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2024 का चुनाव : सबसे ज़्यादा हिंसक और धांधली से होने की संभावनाओं से लैस

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सुब्रतो चटर्जी

इवीएम के ज़माने में चुनावी विश्लेषण बकैती के सिवा और कुछ नहीं है. मेन स्ट्रीम मीडिया भाजपा के पक्ष में माहौल बना रही है और यू-ट्यूब वाले विपक्ष, यानि कांग्रेस के पक्ष में. 2024 का चुनाव (?) भारत के इतिहास में सबसे ज़्यादा हिंसक और धांधली से होने की प्रचंड संभावनाओं से लैस है.

सवाल चुनावी जीत हार तक रहती तो बात समझ में आ जाती, लेकिन इस बार सवाल उससे कहीं आगे का है. दो विपरीत राजनीतिक धाराओं के बीच जंग के साथ साथ यह कुछ लोगों की व्यक्तिगत भविष्य से भी जुड़ गया है. कुछ ऐसे लोगों को चुनाव हारने के बाद जेल और फांसी तक का डर लग रहा है, इसलिए यह लड़ाई मूलतः अस्तित्ववादी बन गया है.

जो लोग पिछले 20 या 22 सालों से भारतीय राजनीति में छल, प्रपंच, हत्या, नरसंहार, अदालत मैनेजमेंट, नौकरशाही मैनेजमेंट, झूठे प्रचार और कॉरपोरेट दलाली के माध्यम से राजनीति के केंद्र में स्थापित हो गए हैं, उनके लिए यह डर स्वाभाविक है.

अगर वैश्विक आर्थिक शक्तियों की धाराओं को नज़दीक से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि क्रोनी पूंजीवाद और लिबरल लोकतंत्र के बीच की लड़ाई पिछले कुछ सालों में और धारदार हुई है. भारत के परिप्रेक्ष्य में यही लड़ाई आज राहुल बनाम मोदी के बीच दिख रही है.

अगर आपको लगता है कि इन हालात में सारे आर्थिक, वैधानिक और अन्य शक्तियों पर क़ाबिज़ मोदी इतनी आसानी से हार मान लेंगे तो आप मूर्खों की दुनिया में जी रहे हैं. स्थिति यह है कि राहुल गांधी को रोज़गार की गारंटी को कांग्रेस घोषणा पत्र में शामिल करने की नौबत आ गई है. विश्व के इतिहास में सोवियत संघ के सिवा और किसी भी देश में आज तक यह गारंटी नहीं दी जा सकी है.

जो संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार कांग्रेस फिर से राष्ट्रीयकरण के रास्ते पर लौट सकती है, जीत की स्थिति में. इसके सिवा trickle down economy के फेल हो चुके मॉडल में सबको रोज़गार मुहैया करने की बात दिवास्वप्न है.

उस तरफ़, पिछले दस सालों के मोदी युग में कॉरपोरेट, मीडिया, न्यायपालिका और कार्यपालिका का एक ऐसा nexus (गठजोड़) विधायिका के साथ स्थापित हो गया है, जिसे सिर्फ़ चुनावी जीत के सहारे नहीं तोड़ा जा सकता है. सत्ता परिवर्तन की लड़ाई कहां तक व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में ढल सकती है, इसका उदाहरण हमें जे पी आंदोलन के बाद आए जनता पार्टी की सरकार के रिकॉर्ड में दिख जाता है. Right to Recall कभी लागू नहीं किया गया था.

इस परिदृश्य में एक बात अच्छी हुई है और वह यह कि मोदी सत्ता ने भारत के तथाकथित लोकतंत्र की सारी विडंबनाओं को पूरी तरह से exposé कर ऐसा नंगा कर दिया है कि अब साधारण जनता को समूची व्यवस्था से मोहभंग बहुत हद तक हो चुका है.

कांग्रेस और अन्य दक्षिणपंथी विपक्षी दल इस सड़े गले सिस्टम में फिर से विश्वास पैदा करने की कोशिश में लगे हैं. कहां तक सफल होते हैं, यह देखने की बात है.

अंत में यही कहना उचित होगा कि फ़ासिस्ट सरकारें जनक्रांति के लिए लिबरल डेमोक्रेटिक सरकारों से बेहतर ज़मीन तैयार करतीं हैं, इसलिए संसदीय वाम अगर क्रांति के दूरगामी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो उनको दोनों पक्षों से समान दूरी बनाए रखने की ज़रूरत है.

संसदीय वाम का यह तर्क कि आज तात्कालिक ज़रूरत फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में संसदीय दक्षिणपंथी विपक्ष के साथ खड़े होना है तो यह मेरे गले से नहीं उतरता है.

1977 में इस लाईन का नतीजा हम देख चुके हैं. यूपीए 1, जब लेफ़्ट फ़्रंट ने मनमोहन सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस लिया, उसके बाद वे 64 सांसद से कितने पर 2009 में आ गए यह सबने देखा है.

मूल बात यह है कि आप संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं और न ही पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को पूंजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे का इंतज़ार हाथ पर हाथ रख धरे कर सकते हैं.

ऐतिहासिक परिस्थितियों को संघर्ष के ज़रिए बनाया भी जा सकता है, समय के हाथों छोड़ देना उसी तरह का भाग्यवाद है, जिसे तुलसी कहते हैं – होईं वही जो राम रचि राखा.

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