Site icon अग्नि आलोक

श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान में एक साथ कसौटी पर हमारी अवधारणा

Share

शेखर गुप्ता

जिस दिन श्रीलंका कांटे की टक्कर वाले चुनाव में अपने नये राष्ट्रपति को चुनने जा रहा है, उस दिन यह याद करना हमारे लिए काम की बात होगी कि अभी दो साल पहले मौसम के जोरदार थपेड़ों से उसने खुद को कितनी समझदारी और शांति से उबारा. आज, वो अपनी मुख्यधारा की राजनीति के तीन परिचित चेहरों में से एक को चुनने जा रहा है. वहां कोई उथल-पुथल नहीं हुई है.

इसमें एक महत्वपूर्ण सबक छिपा है कि देशों और समाजों को कभी-न-कभी उथल-पुथल से गुजरना पड़ता है. कई देश या समाज इसके कारण खुद को बर्बाद कर लेते हैं या परिवर्तनों और अस्थिरता के चक्र से गुज़रते हैं. जो इस सबसे उबर जाते हैं और शायद मजबूत होकर उभरते हैं उन्हें उस गुण की ज़रूरत पड़ती है जिसे बहुत कमतर आंका जाता है. वह गुण है — लोकतांत्रिक धैर्य. यह क्या है? और यह किस तरह काम करता है?

हले श्रीलंका की ही बात करें. जुलाई 2022 में पूरी दुनिया ने बड़ी हैरत से उन तस्वीरों को देखा जिनमें आंदोलनकारी लोग राष्ट्रपति के महल को लूटते, वहां के सामान उठाकर ले जाते, उसके स्विमिंग पूल में तैरते और रील बनाते दिख रहे थे. सरकार को उखाड़ फेंका गया था, लेकिन इसके कारण वहां कोई खालीपन नहीं आया जिसे छिटपुट आंदोलनकारियों, छात्र नेताओं, एनजीओ वालों या दोहरे पासपोर्ट रखने वाले मतलबी लोगों ने आगे आकर भर दिया हो.

इसके विपरीत बांग्लादेश को देखिए. उसने सत्ता में बैठी नेता को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया. अनिर्वाचित या निर्वाचन के अयोग्य एनजीओ वालों, छात्रों, टेक्नोक्रेटों, और गुप्त इस्लामवादियों ने कमान हथिया ली. अब वह नया संविधान लिखने के लिए देसी विद्वानों को विदेश से बुला रहे हैं. उन्होंने सभी कमीशंड अफसरों को मजिस्ट्रेट वाले अधिकार सौंप दिए हैं और इस तरह शासन औपचारिक रूप से सेना के हवाले कर दिया है. इसे आप पाकिस्तान का एक संस्करण कह सकते हैं.

दोनों पड़ोसी देशों में एक जैसी उथल-पुथल हुई, लेकिन एक ने बदलाव को कितनी सहजता से अंजाम दिया, जबकि दूसरे ने इसकी कोशिश तक नहीं की. इसमें नेपाल का उदाहरण भी जोड़ लीजिए. एक जन आंदोलन और एक सशस्त्र माओवादी बगावत ने वहां राजशाही को खत्म कर दिया. उसके बाद अब तक 16 वर्षों के लोकतांत्रिक दौर में आठ प्रधानमंत्री छोटे-छोटे कार्यकालों के लिए सत्ता संभाल चुके हैं और वे अपने लोकतंत्र को बेहतर बनाने में निरंतर जुटे हुए हैं. उन्हें लोकतांत्रिक धैर्य एक वरदान की तरह मिला है.

लोकतंत्र अस्त-व्यस्त जैसी व्यवस्था नज़र आती है. जनरल, तानाशाह, नोबल पुरस्कार विजेता कितने अलग, कितने गुणी, कितने सुचारु नज़र आते हैं! अपने अ-राजनीतिक वादे के लोभ में वही देश फंसते हैं जो अभी इतने समझदार नहीं हुए हैं कि लोकतंत्र की अनिवार्य अस्त-व्यस्तता, उसकी धूल-धक्कड़ और उसके अप्रिय पहलुओं को झेलने को तैयार हों. अगर आपके भीतर धैर्य नहीं है तो आप आसान रास्ते तलाशने लगते हैं. बांग्लादेश को देख लीजिए.

