यूं तो भारत की न्यायपालिका सामंती गुंडों का सबसे बड़ा अड्डा है. यहां न्याय के नाम पर कमजोरों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के साथ जो मजाक किया जाता है, वह बेहद खौफनाक है. यही कारण है कि कोई भी सामान्य आदमी पुलिस-कोर्ट कानून के चक्कर में पड़ना नहीं चाहता और उससे घृणा करता है क्योंकि यह धन और श्रमशक्ति का न केवल अपार दुरुपयोग है अपितु न्याय मिलने की संभावना भी नगण्य रहता है. वैसे भी दशकों बाद मिली न्याय सिर्फ एक मजाक है.
वाबजूद इसके थोड़ी-बहुत न्याय की उम्मीद लोग सुप्रीम कोर्ट से लगाते हैं. आमतौर पर कमजोर तबकों की पहुंच से बहुत दूर सुप्रीम कोर्ट जाने में आमतौर पर लोग काफी हिम्मत और पोटली में धन जुटाकर जाते हैं, इसके बाद भी जब सुप्रीम कोर्ट याचिकाकर्ता पर ही जुर्माना लगाने का दुश्चेच्टा करता है और इसपर जब केवल एक प्रतिक्रिया हो सकती है वह है – आक-थू.
विगत दिनों कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई है जब सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की मांग करने के कारण आदिवासियों व मजबूरों पर बार-बार जुर्माना लगाया है, वह भी लाखों में. पुलिसिया हत्या और बलात्कार के खिलाफ जब न्याय की मांग करने छत्तीसगढ़ के आदिवासी, प्रसिद्ध गांधीवादी हिमांशु कुमार के साथ जैसे-तैसे सुप्रीम कोर्ट आये तो इस नकारा सुप्रीम कोर्ट ने न्याय देने के बजाय 5 लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया था.
हिमांशु कुमार ने किसी भी कीमत पर सुप्रीम कोर्ट की अय्याशी और रंगरेलियां मनाने के लिए 5 लाख रुपया देने से इंकार कर दिया. लेकिन मेरा निजी मानना है कि जुर्माना मांगने वाले न्याय की नौटंकीशाला सुप्रीम कोर्ट को 5 लाख सड़े हुए चप्पल-जूते भेंट करना चाहिए था. लेकिन चूंकि हिमांशु कुमार ने सड़े चप्पल-जूते भेंट नहीं किये इसलिए इस नौटंकीशाला सुप्रीम कोर्ट को जुर्माना लगाने की आदत लग गई है, इसलिए अब इसने एक बार फिर न्यायप्रिय आईपीएस, जो पिछले 2019 से जेल में बंद हैं, पर 3 लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया है, जिसे इस देश की न्यायप्रिय जनता ने अपने जेब से निकाल कर उसके मूंह पर दे मारा है.
कौन हैं संजीव भट्ट ?
यह मामला साल 1990 का है. उस वक्त संजीव भट्ट जामनगर में एडिशनल सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस के पद पर तैनात थे. बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी द्वारा निकाली गई रथ यात्रा के वक्त जमजोधपुर में संप्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने 150 लोगों को हिरासत में लिया. इनमें से एक शख्स प्रभुदास वैष्णानी की कथित टॉर्चर के कारण रिहा होने के बाद अस्पताल में मौत हो गई. इसके बाद आठ पुलिसवालों पर कस्टडी में मौत को लेकर मामला दर्ज किया गया, जिसमें भट्ट भी शामिल थे.
साम्प्रदायिक दंगाबाज से पहले गुजरात के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मोदी के मुखर विरोधी संजीव भट्ट 1985 में आईआईटी बॉम्बे से एम.टेक की डिग्री हासिल करने वाले 1988 बैच के आईपीएस अफसर हैं. कस्टोडियल डेथ के मामले के बाद साल 1996 में जब वह बनासकांठा जिले के एसपी थे, तब उन पर राजस्थान के एक वकील को फर्जी ड्रग्स मामले में फंसाने का आरोप लगा. साल 1998 में उन पर एक अन्य मामले में कस्टडी में टॉर्चर का आरोप लगा.
