यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से खल्क
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग़ में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
– हबीब जालिब
बुधवार, 7 नवम्बर, 1917, दोपहर 12 बजे, रूस की तत्कालीन राजधानी पेत्रोग्राद में, नेवा नदी के किनारे स्थित, पीटर-पॉल किले की तोप गरज़ उठी और रूस के मज़दूरों, मेहनतक़श किसानों और सदियों से दबे कुचले मज़लूमों ने, रुसी सत्ता के प्रतीक, शीत महल पर निर्णायक धावा बोल दिया. सत्ता के हर केंद्र, जैसे टेलीफोन-टेलीग्राफ एक्सचेंज, पोस्ट ऑफिस, स्टेट बैंक को तो नवम्बर 6 और 7 नवम्बर की रात में ही बोल्शेविक रेड गार्ड्स ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया था. वहां लाल झंडे लहरा रहे थे.
अपने महान नेता, शिक्षक, पथ प्रदर्शक, व्लादीमिर इलिच उल्यानोव, ‘लेनिन’ का आदेश होते ही असंख्य मज़दूर-किसान, बोल्शेविक रेड गार्डस की हथियारबंद टुकड़ियां और हजारों-हज़ार शोषित-पीड़ित लोग, हाथ में जो भी मिला उसे लेकर स्मोल्नी की सडकों पर उतर गए, और देखते ही देखते, एक अजेय सेना में बदल गए. पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों की ताबेदार, दमनकारी केरेंसकी की तथाकथित अंतरिम सरकार की सारी तैयारियां, सर्वहारा वर्ग की हुंकार के सामने, रेत के महल जैसी बिखर गईं.
‘अस्थाई’ सरकार के भाड़े के सैनिक, अपनी जान बचाकर भाग गए. दुनिया, सचमुच, हिल उठी. ये क्या हो गया ? सत्ता पर तो हमेशा ‘प्रभु’ अमीर, जिल्ले इलाही, जेंटलमेन धन-पशु ही बैठते आए हैं, ये मैले-कुचैले, पसीने की बदबू मारते कपड़े पहने, बगैर नहाए मज़दूरों का सत्ता से क्या काम ?? अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक, प्रतिष्ठित पत्रकार जॉन रीड, इस ऐतिहासिक घड़ी के चश्मदीद गवाह थे.
वे अपनी कालजयी पुस्तक, ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ में लिखते हैं कि सत्ता पर क़ब्ज़ा हो जाने के बाद भी, रुसी स्टेट बैंक के कर्मचारियों ने स्मोल्नी के मज़दूर कमिसार का हुक्म मानने से मना कर दिया था, और सरकारी काम के लिए पैसे का भुगतान करने से मना कर दिया था, ‘ऐसे लोग भी कहीं सरकारी अफसर होते हैं’. बोल्शेविक रेड गार्ड्स को, राइफल की गोली से तिज़ोरी का ताला तोड़ना पड़ा था !! दुनियाभर के लुटेरे सत्ताधीशों को लगा, ये कोई ख़्वाब है, एक डरावना सपना, दू:स्वप्न, ये सच नहीं हो सकता, जल्द ही बिखर जाएगा. हक़ीक़त इतनी कड़वी भी हो सकती है, उन्हें यकीन नहीं हो रहा था.
ये, एक युगांतरकारी घटना थी, मानो घुप्प अंधेरे में अचानक कोई तेज़ रोशनी जल गई हो. ऐसी घटना, जो प्रकृति के अपने अन्तर्निहित नियम, द्वंद्वात्मक वस्तुवाद के तहत, पल-पल बदलते समाज के, उस मुक़ाम पर पहुंचने पर घटती है जब उसे एक युगांतरकारी छलांग लेनी होती है. ठीक जैसे, शांत रूप से गरम होते पानी का तापमान, एक-एक डिग्री बढ़ता जाता है, और अचानक 90 डिग्री से आगे बढ़ते ही पानी गुड़गुड़ाने लगता है, उछलने लगता है और अचानक गुणात्मक परिवर्तन करते हुए भाप बन जाता है. बिलकुल उसी तरह, रोज़गार मांगने, अपनी यूनियन बनाने, वेतन-भत्ते बढ़वाने, अपनी मर्यादा, सम्मान के लिए हर रोज़ ज़ुल्मों दमन का शिकार होने वाला, सर्वहारा वर्ग क्रांतिकारी वर्ग-चेतना से लैस हो, अपनी शक्ति को पहचानता है, और उनके श्रम की चोरी कर अपनी तिजोरियां भर रहे लुटेरों पर टूट पड़ता है.