श्रीलंका में परिवर्तन सहजता से हो गया, जाने-पहचाने चेहरों को आगे लाया गया जिनमें वर्तमान शासक और उम्मीदवार रानिल विक्रमसिंघे भी शामिल हैं, जो 75 साल के हो गए हैं और सबसे लंबे समय से सक्रिय रहे नेताओं में अंतिम नेता माने जाते हैं. श्रीलंकाइयों ने किसी पड़ोसी देश या ग्लोबल संस्था से आयातित किसी ऐसे शख्स की खातिर लोकतंत्र का सौदा नहीं किया, जो यह अविश्वसनीय भरोसा दिला रहा हो कि वह गरीब, भदेस तीसरी दुनिया का लोकतांत्रीकरण कर देगा. इसलिए, विक्रमसिंघे की सफलता या विफलता हमारे तर्क को मजबूत ही करेगी.

इस बात पर गौर कीजिए कि उन्होंने ‘दिप्रिंट’ की वंदना मेनन को दिए इंटरव्यू में अपनी राजनीति और अपनी हैसियत के बारे में क्या कहा है. उन्होंने कहा कि उन्होंने एक ऐसे समय में सत्ता संभाली थी जब एक राजनीतिक शून्य उभरता दिख रहा था. आज, नया राष्ट्रपति चुनना लोगों के हाथ में है और वे उनके फैसले को कबूल करेंगे. विक्रमसिंहे ने 28 साल की उम्र में एक जूनियर मंत्री के रूप में शुरुआत की थी. वे प्रधानमंत्री बने और कई बार राष्ट्रपति बने. 2022 में लोगों ने बदलाव चाहा. विक्रमसिंघे को निरंतरता का प्रतीक माना जा सकता है. उन्हें अगर एक भरोसेमंद विकल्प माना गया तो इसलिए कि उन्हें लोकतंत्र की पहचान के रूप में देखा गया. उन्होंने डगमगाते जहाज को स्थिर किया और निर्धारित समय पर चुनाव करवाकर खुद को उसके हवाले कर दिया.

फिर से उस सवाल पर लौटते हैं कि कुछ देश ऐसी उथल-पुथल को संभालने में सफल क्यों होते हैं और कुछ देश इसमें टूट क्यों जाते हैं? हम दो दशक पीछे जाकर शुरुआत करते हैं जब पूर्व सोवियत संघ के या सोवियत दायरे के जॉर्जिया, किर्गिस्तान, यूगोस्लाविया, और यूक्रेन जैसे देशों में हुए परिवर्तन को ‘कलर रिवोल्यूशन’ जैसा बड़ा नाम दिया गया था. उसे ‘कलर रिवोल्यूशन’ इसलिए कहा गया क्योंकि हर देश में विरोध का झंडा लहराने वाले अक्सर एक खास रंग की कमीज़ पहनते थे. इसके बाद ‘अरब स्प्रिंग’ और उसका ‘ताहिर चौक’ आंदोलन हुआ. इन सबका अंत बुरा ही हुआ, इनके बाद या तो नई तानाशाही आई या देश ही टूट गया (जैसे यूगोस्लाविया).

गूगल पर न्यू देल्ही+2011+रामलीला मैदान+ताहिर चौक लिखकर ‘सर्च’ कीजिए और देखिए कि क्या कुछ सामने आता है. इसके बाद गहरी सांस लेकर यह सोचिए कि ऐसे ही ज़हर के प्याले का हमने क्या किया था.

गूगल आपको बताएगा कि उस समय ऐसे कई स्मार्ट लोग थे जो अन्ना आंदोलन को ‘भारतीय ताहिर चौक’ नाम दे रहे थे. ऐसा लगता था कि हर कोई परिवर्तन चाहता था, नई व्यवस्था चाहता था और हालांकि, उस समय साफ नहीं कहा गया था मगर, एक नया संविधान भी चाहता था. इसकी वजह? यह कि ‘मेरा नेता चोर है!’

युद्धघोष यह था — ‘हमें इस सिस्टम को बदलना ही होगा!’ अंत क्या हुआ? चुनावों के जरिए सिर्फ सरकार बदली. भारत ‘ताहिर चौक’ वाले हश्र से बच गया.

उस आंदोलन को ताकत हमारी राजनीतिक यथास्थिति और उस लोकतंत्र से हमारी ऊब से मिल रही थी, जो “अनपढ़ों और गंवारों” को सत्ता में बिठाता है. उदारवादी फिल्म अभिनेता ओम पुरी ने अन्ना हज़ारे के मंच पर इसी मुहावरे का इस्तेमाल किया था. बहुत हो गया, अब राजनीति स्मार्ट, पढ़े-लिखे लोगों, नोबल और मैग्सेसे अवार्ड पाने वालों के हाथों में जानी चाहिए.

