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पॉपुलर बनाम क्लासिक:तानसेन का वो सबक

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नीरज बधवार
सोशल मीडिया पर साहित्य को लेकर पॉपुलर बनाम क्लासिक की चर्चाएं अक्सर सुनता रहता हूं। इन चर्चाओं में क्लासिक के पक्षधर लोग साहित्य में पॉपुलर लोगों की अक्सर टांग खिंचाई करते ही दिखते हैं। वो बताते हैं कि कैसे जो क्लासिक चीज़ है वही याद रखी जाएगी और किसी तरह पॉपुलर चीज़ें लिखने वाले दोयम दर्जे का काम कर रहे हैं। वहीं पॉपुलर माने जाने वाले लोगों को अक्सर लगता है कि इस तरह की चर्चाएं करने वाले जलनखोर लोग हैं। जो सिर्फ उनकी लोकप्रियता से चिढ़ते हैं और उसी चिढ़ की वजह से बार-बार ये मुद्दा छेड़ते हैं।

मगर मुझे लगता है कि ये पूरा मामला लोकप्रिय और क्लासिक का है ही नहीं और न ही इसे ऐसे देखा जाना चाहिए।

किसी भी लेखक से किसी और जैसा हो जाने का आग्रह करना या उम्मीद रखना ही गलत है। हर इंसान एक अलग पृष्ठभूमि से आता है। उस पृष्ठभूमि से वो अपने लिए अलग कच्चा माल लेकर आता है। उसके भाषायी संस्कार भी अलग होते हैं। अब इस इंसान के पास अगर एक्सप्रेशन है, वो चीज़ों को ऑब्सज़र्व करता है, तो उसे पूरा हक है कि वो अपने हिस्से का सच, अपनी देखी दुनिया, अपनी भाषा में दुनिया को बताए। और जब वो ऐसा करता है तो उन लाखों करोड़ों लोगों की भी बात करता है जो उसकी ही दुनिया के हैं। अब उसकी दुनिया के लोग उसकी भाषा से, उसके मुद्दों से, उसकी संवेदनाओं से रिलेट कर रहे हैं तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है।

इसलिए बजाए ये शिकायत करने के कि फलां बहुत हल्का लिख रहा है, वो तो जानबूझकर पॉपुलर राइटिंग करता है आपको तो इस बात की तसल्ली होनी चाहिए आज के ज़माने में वो शख्स किसी तरह से लोगों को किताबों से जोड़ तो पा रहा है। इन जुड़ने वालों में बहुत सारे फर्स्ट टाइम रीडर भी हैं। जिन्होंने इससे पहले कोई साहित्यिक किताब पढ़ी भी नहीं। यही फर्स्ट टाइम रीडर कल को ग्रो भी करेगा। वो जैसी चीज़ों से आकर्षित होकर किताबों की तरफ आया है कल को वो उससे भी बेहतर पढ़ना चाहेगा। वक्त के साथ उसकी भी बौद्धिक प्यास बढ़ेगी।

इसमें तो कोई शिकायत होनी ही नहीं चाहिए। मगर शिकायत तो हर दिन सुनने को मिलती है। इसलिए शिकायत करने वालों को ये खुद से पूछना है कि उनकी शिकायत लोकप्रिय लेखकों के औसत लिखने से है या इस औसत लिखने से मिली उनकी शोहरत से।

दूसरा कड़वा सच ये है कि आप जीवन में बौद्धिकता के किसी भी पायदान पर क्यों न खड़े हों। खुद को कितना भी Intellectual क्यों न मानते हों मगर आपके ऊपर भी ऐसी विधा, ऐसे लोग होंगे जिनकी नज़र में आप औसत हैं। वो भी आपको क्लासी नहीं मानते होंगे। रफी को पंसद करने वालों की नज़र में अरिजीत सिंह हल्के हैं। गुलाम अली को पसंद करने वालों के लिए रफी में वो बात नहीं। क्लासिक संगीत के चाहने वालों को हो सकता है गुलाम अली भी बाज़ारू लगते हों।

साहित्य में भी कुछ लोग व्यंग्य को विधा मानने को तैयार नहीं। कहानीकार व्यंग्यकार को भाव नहीं देता। उपन्यासकार कहानीकार को और कवि को तो लगता ही है कि सबसे ज़्यादा रचनात्मक काम कविता करना ही है। हर दूसरा कलाकार किसी दूसरे की कलात्मक हैसियत तय कर रहा है।