ये फैसलाकुन जंग, किसी वेतन-भत्ते, बोनस-बीमे के लिए नहीं, बल्कि सत्ता में काबिज़ लुटेरों को, बलपूर्वक सत्ता से खींच, खुद सत्ता हांसिल करने के लिए होती है. अत्यंत पिछड़े और भयानक रूप से दमित देश, रूस का सर्वहारा अपने महान नेता लेनिन के नेतृत्व में इतिहास के उस मुक़ाम पर था, जिसे पश्चिमी यूरोप का अगुवा सर्वहारा हासिल नहीं कर सका था.
स्वर्ग पर पहले धावा बोलने का गौरव,
पेरिस कम्यून के जियालों के नाम ही रहेगा
मज़दूरों-मज़लूमों, मेहनतक़शों द्वारा लुटेरे शासक वर्ग को सत्ता से बलात खींचकर, उनके सारे टीन-टप्पर को उखाड़ फेंकते हुए, सत्ता हांसिल करने की, वैसे ये इतिहास की पहली घटना नहीं थी. पेरिस के वीर कोम्युनार्ड्स, ये कीर्तिमान 1917 से 46 साल पहले, सन 1871 में ही स्थापित कर चुके थे. 72 दिन का वह मज़दूर राज, पहला, वर्जिन और मासूम प्रयोग था.
कोमुनार्ड्स की दिलेरी बे-मिसाल थी, लेकिन बुर्जुआ वर्ग का काईयांपन, गद्दारी और सत्ता की ज़हरीली जड़ें किस तरह समूचे सत्ता तंत्र में रची-बसी होती हैं, इस सच्चाई को समझने में हुई चूक और लड़ाकू किसानों को सत्ताधारी लुटेरे पूंजीपति वर्ग के खेमे से निकालकर अपने खेमे में ला पाने में हुई उनकी विफलता, उन्हें बहुत भारी पड़ी. 28 मई 1871 को पासा पलट गया, जिसकी क़ीमत मज़दूरों को अक्षरस: अपने खून से चुकानी पड़ी.
कोम्युनार्ड्स द्वारा, शत्रु पूंजीपति वर्ग के प्रति दिखाई दयालुता का बदला इस तरह लिया गया कि मज़दूरों से वापस सत्ता हासिल करने के बाद फ़्रांसिसी जल्लाद, थिएर्स ने 20,000 से अधिक मज़दूरों और सेना के 750 जवानों को, जिन्होंने मज़दूरों का साथ दिया था, गोली से उड़ा दिया. पेरिस की सड़कें, मज़दूरों के खून से सराबोर हो गई थीं.
कार्ल मार्क्स और फ्रेडेरिक एंगेल्स ने, जो, हालांकि, कोम्युनार्ड्स द्वारा अपनाई गई रणनीति से सहमत नहीं थे, लेकिन लड़ाई छिड़ जाने पर, इस अनोखे ऐतिहासिक प्रयोग के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा था, ‘फ़्रांस के मज़दूरों ने स्वर्ग पर धावा बोला है’, उनका मार्गदर्शन भी किया. साथ ही, उस तारीखी जंग से सीख लेते हुए उन्होंने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया था, कि सर्वहारा वर्ग, पूंजीपति वर्ग से सत्ता छीन लेने के बाद, बने-बनाए शासन तंत्र का इस्तेमाल नहीं कर सकता. उसे अपना शासन तंत्र विकसित करते रहना होगा.