मध्य और उच्च वर्ग भी उदारवादियों, वामपंथियों, दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों, अराजकतावादियों सरीखे तमाम तरह के फ्रीलांसरों के साथ इस लहर में शामिल थे. इसी तरह लगभग पूरा मीडिया भी साथ था, खासकर टीवी समाचार वाले. टीआरपी बढ़ाने वाले नैतिकतावादी मंच पर भला कौन नहीं चढ़ना चाहता? मीडिया के कुछ सितारों ने अन्ना के मंच पर भाषण दिए, तो कुछ ने सेना को इस आंदोलन में शामिल होने की नसीहत दी. जैसे 1975 में जयप्रकाश नारायण ने सेना और पुलिस वालों को ‘गैरकानूनी’ आदेशों का पालन न करने का निर्दोष-सा आह्वान किया था और जिसके बहाने इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी थोप दी थी. मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार इंदिरा गांधी वाली सरकार नहीं थी. तीन कारणों ने हमें इस कयामत से बचाया.

पहला कारण यह था कि उस समय ‘हवा’ चाहे जैसी बह रही थी, ‘हर कोई’ यह परिवर्तन नहीं चाहता था. ‘हर कोई’ में बहसजीवी तबका, टीवी चैनल, फिल्मी सितारे, सुपरस्टार एंकर नहीं आते. भारतीय व्यवस्था उन डेढ़ अरब लोगों पर टिकी है जो उस पर भरोसा करते हैं. इसलिए, सत्तातंत्र के सिविल या सैन्य खेमे का कोई शख्स उस आंदोलन में शामिल नहीं हुआ. कोई भी नहीं, सिवा हमारे पवित्र राष्ट्रीय प्रमुख लेखाकार के, जिन्होंने परोक्ष रूप से योगदान दिया.

दूसरा कारण यह था कि सियासी खेमे ने संघर्ष किया. उसका संघर्ष कैसा था, यह जानने के लिए जन लोकपाल बिल पर लोकसभा की 25 अगस्त 2011 की बैठक का वीडियो देख लीजिए. इस बैठक के दो दिन बाद इस कॉलम में मैंने दिवंगत शरद यादव द्वारा उठाए गए सबसे गंभीर मुद्दे का ज़िक्र किया था. उन्होंने कहा था कि इस व्यवस्था को खारिज करने से पहले यह याद कर लीजिए कि गांधी और आंबेडकर की दूरदर्शिता न होती तो हमारे जैसे लोगों को नई दिल्ली में अपने मवेशी को घास चराने की भी इज़ाज़त नहीं मिलती.

यादव ने कहा था कि यह संसद भवन ही एक ऐसी जगह है जहां आपको देश भर के चेहरे दिख जाएंगे, जहां दलितों को बराबरी का दर्जा हासिल है; जहां घुरऊ राम, गरीब राम और पकौड़ी लाल जैसे नाम सांसदों के रूप में घूमते नज़र आएंगे. किसी गरीब राम या पकौड़ी लाल को किसी नोबल विजेता से कहीं ज्यादा विशाल भारतीय जनता का प्रतिनिधि माना जा सकता है और वह विशाल जनता अपनी संवैधानिक व्यवस्था में भरोसा करती है. यह तीसरा कारण है जिसके चलते भारतीय ‘ताहिर चौक’ जम नहीं पाया.


इसके तीन साल बाद चुनाव के जरिए सहज परिवर्तन हो गया, और यही राजनीति उस आंदोलन के तेजतर्रार नेताओं को निगल गई और स्वघोषित महात्मा गांधी अन्ना हज़ारे एक ‘आइटम नंबर’ बनकर रह गए. वैसे भी वे हमेशा से एक विदूषक ही थे और अब वे गुस्से में हैं.

भारत इसमें से और मजबूत होकर उभरा क्योंकि इसकी गरीब जनता में लोकतांत्रिक धैर्य था. जैसा कि नेपाल और श्रीलंका के लोगों में भी था. इनमें आप अमेरिका को भी जोड़ लीजिए जिसने 2020 के चुनाव परिणाम को पलटने कोशिश में उसके सत्ता-केंद्र कैपिटल हिल पर ट्रंप के हमले को विफल कर दिया था. बांग्लादेश ने ठीक इसका उलटा किया. वहां अनिर्वाचित केयरटेकर आज राजनेताओं के बिना एक नया संविधान तैयार करना और उसके बाद चुनाव कराना चाहते हैं, जैसा कि पाकिस्तान के आम तानाशाह करते रहे हैं. खतरा यही है कि वे बहुत अच्छे मुकाम तक न पहुंचें.

अगर आपमें लोकतंत्र के शोर-शराबे और उठा-पटक के लिए धैर्य नहीं है तो आप लोकतंत्र के काबिल नहीं हैं. हमारी अवधारणा हमारे पड़ोस, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान में एक साथ कसौटी पर है.

Exit mobile version