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बेअदबी की व्यथा और हिन्दू’धर्म की व्यवस्था

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(स्रोत : इनसाइड द हिन्दू मॉल)

      *~ दिव्यांशी मिश्रा*

      _बिहार के मिथिला क्षेत्र में ‘विद्यापति’ का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। इसकी वजह उनका ‘मैथिल कोकिल’ होना तो था ही साथ ही उनसे जुड़ी यह मान्यता भी बड़ी प्रचलित है कि भगवान शिव ने उनके घर में ‘उगना’ नाम से नौकर रूप में काम किया था।_

       जब हम इस कथा को सुनते हैं तो कई बार लगता है कि ऐसी कथाओं के द्वारा हिन्दू धर्म में ईश्वर का स्वरूप निम्न कर दिया गया है, उन्हें छोटा दिखाया गया है परंतु हमारे धर्म में मनुष्य और ईश्वर के बीच के संबंध ऐसे ही उदार भावों से परिभाषित हैं।

      _हिन्दू धर्म ये मानता है कि ईश्वर का हमारे साथ संबंध बिलकुल वैसा ही हो सकता है जैसा मनुष्य-मनुष्य के बीच होता है।_

      अवतारवाद की अवधारणा इसी उदात्त चिंतन के नतीजे में जन्मी है; जिसमें अवतार लेने वाला ईश्वर किसी का पुत्र भी है, किसी का भाई भी है, किसी का पति भी है, किसी का प्रेमी भी है और किसी का सखा भी है।

हम ईश्वर की आराधना करते हुए उसे अपनी माँ, अपना बाप, भाई, दोस्त, पुत्र या प्रेमी कुछ भी मान सकते हैं, उसे कुछ भी कह कर पुकार सकतें है और इसकी स्वतंत्रता हमें हमारे हिन्दू धर्म ने दी है।

    _इसके प्रमाण वेद और पुराण सब में हैं, यह हमारे दैनंदिन प्रार्थनाओं में भी अभिव्यक्त होती है।_

        एक सामान्य हिन्दू जो संस्कृत मंत्रों को नहीं जानता और जिसने वेद नहीं पढ़े वो ईश्वर के लिए गाता है:- “तुम ही माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बन्धु हो, सखा तुम्ही हो।”

      _जो थोड़ा-बहुत संस्कृत जानता है वो इसे इस तरह गाता हैं:- “त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव” और जो वेदों को जानने वाले हैं वो इसे ऐसे कहतें हैं :- त्वम् हि नः पिता वसो त्वम् माता शतक्रतो बभूविथ अधा ते सुम्नमीमहे (ऋग्वेद ,८/९८/११) अर्थात, “हे ईश्वर तू हम सबका सच्चा पिता है और तू ही माता है।”_

      वेद के मंत्रों में ईश्वर को मित्र कहकर भी पुकारा गया है। ऋषि कहते हैं- “न रिष्यते त्वावतः सखा ।।” अर्थात्, “हे ईश्वर ! आपका मित्र कभी नष्ट नहीं होता।”

भक्त कवि सूरदास ने अपने कई पदों में कृष्ण को “माँ” कहकर पुकारा है। रामकृष्ण परमहंस के बारे में कहा जाता है कि वो माँ काली की प्रतिमा के सामने एक नवजात शिशु सदृश आचरण करते थे।

    _द्वापर युग में गोपियों ने और कलयुग में मीराबाई ने कृष्ण को अपने प्रेमी और पति रूप में पूजा था तो यशोदा मैया और कौशल्या को भगवान को पुत्र रूप में पाने का सौभाग्य प्राप्त था। सुदामा, केवट, सुग्रीव और अर्जुन ने उसी भगवान में अपने मित्र को देखा तो शबरी अपने आराध्य राम को अपना जूठन खिलाने से भी नहीं हिचकी।_

     युधिष्ठिर के लिए भगवान छोटे भाई सदृश थे तो राजा बलि ने भगवान को अपने यहाँ पहरेदार बना कर रखा था। प्रजापति कर्दम और देवहूति की 9 कन्याओं में से एक तथा अत्रि मुनि की पत्नी सती अनुसूया के बारे में आता है कि उन्होंने अपने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को पुत्र बनाकर उन पर अपनी ममता न्योछावर की थी।

      _अब रोचक बात ये है कि आज तक किसी ने भी न तो सूरदास को कृष्ण को माँ कहने के लिए अज्ञानी कहा, न किसी ने विद्यापति के साथ जुड़े कथानक पर आपत्ति उठाई, न किसी ने रामकृष्ण परमहंस को पागल कहा, न मीराबाई को पत्थर मारे, न ही यशोदा, अनुसूया और कौशल्या से पूछा कि तू सबको बनाने वाले ईश्वर की माँ कैसे हो गई और न ही राजा बलि के बारे में कुछ गलत कहा गया।_

        हिन्दू धर्म में ईश्वर तक पहुँचने का जो तीसरा मार्ग बताया गया है, वो है “कर्म योग” और कर्मयोग का सिद्धांत कहता है कि मनुष्य को ईश्वर को पाने के लिए मठ-मंदिर की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है, मनुष्य अपने दैनिक जीवन में भी इसकी अनुभूति कर सकता है।

अपने दैनिक जीवन में इसकी अनुभूति के लिए आवश्यक था कि हमारा धर्म ईश्वर को लेकर उदात्त दर्शन, विचारों और मान्यताओं के अनुपालन की छूट दे और ईश्वर को उन तमाम रिश्तों से बांधने की अनुमति दे जो उसे ईश्वर के साथ सहज होने देगा।

     _हिन्दू धर्म ने “सर्वशक्तिमान” को किसी भी रूप में पूजने की स्वतंत्रता हमें दी है। हम ईश्वर के समक्ष दास रूप में भी प्रस्तुत हो सकते हैं और चाहे तो उसे अपना माँ-बाप और मित्र मानकर उसी भाव से सवाल-जवाब कर सकते हैं, उनसे शिकायत कर सकते हैं, कुछ मांग सकते हैं।_

        इतनी स्वाधीनता, इतनी उदारता ईश्वर को लेकर हमारे धर्म में है और इसलिए किसी भी काल में हिन्दू धर्म ने ये व्यवस्था नहीं दी कि किसी ईशनिंदा करने वाले को अथवा ईश्वर के किसी रूप को प्रचारित करने अथवा मानने वाले को सजा दी जाये।

   {चेतना विकास मिशन)

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