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भाजपा और संघ का नजरिया कई विरोधाभासों से भरा, गोडसे की छिपकर पूजा और गांधी को सार्वजनिक सलामी

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प्रो. प्रभात पटनायक का साक्षात्कार

भाजपा और संघ परिवार का सामाजिक-राजनीतिक नजरिया कई विरोधाभासों से भरा पड़ा है। धर्मनिरपेक्षता की बातें करने के साथ-साथ यह लगातार गांधी के साथ-साथ सावरकर और गोडसे जैसी हस्तियों की पूजा करने के असंभव प्रयास में संलिप्त होते हैं। जेएनयू में समाज विज्ञान के प्रोफेसर रह चुके प्रभात पटनायक, मानव विज्ञान के प्रोफेसर सुभोरंजन दासगुप्ता के साथ बातचीत में इन्हीं बेमेल विसंगतियों को समझने की कोशिश करते हैं।

प्रश्न: जब नरेंद्र मोदी विदेशों- जैसे जापान, अमेरिका- में होते हैं, तो गांधी की प्रतिमा के सामने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। वहीं, बिहार में उनके वरिष्ठ मंत्री गिरिराज सिंह गोडसे को ‘देशभक्त’’ और ‘भारत का महान सपूत’ करार देते हैं। मोदी विरोध नहीं करते। इस दोमुंहेपन को आप कैसे देखेंगे?

पटनायक: कई लोगों को हो सकता है पता न हो आरएसएस ने मिठाई बांटकर गांधीजी की हत्या का जश्न मनाया था और यह भी कि नाथूराम गोडसे ने, उनके भाई की गवाही के अनुसार, कभी आरएसएस छोड़ी नहीं थी, उनका कार्य आरएसएस के रवैये के अनुरूप ही था। यह रवैया भाजपा में भी दिखता है जो बुनियादी तौर पर हमारे स्वाधीनता संग्राम के धर्मनिरपेक्ष एजेंडे और खासकर गांधी के विपरीत है जिन्होंने लगातार सांप्रदायिक सद्भावना बनाए रखने के लिए काम किया। (आरएसएस और भाजपा यह आरोप खारिज करती रही हैं।)

इसलिए, गिरिराज सिंह-प्रज्ञा ठाकुर का गोडसे का गुणगान करने वाला रुख आरएसएस और मूल भाजपा की वास्तविक सोच को दर्शाता है, गैर-आरएसएस तत्वों को छोड़कर जिन्होंने अवसरवादी कारणों से भाजपा का दामन थामा है और जिनमें गांधीजी के प्रति आरएसएस की हद तक घृणा नहीं है। लेकिन मूल भाजपा में गोडसे को महिमामंडित करने पर कोई दो-राय नहीं है, हालांकि ‘दोमुंहापन’ जरूर है, जो आम लोगों में गांधीजी की लोकप्रियता के कारण मजबूरी वश है।

गांधीजी को श्रद्धासुमन अर्पित करते समय भाजपा और नरेंद्र मोदी अवसरवादी तरीके से लोकप्रिय मूड का अनुग्रह प्राप्त करने की कोशिश करते हैं अपनी वास्तविक विचारधारा को छिपाते हुए जो कि पूरी तरह से अलग है। इस अवसरवाद की पराकाष्ठा तब हुई थी जब उसने अपनी विचारधारा को कुछ समय के लिए ‘गांधीवादी समाजवाद’ की संज्ञा दी जबकि न तो वह गांधीवादी थे और न समाजवादी। मजे की बात यह है कि जब उन्होंने यह टैग त्यागा तो उसके अंदर कोई संघर्ष या नाराजगी वाले इस्तीफे नहीं हुए, क्योंकि वैसे भी किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था।

इसी अवसरवादी कारण से भाजपा नेताजी को भी हथिया लेने की कोशिश करती है जो कि अपनी धर्मनिरपेक्ष कटिबद्धता और सांप्रदायिकता के प्रति घृणा के लिए जाने जाते हैं।

प्रश्न: एक और उदाहरण। नई संसद का उद्घाटन करने के बाद, 15 मिनट के दौरान मोदी ने गांधी और सावरकर दोनों की सराहना की, एक शहीद और दूसरा उनकी (गांधी की) हत्या का आरोपी (सावरकर बाद में प्रमाण के अभाव में बरी किए गए)। दोनों का व्यक्तित्व एक दूसरे से काफी अलग था। क्या यह संभव है कि इस विरोधाभास की खाई को पाटा जा सके?