गुजरात दंगे से पहले संभाल चुके हैं मोदी की सुरक्षा
दिसंबर 1999 से सितंबर 2002 तक उन्होंने गांधीनगर स्थित स्टेट इंटेलिजेंस ब्यूरो में बतौर डिप्टी कमिश्नर ऑफ इंटेलिजेंस के तौर पर काम किया. उन पर गुजरात की आंतरिक, सीमा, तटीय और अहम प्रतिष्ठानों की सुरक्षा का जिम्मा था. इसके अलावा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सिक्योरिटी भी भट्ट के ही हाथों में थी. इसी दौरान फरवरी-मार्च 2002 के दौरान गोधरा में ट्रेन जला दी गई, जिसके बाद सांप्रदायिक दंगे भड़क गए. बताया जाता है कि इस घटना में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए.
9 सितंबर 2002 को मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कथित तौर पर बहुचराजी में एक भाषण में मुस्लिमों में उच्च जन्म दर पर सवाल उठाए. हालांकि मोदी ने ऐसे किसी भाषण से इनकार किया. इस पर नेशनल कमिशन फॉर माइनॉरिटीज (NCM) ने राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी. मोदी के तत्कालीन प्रिंसिपल सेक्रेटरी पीके मिश्रा ने बताया कि राज्य सरकार के पास उनके भाषण की कोई रिकॉर्डिंग नहीं है. लेकिन स्टेट इंटेलिजेंस ब्यूरो ने भाषण की एक कॉपी एनसीएम को सौंप दी. इसके बाद मोदी सरकार ने ब्यूरो के वरिष्ठ अफसरों का तबादला कर दिया. इन अफसरों में संजीव भट्ट भी शामिल थे. इसके बाद उन्हें स्टेट रिजर्व पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज का प्रिंसिपल बनाया गया.
गुजरात दंगों का सच देश और न्यायालय के सामने रखा था भट्ट ने
2002 दंगों के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह ने एक ट्रिब्यूनल का गठन किया. इस ट्रिब्यूनल को गुजरात के तत्कालीन गृह मंत्री हरेन पांड्या ने बताया कि गोधरा हादसे के बाद मुख्यमंत्री आवास पर नरेंद्र मोदी ने एक बैठक बुलाई थी. पांड्या के मुताबिक, इस बैठक में मोदी ने पुलिस अधिकारियों से कहा कि हिंदुओं को अपना गुस्सा उतारने का मौका देना चाहिए.
पांड्या के मुताबिक इस बैठक में शामिल पुलिस अफसरों में संजीव भट्ट भी थे. दंगों के 9 साल बाद 14 अप्रैल 2011 को भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और यही आरोप लगाए. उन्होंने गुजरात दंगों के लिए बनाई गई एसआईटी पर भी पक्षपात के आरोप लगाए.13 अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी पर भट्ट के आरोपों को बेबुनियाद करार दिया. लेकिन इससे पहले ही जून 2011 में गुजरात सरकार ने ड्यूटी से गैरहाजिर रहने, ड्यूटी पर न रहते हुए भी आधिकारिक कार का इस्तेमाल करने और जांच कमिटी के सामने पेश न होने को लेकर भट्ट को सस्पेंड कर दिया.
कैदियों के बीच बेहद लोकप्रिय थे भट्ट
साल 2003 में भट्ट को साबरमती सेंट्रल जेल का अधीक्षक बनाया गया. वह कैदियों के बीच खासे मशहूर रहे. इन्होंने जेल के खाने में गाजर का हलवा शामिल कराया. दो महीने बाद कैदियों से नजदीकियां बढ़ाने को लेकर उनका तबादला कर दिया गया. 14 नवंबर 2003 को करीब 2000 कैदी भूख हड़ताल पर चले गए. 6 कैदियों ने विरोध-प्रदर्शन करते हुए अपनी कलाई तक काट ली थी.