मूल बात ये है कि एक समाज संवेदनाओं के, बौद्धिकता के कई स्तरों पर एक साथ जी रहा होता है। इन्हीं अलग-अलग स्तरों से अभिव्यक्ति करने के लिए लोग भी आते हैं जिन्हें समाज कलाकार कहता है। अगर हम ये ज़िद्द पाल लें कि नहीं, हम जो बता रहे हैं वही आदर्श है, वही पवित्र है, तो न तो ये रचनाकारों के साथ न्याय होगा और न ही कला की अलग-अलग समझ रखने वाले लोगों के साथ।

मगर दिक्कत ये होती है कि जब बतौर चिंतक, बतौर क्रिएटर हम खुद को कहीं प्लेस करने लगते हैं। खुद की एक हवाई छवि बना लेते हैं। फिर हमारी वो छवि अच्छे-बुरे के पैमाने तैयार करती है और जब किसी का काम उन पैमानों पर खरा नहीं उतरता, तो हम उसे सिरे से ही खारिज कर देते हैं। खासतौर पर उन लोगों का काम जो हमारे तय पैमानों से हल्का है लेकिन ज़्यादा लोकप्रिय हो गया है। लोगों को बुरे काम की परवाह कहां होती हैं। अंग्रेज़ी में भी दसियों लोग हर रोज़ बुरी किताबें लिख रहे हैं मगर चेतन भगत से लोगों की तकलीफ ये है कि वो इतना औसत लिखकर भी इतने लोकप्रिय कैसे हो गए। इतना पैसा कैसे कमा रहे हैं।

मगर ये तकलीफ भी व्यर्थ है। क्योंकि मुझे लगता है कि एक कलाकार के लिए आज का वक्त जितना लोकतांत्रिक है उतना शायद ही पहले कभी रहा हो। आज एक औसत चीज़ के लिए मंच और बाज़ार मौजूद है तो एक क्लासिक के लिए भी है।

अगर यूट्यूब पर एक फूहड़ कॉमेडी का वीडियो लाखों व्यूज़ पाता है तो विकास दिव्यकीर्ति सर के ‘दर्शन क्या है’ विषय पर बने दो घंटे के वीडियो को भी लाखों लोग देखते हैं। अगर चेतन भगत की किताबों को लाखों लोग पढ़ते हैं तो ‘क्लासी’ अमीश त्रिपाठी भी अंग्रेज़ी के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लोगों में एक हैं। अगर इंस्टा और यूट्यूब पर double मीनिंग कंटेट खूब देखा जाता है तो इसी दौर में पंचायत प्राइम वीडियो पर साल की सबसे ज़्यादा देखी जानी वाली सीरीज़ भी बनती है।

इसलिए शिकायत की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं है। न शिकायत मंच की है और न ही ऑडियंस की। असल सवाल ये ही कि आप जिस भी ऑडियंस के लिए, पाठक के लिए कंटेंट तैयार कर रहे हैं क्या आप वाकई उससे जुड़ रहे हैं? आप ऊबाऊ, घिसी पिटी, ज़बरदस्ती की बौधिकता से लदी बात को क्लासिक बताकर पेश करें और कोई न पढ़े तो ये नहीं कह सकते कि जनता का तो टेस्ट ही खराब है। ऐसा करके आप अपनी हीनता पर तो विजय पा जाएंगे, मगर उसका रचनात्मक हासिल कुछ नहीं होगा। इसलिए बिना किसी बात की परवाह किए अपना काम कीजिए। आपके काम में दम है, उसमें Conviction है तो वो अपना पाठक/दर्शक ढूंढ ही लेगा। इस बात की चर्चा एक पैसा भी कोई मायने नहीं रखती कि फलां बाज़ारू है। फलां हल्का है। हकीकत तो ये है कि गुणवत्ता के नाम पर जब हम बार-बार दूसरों की आलोचना कर रहे होते हैं तो इसके साथ ही हम ये भी स्थापित कर रहे होते हैं कि मैं जो कर रहा हूं वही शास्त्रीय है। अगर दूसरों की आलोचना के बहाने खुद को महान बताने का भाव है, तो ये भाव तो बुरा लिखने से भी ज़्यादा बुरा है। सामने वाला तो सिर्फ लेखक बुरा है, आप तो इंसान भी ओछे हैं।