पटनायक: यह उसी ‘दोमुंहेपन’ का उदाहरण है। उनके असली आइकन सावरकर ही हैं, पर वह गांधी को पूजने पर मजबूर हैं। संयोग से, सावरकर का पोर्ट्रेट संसद में वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते लगाया गया था, जो उनके प्रति भाजपा के प्रेम की व्यापकता दिखाता है और उसी तर्ज पर उनका गांधी पूजा का पारंपरिक खोखलापन भी दर्शाता है। सावरकर गांधी मुकदमे में प्रमाण के अभाव में बरी हो गए थे, लेकिन यह तथ्य कि ‘सावरकर के आसपास के समूह’ ने हत्या को अंजाम दिया, संदेह से परे है, जैसा उस समय गृहमंत्री सरदार पटेल ने भी कहा था।

मुझे लगता है कि अंडमान जेल से सावरकर की औपनिवेशिक सरकार से ‘माफीनामों’ को लेकर आलोचना नहीं करनी चाहिए। अमानवीय जेल हालात से टूट जाने में बुराई नहीं है जब तक कि कोई अपने साथियों से गद्दारी न करे। इसी तरह, माफीनामों के बावजूद उनकी प्रशंसा भी नहीं की जानी चाहिए। अमानवीय जेल हालात से टूट जाने में कोई महानता भी नहीं है।

दरअसल, भाजपा की उनकी सराहना में भी ‘दोमुंहापन’ छिपा है। उनके सावरकर की प्रशंसा का वास्तविक कारण उनका हिन्दुत्व का प्रचार-प्रसार है, हालांकि वह कारण उनके शुरुआती साम्राज्यवाद विरोधी रुख को बताते हैं, जो हिन्दुत्व की तरफ मुड़ते ही त्याग दिया था।

प्रश्न: भारत की धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद पर अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए, मोदी पंडित नेहरू का लहजा उधार लेते हैं। यहां, उनकी पार्टी और संघ परिवार नेहरू को जनता की याददाश्त से मिटाने पर तुली हैं। यह दोनों कब तक चलेंगे?

पटनायक: फासीवादी दलों के पास कोई सिद्धांत नहीं होता। उनके पास पूर्वाग्रह होता है लेकिन कोई सैद्धांतिक विश्वासों का सुसंगत आधार नहीं होता। वह भी जानते हैं कि हर जगह पूर्वाग्रहों का प्रदर्शन नहीं किया जा सकता इसलिए वह जब भी दुनिया के सामने कुछ ‘सम्मानजनक’ प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है, दूसरों के सैद्धांतिक धारणाओं का तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल करते हैं।

पर चूंकि यह तोड़-मरोड़ ही होती है, इसलिए स्थान बदलते ही इसका स्रोत बदल जाता है। अमेरिकी संसद में और भारत की धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद के विषय पर जवाहर लाल नेहरू एक आदर्श स्रोत हैं और मोदी के उनके प्रति गहरे पूर्वाग्रह के बावजूद उनका हवाला दिया जाता है।

पर यह कुछ और भी दर्शाता है, मोदी के सार्वजनिक कथनों के पीछे गंभीरता का नितांत अभाव। इन कथनों का एकमात्र उद्देश्य उस पल में महानता का प्रभाव छोड़ने के लिए वैसा कुछ भी कहना और फिर अगले पल भूल जाना होता है जब दर्शक बदल चुके हों।

नेहरू के दर्शन से उधार लेना और उस दर्शन को नकारना अनंत काल तक चल सकता है लेकिन यहां भी यह भूलना नहीं चाहिए कि नेहरू का नकार वास्तविक है, जबकि नेहरू के दर्शन से उधार लेना नाटक, एक खास मौके पर खास दर्शक वर्ग को प्रभावित करने के लिए अपनाया हुआ पोज़।

प्रश्न: नरेंद्र मोदी ने खुद कर्नाटक में बजरंग दल का समर्थन करते हुए विषैला, ध्रुवीकरण करने वाला चुनाव प्रचार किया। गौ रक्षकों ने उसी बजरंग दल के सरंक्षण में पिछले कुछ महीनों में पांच मुस्लिम पशु व्यापारियों की कथित रूप से हत्या की है। इस सबके बाद, प्रधानमंत्री विदेशों में अपने प्रशासन को ‘दृढ़ धर्मनिरपेक्ष’ करार देते हैं। तब क्या हम माकपा नेता सीताराम येचुरी की इस टिप्पणी को सही नहीं मानें कि ‘मोदी विदेशों में गांधी की और देश में गोडसे की पूजा करते हैं’।

पटनायक: मैं इसे दूसरी तरह कहना चाहूंगा। मोदी छिपे तौर पर देश में भी और विदेश में भी गोडसे को ही पूजते हैं लेकिन अक्सर विदेश में और कभी-कभी देश में गांधी की मौखिक प्रशंसा करते हैं। लेकिन इसका एक और काबिले-गौर पहलू है। कुछ मूल मान्यताओं जो और कुछ नहीं बल्कि पूर्वाग्रह हैं, को मानने और बढ़िया पोज़ देने की विशेषज्ञता को छोड़कर मोदी हिन्दुत्व समर्थकों की सेना को नियंत्रित और अनुशासित करने में अक्षम लगते हैं।