संजीव भट्ट मामले में अन्याय और जुर्माना सुप्रीम कोर्ट को बदनाम कर देगा – गांधीवादी विचारक हिमांशु कुमार
भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक हिमांशु कुमार ने संजीव भट्ट के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को एक पत्र लिखे हैं, जिसमें लिखते हुए कहते हैं –
‘हम भारत के नागरिक अपनी चिंता एक बहादुर अपनी अंतरात्मा की आवाज और जनता के हित के लिए काम करने के कारण सताये जा रहे पुलिस अधिकारी के विषय में व्यक्त कर रहे हैं. संजीव भट्ट ने एक पुलिस अधिकारी होने के नाते राजनीति और प्रशासन की गठजोड़ के कारण हजारों नागरिकों की सांप्रदायिक हिंसा में हत्या होने पर सत्य और न्याय के मार्ग को चुना और जनता के हित में न्यायालय के समक्ष सच बोला.
‘उन्हें सच बोलने की सजा के तौर पर नौकरी से हटाया गया, बर्खास्त कर दिया गया और फर्जी मामलों में उन्हें जेल में डाल दिया गया.
‘संजीव भट्ट पर अभी न्यायालय में आवेदन दाखिल करने के कारण 3 लाख का जुर्माना लगाया गया और उसके बाद निचली अदालत द्वारा 5000 का जुर्माना फिर से लगाया गया है. हम लोगों के पास यह जानकारी भी है कि उनके खिलाफ चलाए जा रहा है ट्रायल में अनेकों अनियमितताएं बरती जा रही हैं और नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है.
‘संजीव भट्ट के विषय में भारत की जनता सच्चाई जानती है और 3 लाख का न्यायालय का जुर्माना जनता ने अपनी जेब से जमा किया है. संजीव भट्ट के मामले में न्यायालय की साख उसकी इज्जत उसका इकबाल दांव पर लगा हुआ है.
‘यदि संजीव भट्ट को उन पर लगाए गए फर्जी इल्जामों में सजा बरकरार रखी जाती है, नई सजा सुना दी जाती है और उनको इसी प्रकार सताया जाता है तो भारत की अदालतें भारत की जनता के दिलों से अपनी साख खो देंगी.
‘हम भारत की सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होने के नाते आपके समक्ष यह प्रार्थना कर रहे हैं कि कृपया आप इसमें संज्ञान लेकर उनके सभी मामलों को अपनी देखरेख में व्यक्तिगत तौर पर देखें और संजीव भट्ट को सभी फर्जी मामलों से तुरंत बड़ी करते हुए उन्हें रिहा करने की कार्रवाई करें.’
जुर्मानाखोर नकारा सुप्रीम कोर्ट की असलियत
न्याय का ढोंग करते इस नकारे सुप्रीम कोर्ट का जनविरोधी भयानक चेहरा इस कदर उजागर हो गया है कि अब देश की आम जनता ने भी गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. किसानों के वर्ष भर चले आंदोलन को रोकने, विखंडित करने, बदनाम करने का हर संभव प्रयास सुप्रीम कोर्ट ने किया था. इतना ही नहीं, इसी सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार के नोटबंदी जैसे जनविरोधी फैसलों को न केवल जायज ठहरा दिया बल्कि कोरोना के नाम पर मोदी के लॉकडाऊन जैसे तुगलकी फरमान से सड़कों पर करोड़ों भटकते लोग और करोड़ों मरे हुए लोगों की लाश को भी जायज ठहरा दिया.