क्रांति क्या होती है, कैसे संपन्न होती है, वस्तुगत परिस्थितियां क्रांति के लिए परिपक्व हो चुकीं, ये कैसे पहचाना जाए; इन सभी प्रश्नों को एकदम सटीक और तर्क़पूर्ण तरीक़े से समझाते हुए, लेनिन, 1915 में ‘दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का पतन’ विषय पर अपने महत्वपूर्ण लेख में एक वैज्ञानिक की तरह लिखते हैं –
‘मार्क्सवादी के लिए यह निर्विवाद है कि क्रांतिकारी परिस्थिति के बिना क्रांति असंभव है; इसके अलावा, ऐसा भी नहीं है कि हर क्रांतिकारी परिस्थिति, क्रांति संपन्न कर दे. सामान्यतया, एक क्रांतिकारी परिस्थिति के लक्षण क्या हैं ? यदि हम निम्नलिखित तीन प्रमुख लक्षणों की मौजूदगी के संकेतों को रेखांकित करें तो निश्चित रूप से हम गलत नहीं होंगे:
- ‘जब शासक वर्गों के लिए बिना किसी परिवर्तन के, अपना शासन बनाए रखना असंभव हो रहा हो; जब ‘उच्च वर्गों’ के बीच भी, किसी न किसी रूप में संकट मौजूद हो, शासक वर्ग की नीतियों में ऐसा संकट मौजूद हो, जिससे शासक वर्ग में एक दरार पैदा हो रही हो, जिसमें से उत्पीड़ित वर्गों का असंतोष और आक्रोश फूट पड़ रहा हो. एक क्रांति के क़ामयाब होने के लिए, आमतौर पर इतना ही काफी नहीं है कि ‘निम्न वर्ग’ ही पहले की तरह नहीं रह पा रहा, बल्कि ‘उच्च वर्ग’ के लिए भी, मौजूदा तरीक़े से जीना संभव ना हो पा रहा हो;
- ‘जब शोषित-उत्पीड़ित वर्गों की पीड़ा और अभाव, सामान्य से अधिक तीखे हो गए हों;
- ‘जब, उपरोक्त सभी कारणों के परिणामस्वरूप, जनता की राजनीतिक हलचल में काफी वृद्धि हो चुकी हो, जो जनता ‘शांति के समय’ में बिना कोई शिकायत किए, लुटने के लिए तैयार रहती है, वह भी, इस अशांत समय में, संकट की परिस्थितियों में ‘उच्च वर्गों’ से स्वतन्त्र, किसी ऐतिहासिक कार्रवाई के लिए, खिंची चली जा रही हो.’
नवम्बर क्रांति, जिसकी रोशनी दुनिया भर में फैलती गई, दुनियाभर के करोड़ों दबे-कुचले लोगों की प्रेरणास्रोत बनी. औपनिवेशिक दासता और ज़ालिम शासकों के ख़िलाफ़, आज़ादी आन्दोलन बुलंदी पर पहुंचे. दुनियाभर के मेहनतकशों का सहारा बनी. मज़दूर वर्ग के गद्दारों द्वारा, आज जब उसे प्रतिक्रांति द्वारा पलटकर, पूंजीवादी लूट सत्ता को फिर से स्थापित कर दिया गया है, आज भी महान नवम्बर क्रांति, दुनियाभर के मेहनतक़शों की प्रेरणा स्रोत बनी हुई है और बनी रहेगी.
नवम्बर क्रांति संपन्न होने की समीक्षा करते हुए लेनिन विनम्रता से लिखते हैं –
‘हमने हमेशा यह महसूस किया है कि यह रूसी सर्वहारा वर्ग की, किसी योग्यता के कारण नहीं था, भले हम क्रांति की शुरुआत पहले कर सके, लेकिन ये विकसित हुई थी, पूंजीवाद की विशिष्ट कमजोरियों और उसके पिछड़ेपन के कारण ही, और उसके ख़िलाफ़ विश्वव्यापी संघर्ष के चलते हुए ही. इसके आलावा, यह केवल पूंजीवाद की विशिष्ट कमजोरी, पिछड़ेपन और सैन्य सामरिक परिस्थितियों के अजीब दबाव के कारण ही था, कि हम, अन्य टुकड़ियों से आगे बढ़ने के लिए घटनाओं का उपयोग कर सके. दुनिया हमारे साथ आ जाए, वह भी विद्रोह करे, हम तब तक इंतजार नहीं कर सकते थे. अब हम यह समीक्षा, इसलिए कर रहे हैं, ताकि आने वाली क्रांतियों में, उनके सामने आने वाली लड़ाइयों के लिए, हम अपनी तैयारियों का जायजा ले सकें.’
महान रुसी बोल्शेविक क्रांति की एक और ख़ास बात, क़ाबिल-ए-गौर है. 1917 में केरेंस्की की सरकार को सत्ता से भगाकर, बोल्शेविकों ने सत्ता हांसिल कर ली थी, लेकिन उस वक़्त, वर्ग संघर्ष आधारित संघर्ष, सिर्फ़ शहरों में ही हुआ था. देहात के विशाल भूभाग में वर्ग संघर्ष, सर्वहारा द्वारा राजसत्ता रूपी औजार का उपयोग करते हुए क्रम बद्ध तरीक़े से चलाया गया था.