मेरा मानना है कि अच्छा क्रिएटर हमेशा Timeless Audience को सम्बोधित कर रहा होता है। राजेश खन्ना अपने वक्त के सबसे बड़े सुपर स्टार थे। अपने वक्त के सबसे लोकप्रिय कलाकार थे। आज हम उनकी एक फिल्म ऐसी नहीं बता सकते जिन्हें हिंदुस्तान के इतिहास की बेहतरीन फिल्मों में रख पाएं। गुरुदत्त की ‘कागज़ के फूल’ अपने वक्त में फेल हो गई लेकिन जब भी भारत में बनी बेहतरीन फिल्मों को ज़िक्र होता है तो हम उसका ज़िक्र करना नहीं भूलते। Shawshank Redemption जब रिलीज़ हुई तो बॉक्स ऑफिस पर फेल हो गई थी। अंदाज़ अपना अपना भी अपने वक्त में नहीं चल पाई मगर आगे चलकर वो अपने जोनर में कल्ट क्लासिक बन गई। विन्सेंट वान गाग जी एक असफल और उन्मीद कलाकार माने गए। उन्होंने पागलखानों में वक्त बिताया। अपनी छाती में गोली मारकर आत्महत्या कर ली। और यही वाग अपनी मौत के बाद विश्व के महानतम चित्रकार बन गए। आज भी उनकी बनाई पेंटिंग लाखों करोड़ो डॉलर में बिकती हैं।

इसलिए भरोसा रखिए जो औसत है वो वक्त के साथ भुला दिया जाएगा और जो बेहतरीन है उसका वक्त आना बाकी है। मगर खुद को बेहतरीन मानते हुए दूसरों को औसत समझना बहुत हल्के लोगों का काम और एक सच्चा कलाकार कभी ऐसा कर ही नहीं सकता।

एक आखिरी किस्सा जिससे मैं ये बात ख़त्म करना चाहूंगा। इसकी सत्यता के बारे में तो नहीं जानता मगर इसका संदेश बहुत ज़रूरी है इसलिए शेयर कर रहा हूं। सुना है तानसेन जब अकबर के दरबार से जाने लगा तो अकबर ने उसके सामने एक शर्त रखी। अकबर ने कहा कि तानसेन तुम जाना चाहते हो तो जाओ, मगर मैं तुम्हें फिर बता दूं कि मैंने अपने जीवन में तुम्हारे जैसा कलाकार आज तक नहीं देखा। तुम्हारे जैसा संगीत किसी का नहीं सुना। मगर मेरी एक जिज्ञासा है कि तुम इतने प्रतिभासम्पन्न हो, इतने गुणी हो, तो वो शख्स कैसा होगा जिसने तुम्हें संगीत सिखाया था। मेरा तुमसे निवेदन है कि एक बार मुझे अपने गुरु के पास ले चलो। मैं उन्हें सुनना चाहता हूं।

इसके बाद तानसेन अकबर को अपने गुरु के पास ले गया। गुरु ने गाना शुरू किया। अकबर उन्हें सुनते ही मंत्रमुग्ध हो गया। वो घंटों तानसेन के गुरु को सुनता रहा। कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो अकबर ने तानसेन से पूछा कि तानसेन, एक बात बताओ। मैं तो तुम्हें इतना महान गायक समझता था। मगर तुम्हारे गुरु के सुनने के बाद मुझे लगता है कि तुम तो कुछ भी नहीं। आखिर इतने महान गुरु से सीखने के बाद भी तुम उनके स्तर के आसपास भी क्यों नहीं पहुंच पाए।

इस पर जो तानसेन का जवाब था मुझे लगता है वो हर एक कलाकार के जीवन का मूल मंत्र होना चाहिए। जीवन में याद रखे जाने लायक इकलौती बात।

तानसेन ने कहा, जनाब फर्क तो होगा ही। क्योंकि मैं गाता हूं ताकि मुझे गाने से कुछ मिल जाए। और मेरे गुरु के लिए गाना, गाना ही गाने का हासिल है। उन्हें अपने गाने से कुछ नहीं चाहिए। न नाम, न शोहरत, न पैसा। सिर्फ गाना। और ये फर्क उस सोच का है न कि संगीत का।

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