देश के मेहनतकश जनता के खून पसीने की हजारों करोड़ रुपये कमाई पर गुलछर्रा उड़ाने वाले न्यायपालिका और उसका मुख्य ढांचा सुप्रीम कोर्ट आखिर करता क्या है ? तो जवाब है वह अपने जैसों की आम जनता के आक्रोश से हिफाजत करता है. इस नकारा भ्रष्ट शासन व्यवस्था की रक्षा करता है, यानी वह –
- भ्रष्टाचारियों की बचाता है.
- बलात्कारियों के बलात्कार को पवित्र बताता है.
- आम लोगों के हत्यारों को देवत्व प्रदान करता है.
- टेनी जैसे दरिंदों को महान बनाता है.
- अंबानियों के निजी मामलों में पंचायत करता है.
- दंगाबाज मोदी एंड कंपनी को पाक साफ साबित करता है.
- सवाल करने वाले फादर स्टेन स्वामी की हत्या करता है.
- हिमांशु कुमार, संजीव भट्ट, प्रशांत भूषण जैसों पर जुर्माना लगाता है.
- आदिवासियों को उसके जमीन से बेदखल करता है.
- जल-जंगल-जमीन की बात करने वाले लोगों के हत्या करने का आदेश देता है.
- आंदोलनकारियों को आंदोलन करने से रोकता है.
इसी तरह के तमाम कामों में भारत की यह ब्राह्मणवादी सुप्रीम कोर्ट दिन-रात व्यस्त रहता है, जिसके एवज में वह देश की मेहनतकश जनता के खून-पसीने की कमाई को दोनों हाथों से बटोर कर गुलछर्रा उड़ाता है, भाजपाई नेताओं के गाड़ियों की सवारी करता है.
विकल्प क्या है ?
सवाल है जब भारत की पूरी न्याय व्यवस्था उपर से नीचे तक बुरी तरह सड़ चुकी है, तब क्या किया जाये ? जवाब है इसे पूरी तरह ध्वस्त कर ‘जनताना सरकार‘ का गठन कर जनता की अपनी ‘जनताना अदालत’ कायम करनी चाहिए. यह जनताना अदालत न केवल सचमुच का न्याय देती है, अपितु बहुत ही जल्दी न्याय देती है.
जनताना सरकार का ‘न्याय विभाग’ कहता है –
- लोगों की अदालतें न्याय, वर्ग रेखा और जन रेखा के नए सिद्धांतों के अनुसार काम करेंगी.
- न्यायिक विभाग लोगों के बीच समस्याओं का समाधान करेगा ताकि उनकी अखंडता को बढ़ाया जा सके. आम तौर पर यह उन्हें हल करने के लिए दंडित नहीं करता है. जब यह जमींदारों, पदानुक्रमों, शासक वर्ग दलों के प्रमुखों, सरकारी अधिकारियों, पुलिस, अर्धसैनिक, सैन्य बलों, गुंडों, अराजकतावादियों, चोरों, धोखेबाजों, षड्यंत्रकारियों, पुलिस एजेंटों और अन्य का शोषण करने की कोशिश करता है, तो यह उन्हें लोगों से अलग करता है और उन्हें दंडित करता है. उनकी संपत्तियों की जब्ती सहित आवश्यक तरीका.
- यह अपराधों से बचने में लोगों की भूमिका बढ़ाने के तरीकों का अनुसरण करता है.
- यह काउंटर क्रांतिकारी अपराधों में लिप्त लोगों को मौत की सजा देता है.
- मौत की सजा को लागू करने से पहले स्थानीय जनताना सरकार को उच्च न्यायालयों से अनुमति लेनी पड़ती है.
- काउंटर क्रांतिकारी अपराधों को छोड़कर, यह हत्या, हत्या के प्रयास, महिलाओं पर अत्याचार, शोषक पुलिस और ऐसी अन्य चीजों की सूचना देने वालों को श्रमिक शिविरों में भेजेगा.
- इन कैंपों में उनसे मजदूरी कराई जाती है, उन्हें क्रांतिकारी राजनीति सिखाई जाती है और सुधार किया जाता है.
