प्रबीर पुरकायस्थ
स्वतंत्रता दिवस–15 अगस्त के मौके पर हम आम तौर पर इसका लेखा-जोखा लेते हैं कि 1947 से हमने कितना सफर पूरा कर लिया है। लेकिन, इस बार मैं जरा अलग राह पर चलूंगा और इस पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करूंगा कि मुट्ठीभर यूरोपीय देशों का दुनिया के बड़े हिस्से पर नियंत्रण आखिर क्यों और कैसे हो गया था?
औपनिवेशिक साम्राज्यों के उदय से पहले तक, भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएं, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं थीं। लेकिन, इसमें हैरानी की बात भी नहीं है क्योंकि तब विश्व अर्थव्यवस्था का करीब 90 फीसद हिस्सा, खेती से आता था। अगर भारत और चीन में दुनिया की आबादी का 50 फीसद हिस्सा था, तो विश्व अर्थव्यवस्था का करीब 50 फीसद इन्हीं देशों से आता होगा क्योंकि उस जमाने में कृषि का उत्पाद, काश्तकारों की संख्या के अनुपात में ही हुआ करता था। तब वैश्विक अभिजात आबादी के लिए भारत कपड़े तथा मसालों की आपूर्ति करता था, जबकि चीन से रेशम और चीनी मिट्टी का सामान आता था। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत तथा चीन से मालों के इस प्रवाह के बदले में, इन देशों की ओर सोने और चांदी का प्रवाह होता था।
अंधकार युग सिर्फ़ यूरोप में
बहरहाल, 18वीं और 19वीं सदी में यूरोप के साथ एशिया के रिश्ते में बदलाव आता है। एशिया के ये देश, जो पहले विश्व अर्थव्यवस्था में मालों के मुख्य उत्पादक हुआ करते थे, जो इन माल का यूरोप के लिए निर्यात करते थे, इस बदलाव के बाद कच्चे माल के उत्पादक और विनिर्मित मालों के आयातक बन गए। पश्चिम का परंपरागत इतिहास– जो जाहिर है कि पश्चिम के द्वारा ही लिखा गया है– बताता है कि यह तमाम बदलाव तो विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विकास का ही नतीजा था और यह विकास यूरोपीय प्रबोधन या एनलाइटनमेंट का नतीजा था, जिसका एक हजार साल की सुप्तावस्था के बाद, पश्चिमी यूरोप में पुनर्जन्म हुआ था। वास्तव में यह यूरोप में नवजागरण का पुनर्जन्म था और प्रबोधन इसका फल था। प्रबोधन से वैज्ञानिक सोच आयी, उससे औद्योगिक क्रांति हुई और यूरोप सबसे आगे आ गया। पर इस तस्वीर में यूरोप के प्रभुत्व को महज एक मानसिक क्रांति का नतीजा माना जाता है, जिसकी जड़ें क्लासिकल ग्रीस में थीं, जिसका एक हजार साल के बाद पुनर्जन्म हुआ था! यह दूसरी बात है कि ग्रीस और पश्चिमी यूरोप, भौगोलिक दृष्टि से यूरोप के दो छोरों पर हैं और उनके बीच जो साझा हो, ऐसा बहुत ही कम था।
बहरहाल, आज के गंभीर इतिहासकार यह मानते हैं कि यूरोप का जो अंधकारपूर्ण युग या डॉर्क ऐज था, उसका दूसरे महाद्वीपों पर असर नहीं पड़ा था और इन अन्य महाद्वीपों में ऐसी गिरावट आयी ही नहीं थी। इस दौरान एशिया ने कृषि और विनिर्माण, दोनों में ही ज्ञान तथा उत्पादन का विकास करना जारी रखा था। तब शिक्षा के मुख्य केंद्र पश्चिम एशिया में थे, जिसे पश्चिम वाले मध्य-एशिया कहते थे और तुर्की में, जिसे पुन: निकट पूर्व या नीअर ईस्ट कहा जाता था और मध्य एशिया में, भारत तथा चीन में, जो सभी यूरोप के कथित अंधकारपूर्ण युग से अप्रभावित बने रहे थे।
उपनिवेशीकरण और यूरोप का रूपांतरण
और वे देश कौन से हैं, जिन्होंने दुनिया को इस तरह से बदल दिया था कि उस पर मुट्ठीभर पश्चिमी देशों का प्रभुत्व कायम हो गया? पत्रिका साइंस में, जो कि अमेरिकन सोसाइटी फॉर एडवांस्ड साइंस की पत्रिका है, हाल ही में एक लेख प्रकाशित हुआ है, ‘रीमैपिंग साइंस’। यह लेख बताता है कि किस तरह पिछले 500 वर्ष के दौरान सिर्फ 8 यूरोपीय देशों ने 68 फीसद दुनिया का उपनिवेशीकरण कर लिया था। ये देश थे– इंग्लैंड, फ्रांस, नीदरलैंड्स, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, स्पेन और पुर्तगाल। उनके वैश्विक अर्थव्यवस्था में पीछे होने से, उसके आका बन जाने तक का यह रूपांतरण, 16वीं से 18वीं शताब्दियों के बीच हुआ था।
यह लेख आगे बताता है कि किस तरह समकालीन विज्ञान पर भी इस औपनिवेशिक अतीत की छाप बनी हुई है और ज्ञान का निरुपनिवेशीकरण करने की जरूरत है।
लेकिन, ज्ञान का निरुपनिवेशीकरण ही काफी नहीं है। हमारे लिए यह समझना भी जरूरी है कि क्या वजह थी जिससे मुट्ठीभर देशों का पूरी दुनिया पर प्रभुत्व कायम हो गया। इसे समझना सिर्फ ऐतिहासिक कारणों से ही जरूरी नहीं है बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए भी जरूरी है कि हमें फिर से उपनिवेश न बना लिया जाए। तो ये मुट्ठीभर देश पूरी दुनिया को अपना गुलाम बनाने में कैसे कामयाब हुए?