क्रांति का पहला चरण था, राज सत्ता हांसिल करना, जो कि आसान साबित हुआ. लेकिन उसके बाद, पहले भयानक गृह युद्ध और फिर खेती किसानी में वर्ग संघर्ष चलाते हुए कुलकों का सफ़ाया तो 1930 तक, मतलब सत्ता हांसिल करने के 13 साल बाद ही हो पाया था. ये रास्ता बेहद जटिल और अत्यंत कठिनाईयों भरा था.
1930 तक रूस में चारों प्रकार की खेती मौजूद थी, व्यक्तिगत फार्म, सहकारी फार्म, सामूहिक फार्म और सरकारी फार्म. खेती में समाजवादी व्यवस्था स्थापित होने का मतलब है, सरकारी फार्मों का निर्माण. ऐसा सोचना कि विशाल देशों में, शहरों और देहात में सभी जगह, एक साथ वर्ग-संघर्ष चलाते हुए, एक झटके में शोषक वर्ग को परास्त कर समाजवाद स्थापित हो जाएगा, ठीक नहीं.
नवम्बर क्रांति ने ये साबित किया, कि क्रांतियां औद्योगिक रूप से आगे निकल चुके पश्चिमी यूरोप में ही पहले हों, ज़रूरी नहीं. मतलब, क्रांतिकारी परिस्थितियां परिपक्व हों, और मनोगत परिस्थितियां, अर्थात सही क्रांतिकारी पार्टियां, समर्थ और सक्षम हों, तो किसी भी देश का मेहनतक़श अवाम क्रांति संपन्न कर सकता है, असली आज़ादी हांसिल कर सकता है.
मौजूदा काल खंड की बहुत पीड़ादायक हकीक़त है की शोषण-उत्पीड़न तो चरम पर है, व्यवस्था का संकट असाध्य है, क्रांति की वस्तुगत परिस्थितियां परिपक्व हैं, लेकिन सही क्रांतिकारी पार्टी मौजूद नहीं. कम्युनिस्ट आंदोलन की इस कमजोरी से, क्रांतिकारी ऊर्जा, फ़ासीवादी संगठनों की ओर धिकलती जा रही है. महान कम्युनिस्ट योद्धा, क्लारा जेटकिन ने कितना सही कहा था, ‘फ़ासीवाद, मज़दूरों को इस बात की सज़ा है कि वे, रुसी बोल्शेविक क्रांति को आगे बढ़ाने में नाकाम रहे’. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी सैकड़ों विषैली शाखाओं को, इस देश को, इसीलिए झेलना पड़ रहा है, कि जन-आक्रोश की असीमित और अजेय ऊर्जा को क्रांति की दिशा में नहीं मोड़ा जा सका.
पूंजीवाद, मानव विकास का अन्तिम पड़ाव नहीं हो सकता,
इसे जाना ही होगा
पूंजीवाद के टुकड़ों पर पलने वाले, ‘अर्थशास्त्री’ कितना भी ढोल क्यों ना पीटें, मिर्गी के मरीज़ों की तरह, कितना भी स्याप्पा क्यों ना डालें, इस ठोस हकीक़त को कोई नहीं झुठला सकता कि पूंजीवाद की मुद्दत पूरी हो चुकी है. इसके दिन गिने जा चुके हैं. यह, एक ऐसे असाध्य संकट में फंस चुका है, जो असाध्य है. उससे बाहर निकलने का हर नुस्खा, इसे और गहरे गड्ढे में धकेलता जा रहा है. ये आर्थिक संकट, अब, इसे साथ लेकर ही, क़ब्र में जाएगा. बेरोज़गारी, मंहगाई के जानलेवा रोग, अब तथाकथित विकसित और विकासशील देशों का भेद मिटाकर, सर्वव्यापी हो चुके हैं.
सरकारें, अब रोज़गार दिलाने के प्रयास ही नहीं करतीं क्योंकि वह संभव नहीं. अब वे, बेरोज़गारों का ध्यान भटकाने के उपक्रम ही करती हैं. ‘भारतीय अर्थव्यवस्था उभरती हुई और भविष्य की संभावनाएं लिए हुए है’, बेरोज़गारी, मंहगाई, कंगाली से कराहते लोगों को झूठ की यह घुट्टी झूठ पिलाने वाले दरबारी अर्थशास्त्री, चाहें तो, 2 नवम्बर को प्रकाशित ‘उत्पादन-ख़रीदी मेनेजर इंडेक्स’ के आंकड़े देख सकते हैं, जिसका शीर्षक है, ‘उत्पादन गतिविधियां पिछले 8 महीने के सबसे निचले स्तर पर.’