- यह विवादों, अपराधों और षड्यंत्रों पर फैसला सुनाकर लोगों की न्यायिक प्रणाली को विकसित करने में मदद करेगा.
- फैसला सुनाते समय यह प्रथागत परंपराओं को भी ध्यान में रखेगा.
- न्यायाधीशों की संख्या मामलों की प्रकृति और तीव्रता के अनुसार होनी चाहिए.
- न्यायिक समिति सामान्य मामलों को हल करती है. गंभीर मामलों में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाकर नौ की जा सकती है.
- आदिवासी समाज में लोगों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए अभी भी कुछ मंच हैं. समस्या की तीव्रता और चरित्र के अनुसार उन्हें सामने लाया जाता है. लोक अदालत को इसे ध्यान में रखना चाहिए. लोक अदालतें इन मंचों को लोकोन्मुखी बनाने और लोगों के बीच ईमानदारी के लिए काम करने के लिए विकसित करने का प्रयास करेंगी.
- जो भी मामला या विवाद हो, वह पहले से मामले से संबंधित जानकारी एकत्र करेगा, मुकदमे के दौरान दोनों पक्षों की दलीलें सुनेगा, सबूतों को पूरी तरह से सुनेगा और फिर फैसला सुनाएगा.
- आम तौर पर मुकदमा खुला रहता है और लोग अपनी राय खुलकर बता सकते हैं. इस प्रकार न्यायिक प्रणाली में उनकी भूमिका बढ़ेगी.
- प्रत्येक मामले में न्यायाधीशों के बीच मतदान होना चाहिए और बहुमत की राय के अनुसार फैसला दिया जाना चाहिए.
- इसे मामूली बहुमत से भी दिया जा सकता है लेकिन गंभीर मामलों में फैसले में 2/3 बहुमत होना चाहिए.
- न्यायिक विभागीय समिति के अध्यक्ष या मुकदमे की अध्यक्षता करने वाले न्यायाधीश फैसले की घोषणा करेंगे. उन्हें आवश्यक स्पष्टीकरण देना होगा.
- जो लोग स्थानीय न्यायिक समिति के फैसले से संतुष्ट नहीं हैं, वे क्षेत्रीय अदालत और उससे भी ऊपर की अदालत में अपील कर सकते हैं.
- सभी नागरिकों के मौलिक और सामान्य अधिकार होंगे.
- किसी भी नागरिक को उचित कानूनी आधार के बिना गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए.
- नागरिकों को गिरफ्तारी को लोकतांत्रिक कानूनी पद्धति में की गई उचित कार्रवाई के रूप में मानना चाहिए, अन्यथा वे गिरफ्तारी वारंट को चुनौती दे सकते हैं.
- लोगों की न्यायिक समिति मामलों की सुनवाई में अन्य विभागों, मुख्य रूप से रक्षा समिति की मदद लेगी.
- यदि पार्टी कमेटी या पीजीए बलों के सदस्य लोगों के साथ व्यवहार करने में गलती करते हैं तो उन्हें संबंधित पार्टी कमेटी की अनुमति से लोगों की अदालत में बुलाया जाएगा.
- जनता की अदालतें जनता की सेना में सैनिकों, शहीदों और घायलों के परिवारों के बारे में और पार्टी में भर्ती होने वालों के ‘पति-पत्नी’ के बारे में व्यापक और गहन अध्ययन करेंगी और फैसला सुनाएंगी.
ऐसी है ‘जनताना सरकार’ की न्याय व्यवस्था. यह बेहद जरूरी है कि मौजूदा दौर में जनताना सरकार के अधीन न्याय व्यवस्था को लागू करने के लिए देश की तमाम मेहनतकश जनता एकजुट होकर संघर्ष करें ताकि हम और हमारी अगली पीढ़ी इस सड़ांध व्यवस्था से इतर साफ सुथरी हवा में सांस ले सके.
‘प्रतिभा एक डायरी’ से साभार