यह जाने-पहचाने फासीवाद से अलग है। उदाहरण के लिए जर्मनी में नाजी पार्टी के गठन करने वाले रोहम और एसए के खिलाफ जर्मन सैन्य स्टाफ की मांग पर सफाई अभियान चलाया गया था; दूसरे शब्दों में जहां तक फासीवादी आंदोलन के अनुयायियों का मामला था, गुंडागर्दी में मनमानी करने की अनुमति नहीं थी।

भारत में, इसके विपरीत, खुलेआम कानून का उल्लंघन करने के आरोपी मोनू मानेसर, कपिल मिश्र या ब्रजभूषण जैसों के खिलाफ कार्यवाही करने में इच्छा की स्पष्ट कमी है सिर्फ इसलिए नहीं कि वह हिन्दुत्व समर्थक हैं (यह तो दंड मुक्ति के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है), लेकिन क्योंकि किसी की गंदगी में हाथ डालना, जो हिन्दुत्व समर्थकों के एक वर्ग में अनिवार्य रूप से आलोकप्रियता पैदा करेगा, मोदी की इन सबसे ऊपर की बनाई हुई महान छवि के खिलाफ जाता है।

यही ज्वलंत मुद्दों पर मोदी की चुप्पी को भी रेखांकित करता है और साथ ही इसका यह मतलब भी है कि समुचित रोजमर्रा प्रशासन जैसी कोई चीज नहीं है, उसके बजाय स्थानीय हिन्दुत्व ‘सरदारों’ की सेना फल-फूल रही है।

प्रश्न: प्रधानमंत्री विपक्षी इंडिया गठजोड़ के खिलाफ बार-बार गांधी के भारत की स्वतंत्रता के लिए किए आह्वान- ‘भारत छोड़ो’ दोहरा रहे हैं। गांधी के अविस्मरणीय नारों पर निर्भरता हमें संघ परिवार की भारत के स्वाधीनता संग्राम में भूमिका पर बात करने को उकसाती है। आप इस भूमिका को क्या कहेंगे, ‘संदिग्ध’, ‘गद्दारी की’ या ‘कुटिल’?

पटनायक: मैं आरएसएस की भूमिका को ‘अड़ंगेकारी’ या बाधा डालने वाली करार दूंगा। वह औपनिवेशिक प्रशासन के साथ रहा और जब पूरा देश औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष में शामिल था, इसका काडर पूरी सावधानी बरतते हुए इससे दूर रहा। जब 1939 में भारत को लोगों की सहमति लिए बिना युद्ध में घसीटे जाने के विरोध में प्रांतीय कांग्रेसी सरकारों ने इस्तीफा दिया, हिन्दू महासभा, भाजपा की विचारधारात्मक पूर्वज, मुस्लिम लीग से साझेदारी में तीन प्रांतों- बंगाल, सिंध और एनडब्ल्यूएफपी में सरकार में बनी रही और जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया गया, हिन्दुत्व आइकॉन श्याम प्रसाद मुखर्जी, बंगाल में एक मंत्री, ने बंगाल के गवर्नर को पत्र लिखकर इसका विरोध किया था।

हिन्दुत्ववादी औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष के इतने खिलाफ थे कि आजादी के समय भी आरएसएस प्रमुख एमएस गोलवलकर ने भविष्यवाणी की थी कि उस संघर्ष का नेतृत्व स्वतंत्र भारत को संभाल नहीं पाएगा और अंग्रेजों को वापस बुलाना पड़ेगा। इसी संदर्भ में यह विडंबना ही है कि आरएसएस ने अब ‘राष्ट्रवाद’ की कमान संभाल ली है और अपने आलोचकों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ कहता है- जबकि भारतीय राष्ट्र औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष के जरिए बना जिसमें आरएसएस ने कभी हिस्सा नहीं लिया। इसके संस्थापक केएम हेडगेवार खिलाफत वर्षों के दौरान कांग्रेसी थे लेकिन हिन्दुत्व के पाले में आने के बाद सब नाता तोड़ दिया। वास्तव में हिन्दुत्व उपनिवेश विरोधी तरफदारी का नकार था।

इसमें संदेह नहीं कि इसके समर्थक दावा करेंगे कि वह ‘हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ में विश्वास करते हैं। लेकिन दो बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी है। पहला, यह समावेशी औपनिवेशिक विरोधी राष्ट्रवाद के खिलाफ है जिस पर कि हमारे राष्ट्र की स्थापना हुई है और यह लंबे और कड़े संघर्ष के बाद बने राष्ट्र को तबाह कर देगा; दूसरा धर्म ‘राष्ट्रवाद’ का आधार नहीं बन सकता जैसा कि विभाजन के बाद बने  पाकिस्तान ने दिखा दिया है।

(टेलीग्राफ से साभार, अनुवाद- महेश राजपूत)

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