पूंजीवाद-साम्राज्यवाद, अब, सिर्फ युद्ध और तबाही ही दे सकता है. उत्पादक शक्तियों का विनाश करने के लिए, दुनिया को भयानक युद्धों में धकेला जा रहा है. रूस-युक्रेन के बीच, 18 महीने से ज़ारी, विनाशकारी युद्ध को शांत नहीं होने दिया जा रहा. तबाही का एक और मोर्चा खोल दिया गया है. दुनिया का स्वयं घोषित लठैत और पूंजीवाद का सबसे बड़े ताबेदार, अमेरिका, समुद्र में अपने विध्वंशक जहाजी बेड़े खड़े कर गाजा में नरसंहार करा रहा है. ये है पूंजीवादी जनवाद का असली ख़ूनी चेहरा. फिलिस्तीन की धरती पर, बरस रहे गोलों में दफ़न होते जा रहे बच्चे, पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की क़ब्र पर नमूद होंगे, जिससे आने वाली नस्लें जान सकें कि कभी, ऐसी भी राजसत्ता रही है, जो मासूम बच्चों का खून पीकर फलती-फूलती थी.
‘समाजवाद फेल हो गया, मार्क्सवाद-लेनिनवाद पुराना पड़ गया, अब तो बस पूंजी का ही नंगा नाच रहने वाला है’ कहकर, प्रेत-नृत्य करने वालों को शर्म से डूब मरना चाहिए. तब क्या ऐसा विकास रहेगा ? रूस की धरती पर साकार हई मज़दूरों की वह हसीन दुनिया लुट गई. कम्युनिज्म के गद्दारों ने वह ख़्वाब चकनाचूर कर दिया, लेकिन दुनिया का बच्चा-बच्चा ये हकीक़त जान गया कि या तो समाजवाद आएगा, या फिर इसी तरह का विनाशकारी अंधेरा, जन-संहार और तबाही का मंज़र हर तरफ़ नज़र आएगा.
सामाजिक विकास की नैसर्गिक गति को रोकने की कोशिशें पहले भी जाते हुए वर्गों द्वारा कई बार की जा चुकी हैं, लेकिन वैज्ञानिक नियमों से संचालित, द्वंद्वात्मक विकास की धारा, शान से बहती आई है और बहती जाएगी. क्रांति की सूनामी लहरें, जंगखोरों का सारा बारूदी कूड़ा-करकट बहा ले जाने वाली हैं. जहां राजे-रजवाड़े गए, उनकी ख़ूनी तोपें-तलवारें गईं, ठीक वहीं, पूंजी के ये टीन-टप्पर पहुंचने वाले हैं. पूंजीवाद को इतिहास ज़मा होने से कोई नहीं बचा सकता.
पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की टांगें क़ब्र में लटक चुकी हैं, उसका बाक़ी घिनौना, सड़ांध मारता शरीर भी जाने वाला है. दुनिया बारूद के ढेर पर है. वस्तुगत परिस्थितियां पक चुकीं. जल्दी ही, कमेरा सर्वहारा वर्ग, बोल्शेविक पार्टियों जैसी, सच्ची क्रांतिकारी पार्टियों का निर्माण करेगा. नवम्बर क्रांति के नए संस्करण लिखे जाएंगे. इस बार पूंजीवाद का सूपड़ा साफ़ होकर ही रहेगा.
समाज, फिर एक ‘लेनिन’ पैदा करेगा. लुटेरे पूंजीवादी-साम्राज्यवादियों के लूट के गढ़ों, श्वेत प्रासादों पर, फिर धावे बोले जाएंगे. फिर सजेंगी, मज़दूरों-मेहनतक़श किसानों की विशाल, अजेय सेनाएं. लाल झंडों का सैलाब फिर नज़र आएगा. महान नवम्बर क्रांति, दुनियाभर के शोषक लुटेरों को, इसी तरह भयाक्रांत करती रहेगी. मुक्तिदाता सर्वहारा को इसी तरह दिशा और रोशनी दिखाती रहेगी.