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अमेरिकी कृषि व्यापार नीति की सबसे बड़ी चूक, रूस ने बदल दिया दुनिया के अनाज कारोबार का रिवाज

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ऑस्ट्रेलिया में इस साल किसान सूखी जमीन में गेहूं बोएंगे। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं निर्यातक अपनी सबसे बड़ी फसल पर अल-नीनो वाले सूखे के असर के लिए तैयार हो रहा है। भारत में चुनाव के कारण मुफ्त अनाज बांटने का ऐलान किए बैठी सरकार को पता नहीं है कि इस साल किसान उसे पर्याप्त अनाज बेचेंगे या नहीं। रबी पर अल-नीनो की काली छाया पड़ चुकी है। उपज कम होने का खतरा है। भारत में गेहूं का सरकारी भंडार सात साल के न्यूनतम स्तर पर है। एक साल से ज्यादा हो गया, मगर भारत में अनाज की महंगाई कम नहीं हुई। भारत ने गेहूं और चावल का निर्यात रोक दिया, मगर खौलती कीमतें ठंडी नहीं पड़ी हैं। दुनिया के खाद्य बाजार में अफरा-तफरी मची है। बाजार को लगता है कि भारत को गेहूं का आयात शुरू करना पड़ सकता है।

यूं तो यह दौर चरम शीत युद्ध का था, मगर अमेरिका और रूस के बीच कारोबारी रिश्तों की गर्मी देखते ही बनती थी। 1970 के दशक में रूस में गेहूं की फसल बुरी तरह चौपट हो चुकी थी। अमेरिका जानता था कि रूस को अनाज चाहिए, मगर इसी मुकाम से शुरू होती है अमेरिकी कृषि व्यापार नीति की सबसे बड़ी चूक, जिससे रूस को वह करने का मौका मिला, जिसने दुनिया में अनाज कारोबार के रिवाज ही बदल दिए।

1803 से लेकर 1972 तक गेहूं की कीमतों में इतिहास में कहीं किसी भी बड़ी तेजी का जिक्र नहीं है। बीसवीं सदी के सातवें दशक की शुरुआत तक महंगाई में गेहूं का योगदान नगण्य था, पर 1970 के दशक में अचानक पूरी दुनिया में अफरा-तफरी मच गई।
आइए टाइम मशीन तैयार है…पकड़िए अपनी सीट।
मनी हेइस्ट यानी बैंक लूट तो सुनी होगी, आइए गेहूं की एक अनोखी लूट से मिलते हैं, जो रूस ने की थी। उसके बाद गेहूं का बाजार ही बदल गया।
हम 1970 के दशक में है।

दूसरे विश्व युद्ध को तीस साल बीत चुके थे। अमेरिका अब दुनिया में कृषि उत्पादन की बड़ी ताकत बन गया था। गरीबों को फूड स्टांप कार्यक्रमों के जरिये सस्ता अनाज दिया जा रहा है। दूसरी बड़ी लड़ाई में अपना दबदबा स्थापित करने के बाद अमेरिका उदारता और मदद के सहारे कूटनीतिक प्रभाव बना रहा था। 1954 में फूड फॉर पीस कार्यक्रम आया, जिसके तहत जरूरतमंद देशों को खाद्य सहायता दी जा रही थी।

यह वही अमेरिका था, जो दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत तक कुपोषण और अनाज की कमी से जूझ रहा था। लिजी कॉलिंघम अपनी मूल्यवान किताब  ‘द टेस्ट ऑफ वार – वर्ल्ड वार टू एंड बैटल फॉर फूड’ में लिखती हैं कि दूसरी बड़ी जंग के दौरान अमेरिका में सेना के लिए सेहतमंद लोग मिलना मुश्किल थे। प्रत्येक पांच में दो पुरुष फौज में भर्ती से नकार दिए जाते थे, क्योंकि वे कुपोषित थे।

1930 की महामंदी के बाद हुए कृषि सुधारों ने अमेरिका की खेती को संकट से समृद्धि में बदल दिया था। किसानों को मूल्य समर्थन और सब्सिडी दी गई थी, जिसका फायदा भरपूर फसलों के तौर पर पककर सामने आने लगा था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद नई तकनीकों से खेती के उत्पादन में और तेजी आई और अनाज के कोठार भरने लगे।
यूं तो यह दौर चरम शीत युद्ध था, मगर अमेरिका और रूस के बीच कारोबारी रिश्तों की गर्मी देखते ही बनती थी।

1971 में अमेरिका रूस को गेहूं का निर्यात करता था। यह सौदे बहुराष्ट्रीय अनाज कंपनियों के जरिये किए जाते थे। 70 के दशक की शुरुआत में डॉलर कमजोर हो रहा था। गोल्ड स्टैंडर्ड समाप्त हो गया था। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन बुरी तरह परेशान थे। अमेरिका का निर्यात यूरोप और जापान से मात खा रहा था। अमेरिका की सरकार विदेश व्यापार का चेहरा ठीक करने के लिए गेहूं का निर्यात बढ़ाना चाहती थी। भारी उत्पादन के कारण भंडार भरे थे, जिन्हें खाली करना जरूरी था। इधर सोवियत संघ में 1971-72 में गेहूं की फसल बुरी तरह मारी गई। अमेरिका को पता था, सोवियत रूस को अनाज चाहिए। अर्ल बट्ज अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की सरकार में कृषि मंत्री थे। तेज-तर्रार, मुंहफट और विवादित बट्ज को अमेरिका में खेती की नीतियां बदलने के लिए जाना जाता है। उस वक्त तक अमेरिका में भारत जैसी समर्थन मूल्य प्रणाली लागू थी। किसानों का अतिरिक्त उत्पादन सरकार खरीदती थी। यह नीति महामंदी के दौर में आई थी। बट्ज ने कृषि उपज के निर्यात का बड़ा कार्यक्रम बनाया।

