वह हैरतअंगेज है। अली अब्बासी को 71 वें कान फिल्म समारोह ( 2018) के अन सर्टेन रिगार्ड खंढ में उनकी फिल्म ‘ बार्डर ‘ के लिए बेस्ट फिल्म का पुरस्कार मिल चुका है।

तारिक सालेह की फिल्म ‘ ब्वाय फ्राम हेवन’ शुरु में तो इजिप्ट की लगती है लेकिन बाद में पता चलता है कि इजिप्ट के इस्लामी कानून के अनुसार वहां ऐसी फिल्में बन ही नहीं सकती। फिल्म बताती है कि दुनिया में इस्लाम का कोई एक शक्तिपीठ नहीं हो सकता। इजिप्ट के समुद्री किनारे के एक गांव के साधारण मछुआरे का बेटा सुन्नी इस्लाम के शक्ति केंद्र माने जाने वाले काहिरा के अल अजहर विश्वविद्यालय में प्रवेश पा जाता है। वह एक सीधा सादा सच्चा मुसलमान है। यहां आने पर उसे पता चलता है कि धर्म के नाम पर चलने वाली राजनीति बहुत ख़तरनाक है और साजिशें लगातार हो रही है। कुछ समय के लिए वह भी इस सत्ता राजनीति का मोहरा बन जाता है, लेकिन किस्मत से बच निकलता है।

अली अब्बासी की फिल्म ‘ होली स्पाइडर ‘ में यादगार भूमिका के लिए जार अमीर इब्राहिमी को बेस्ट अभिनेत्री का पुरस्कार मिला है। अली अब्बासी की फिल्म भी इस्लामी कट्टरता की राजनीति का विरोध करती है। ईरान के पवित्र शहर मशाद में एक सीरीयल हत्यारा खुद को इस्लाम का सच्चा अनुयायी बताते हुए 17 वेश्याओं का बारी बारी से कत्ल कर देता है। उसे पकड़वाने के लिए एक साहसी महिला पत्रकार खुद वेश्या बनकर उसके जाल में फंसती है और उसे पकड़वा देती है। धर्म गुरु और भाड़े के इस्लामी संगठन उसे फांसी से बचाने की हर संभव कोशिश करते हैं लेकिन अदालत उसे फांसी की सजा सुनाती है। यह फिल्म भी ईरान में नहीं बन सकती थी।

दुनिया भर में जितने मुस्लिम देश हैं वहां से आनेवाला सिनेमा इस समय हमारा ध्यान आकर्षित कर रहा है। ऐसे में हमारा ध्यान अक्सर अरब और ईरान के सिनेमा पर ही आकर टिक जाता है। यह सच भी है कि पिछले कुछ सालों में अरब देशों के सिनेमा ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है। अब तो सुन्नी मुस्लिम देश सऊदी अरब ने भी न सिर्फ अपने यहां सिनेमा की इजाजत दे दी, वल्कि रेड सी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल भी शुरू कर दिया। आबू धाबी फिल्म फेस्टिवल दोबारा शुरू होने जा रहा है।

इसी संदर्भ में स्वीडन, डेनमार्क, नार्वे, फिनलैंड जैसे स्कैंडिनेवियाई देशों के मुस्लिम फिल्म निर्देशकों की फिल्मों ने इधर कान, बर्लिन, वेनिस फिल्म समारोहों में अपनी खास जगह बनाई है। इन साहसी फिल्मकारों से मुस्लिम देशों की इस्लामी सरकारें खासी खफा रहती है और कइयों को तो देश निकाला, हाऊस अरेस्ट, कैद और फांसी की सजा तक देती रहती है। ईरान में तो ऐसे उदाहरणों की भरमार है। फिर भी ये जुनूनी मुस्लिम फिल्मकार जान की बाजी लगाकर इस्लामी कट्टरवाद के खिलाफ फिल्में बना रहे हैं। तारिक सालेह और अली अब्बासी तो उदाहरण मात्र है।

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