डॉ. विकास मानव
होली में पुराण कथा एक आवरण है, जिसमें लपेटकर मनोविज्ञान की घुट्टी पिलाई गई है। सभ्य मनुष्य के मन पर नैतिकता का इतना बोझ होता है कि उसका रेचन करना जरूरी है, अन्यथा वह पागल हो जाएगा। इसी को ध्यान में रखते हुए होली के नाम पर रेचन की सहूलियत दी गई है। पुराणों में इसके बारे में जो कहानी है, उसकी कई गहरी परतें हैं।
हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद कभी हुए या नहीं, इससे प्रयोजन नहीं है। लेकिन पुराण में जिस तरफ इशारा है, आस्तिक और नास्तिक का संघर्ष- वह रोज होता है, प्रतिपल होता है।
पुराण इतिहास नहीं है, वह मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित सत्य है। इसमें आस्तिकता और नास्तिकता का संघर्ष है, पिता और पुत्र का, कल और आज का, शुभ और अशुभ का संघर्ष है।
होली की कहानी का प्रतीक देखें तो हिरण्यकश्यप पिता है। पिता बीज है, पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्यप जैसी दुष्टात्मा को पता नहीं कि मेरे घर आस्तिक पैदा होगा, मेरे प्राणों से आस्तिकता जन्मेगी। इसका विरोधाभास देखें। इधर नास्तिकता के घर आस्तिकता प्रकट हुई और हिरण्यकश्यप घबड़ा गया। जीवन की मान्यताएं, जीवन की धारणाएं दांव पर लग गईं।
‘हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है। और ऐसा बाप और बेटे का ही सवाल नहीं है -हर ‘आज’ ‘बीते कल’ के खिलाफ बगावत है। वर्तमान अतीत से छुटकारे की चेष्टा करता है।
अतीत पिता है, वर्तमान पुत्र है। हिरण्यकश्यप मनुष्य के बाहर नहीं है, न ही प्रहलाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद दो नहीं हैं – प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटने वाली दो घटनाएं हैं।
जब तक मन में संदेह है, हिरण्यकश्यप मौजूद है। तब तक अपने भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे- लेकिन तुम जला न पाओगे। जहां संदेह के राजपथ हैं; वहां भीड़ साथ है। जहां श्रद्धा की पगडंडियां हैं; वहां तुम एकदम अकेले हो जाते हो, एकाकी।
संदेह की क्षमता सिर्फ विध्वंस की है, सृजन की नहीं है। संदेह मिटा सकता है, बना नहीं सकता। संदेह के पास सृजनात्मक ऊर्जा नहीं है।
आस्तिकता और श्रद्धा कितनी ही छोटी क्यों न हो, शक्तिशाली होती है! प्रह्लाद के भक्ति गीत हिरण्यकश्यप को बहुत बेचैन करने लगे होंगे।
उसे एकबारगी वही सूझा जो सूझता है- नकार, मिटा देने की इच्छा। नास्तिकता विध्वंसात्मक है, उसकी सहोदर है आग। इसलिए हिरण्यकश्यप की बहन है अग्नि, होलिका। लेकिन अग्नि सिर्फ अशुभ को जला सकती है, शुद्ध तो उसमें से कुंदन की तरह निखरकर बाहर आता है। इसीलिए आग की गोद में बैठा प्रह्लाद अनजला बच गया।
उस परम विजय के दिन को हमने अपनी जीवन शैली में उत्सव की तरह शामिल कर लिया। फिर जन सामान्य ने उसमें रंगों की बौछार जोड़ दी।
बड़ा सतरंगी उत्सव है। पहले अग्नि में मन का कचरा जलाओ, उसके बाद प्रेम रंग की बरसात करो। यह होली का मूल स्वरूप था। इसके पीछे मनोविज्ञान है अचेतन मन की सफाई करना। इस सफाई को पाश्चात्य मनोविज्ञान में कैथार्सिस या रेचन कहते हैं।
साइकोथेरेपी का अनिवार्य हिस्सा होता है मन में छिपी गंदगी की सफाई। उसके बाद ही भीतर प्रवेश हो सकता है। ओशो ने अपनी ध्यान विधियां इसी की बुनियाद पर बनाई हैं।
होली जैसे वैज्ञानिक पर्व का हम थोड़ी बुद्धिमानी से उपयोग कर सकें तो इस एक दिन में बरसों की सफाई हो सकती है। फिर निर्मल मन के पात्र में, सद्दवों की सुगंध में घोलकर रंग खेलें तो होली वैसी होगी जैसी मीराबाई ने खेली थी :
बिन करताल पखावज बाजै,
अनहद की झनकार रे
फागुन के दिन चार रे,
होली खेल मना रे
बिन सुर राग छत्तीसों गावै,
रोम-रोम रस कार रे
होली खेल मना रे।।
(चेतना विकास मिशन)