टाइम मशीन सफर करते हुए आपको अमेरिका के अखबारों में ऐसी सुर्खियां दिख जाएंगी, जिनमें देश के कृषि मंत्री खूब पैदावार का आह्वान कर रहे हैं और अमेरिका गेहूं निर्यात की ताकत बनाने का दावा कर रहा है।
मगर इसी मुकाम से शुरू होती है अमेरिकी कृषि व्यापार नीति की सबसे बड़ी चूक, जिसे इतिहास में ग्रेट रशियन रॉबरी के नाम से दर्ज किया गया।  
कृषि मंत्री अर्ल बट्ज ने सोवियत रूस के साथ अनाज निर्यात का समझौता किया। उन्होंने सोवियत संघ को 50 करोड़ डॉलर की क्रेडिट लाइन जारी की। यह कर्ज अमेरिकी गेहूं खरीदने के लिए था। इसके बदले सोवियत रूस को अगले तीन साल में करीब 75 करोड़ डॉलर का गेहूं खरीदना था।

बट्ज ने सपने में भी नहीं सोचा था कि सोवियत वाले यह अनाज एक साल में ही खरीद लेंगे। सोवियत की कमान लिओनिद ब्रेझनेव के हाथ थी। ब्रेझनेव की कूटनीतिक चतुरता का कोई सानी नहीं था। जोसेफ स्टालिन के बाद वह सबसे लंबे समय तक रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे। भारत और रूस के बीच की मशहूर संधि उनके कार्यकाल में ही हुई थी। भारत का नेतृत्व तब इंदिरा गांधी कर रही थीं। अमेरिका से क्रेडिट लाइन मिलते ही रूस ने गुपचुप ढंग से दुनिया के अनाज व्यापारियों से सौदे शुरू कर दिए। यह क्रेडिट लाइन अमेरिकी गारंटी थी, सो सौदे करने में देर नहीं लगी। अमेरिकी सरकार को यह पता ही नहीं था कि रूस कई निर्यातकों से एक साथ गेहूं खरीद के सौदे कर रहा है। अनाज निर्यातकों को भी जानकारी नहीं थी कि ब्रेझनेव की सरकार कहां, किससे और कितने गेहूं की खरीद करने जा रही है।

इस बीच ग्लोबल अनाज कंपनी कांटीनेंटल ने गेहूं के फ्यूचर्स यानी वायदा सौदों पर बड़ा दांव लगा दिया। उसे उम्मीद थी, सोवियत रूस तो तीन साल में अनाज खरीदेगा, तब तक नई फसल आ जाएगी, इसलिए कांटीनेंटल ने अनाज की वास्तविक खरीद किए बगैर आगे के सौदे कर लिए।

सोवियत रूस ने तीन सप्ताह में 75 करोड़ डॉलर का अनाज खरीद डाला। तीन साल की आपूर्ति एक साल में ही पूरी कर ली गई। अमेरिका की सरकार ठगी रह गई। ताकतवर निक्सन के लिए शर्मिंदगी का मौका था। उनका पूरा अमला जान ही नहीं सका कि दुनिया में अनाज की मांग और आपूर्ति का हाल क्या है। सोवियत रूस की अजीबो-गरीब लूट से 30 करोड़ डॉलर की सब्सिडी डूब गई। अमेरिका में गेहूं की कीमतें खौल उठीं। निक्सन ने अनाज और सोयाबीन के निर्यात पर पाबंदी लगा दी, जिससे सोयाबीन की भरमार हो गई। किसानों को बड़ा नुकसान हुआ। रूस की इस लूट से दुनिया का अनाज कारोबार ही बदल गया। इसके बाद कई देशों में अनाज के बफर स्टॉक बनने लगे।

1972 में पहली बार गेहूं की कीमत ने 1.5 डॉलर प्रति बुशल का स्तर पार किया था। उसके बाद गेहूं की कीमत कभी तीन डॉलर प्रति बुशल से नीचे नहीं पहुंची।
टाइम मशीन का यह सफर नासा के अंतरिक्ष केंद्र पर खत्म हो रहा है। नासा का गेहूं से क्या रिश्ता? दरअसल, इस लूट के बाद ही अमेरिका को लगा कि दुनिया के अनाज उत्पादन की सही जानकारी होनी चाहिए। 1970 के दशक में नासा ने लैंडसैट 1 को अंतरिक्ष में भेजा और अमेरिकी कृषि विभाग में पहली बार फसलों के उत्पादन की सटीक भविष्यवाणी शुरू हुई।

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