पश्चिम के उत्थान और शेष सब के पतन को समझने के लिए, हमें यह देखना होगा कि 15वीं-16वीं और 18वीं शताब्दियों के बीच क्या हुआ था। आइए हम भी, जैसा कि यूरोपीय इतिहास में किया जाता है, उनके वर्णन के हिसाब से खोज के युग या एज ऑफ डिस्कवरी के साथ शुरू करते हैं।
इसे पेश इस तरह किया जाता है कि निडर खोजी, दुनिया की खोज करने के लिए निकल पड़े थे। लेकिन, सचाई इससे बहुत ही अलग थी। धर्म युद्धों या क्रूसेड्स के दौरान अरब दुनिया से हुई अपनी मुठभेड़ों में यूरोपीयों, खासतौर पर पश्चिम यूरोपीय राजशाहियों का शक्कर, मसालों, कपड़े और रेशम के आकर्षण से परिचय हो चुका था। अरबों का चीन से थल मार्ग–सिल्क रूट–पर भी नियंत्रण था और भारत तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के मसाला द्वीपों तक समुद्री मार्ग पर भी, जिसे समुद्री रेशम मार्ग या मैरीटाइम सिल्क रूट के रूप में जाना जाता था–इसे हम मसाला मार्ग या स्पाइस रूट भी कह सकते हैं–उस पर भी अरबों का ही नियंत्रण था। उस्मानी साम्राज्य ने जब कुस्तुंतुनिया को हाथ में ले लिया, भारत के लिए एक समुद्री मार्ग की तलाश ही थी, जो कोलंबस और वास्को डि गामा, दोनों को संचालित कर रही थी।
उपनिवेशों का बंटवारा
कोलंबस संयोग से अमरीका पहुंचा हो सकता है, बहरहाल पुर्तगाल ने, जिसने कोलंबस के अभियान में पैसा लगाया था, फौरन दोनों महाद्वीपों–दक्षिणी और उत्तरी अमेरिका–पर दावा कर दिया। स्पेन और पुर्तगाल के बीच विवाद का वेटिकन द्वारा 1494 में टोर्डेसिल्लास की संधि के जरिए निपटारा किया गया, जिसमें अमेरिकी महाद्वीपों का बड़ा हिस्सा स्पेन को मिला और ब्राजील, अफ्रीका तथा एशिया, पुर्तगाल के हिस्से में आए। कहने की जरूरत नहीं है कि शेष दुनिया इस संधि में किसी भी तरह से शामिल नहीं थी, यह तो दुनिया का बंटवारा करने के लिए सिर्फ स्पेन और पुर्तगाल के बीच हुई द्विपक्षीय संधि थी, जिसे पोप का आशीर्वाद हासिल था।
फिर भी इस संधि का असर, सिर्फ स्पेन और पुर्तगाल के बीच जो कुछ हुआ, उससे बहुत दूर तक जाता है। इस संधि ने इसे स्वीकार्य बना दिया कि मूल निवासी समुदायों के कोई अधिकार नहीं होते हैं और अगर वे धर्मांतरित होने से इंकार करते हैं तो उन्हें न सिर्फ अपनी जमीनों से बेदखल किया जा सकता है बल्कि उन्हें गुलाम भी बनाया जा सकता है या मारा भी जा सकता है। अमेरिका में भूमि अधिकारों पर निर्णय करते हुए, अमेरिकी अदालत तक ने इस संधि का हवाला दिया था।
जनसंहार और सोने-चांदी की लूट
अमेरिकी महाद्वीपों में पहले से मौजूद आबादियां यूरोपीय विजेताओं का मुकाबला क्यों नहीं कर पायीं? अमेरिकी महाद्वीपों की देशज आबादी करीब 20,000 ईसा पूर्व में, जमी हुई बेरिंग की खाड़ी के जरिए सागर पार एशिया से आयी थी। हालांकि उन्होंने यहां बड़े साम्राज्य तथा शहर बनाए थे, लेकिन उनके यहां कुछ चीजों के विकास का अभाव था, जो उनकी सभ्यता के लिए घातक साबित हुआ। इन महाद्वीपों में उनके पास कोई ऐसा प्रमुख जानवर नहीं था जिसे वजन की ढुलाई के लिए और गाडिय़ों में जोतने के लिए, पालतू बनाया जा सकता। घोड़े, गाय, ऊंट, गधा आदि कोई भी नहीं था। इसके अलावा दुनिया के अन्य हिस्सों–यूरेशिया तथा अफ्रीका–के विपरीत, जहां ज्ञान के धीमे प्रसरण, लोगों के आप्रवासन या जीते जाने ने करीब-करीब सभी समुदायों को छुआ था, उन्होंने तब तक लोहे के औजार तथा हथियार बनाना भी नहीं सीखा था। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिकी महाद्वीपों में देशज आबादियों और उनकी सभ्यताओं का सम्पूर्ण विनाश ही कर दिया गया। उनके शहर आज भी इसके गवाह हैं कि माया, इंका, एजटेक तथा ओलमेक विकास की किन ऊंचाइयों पर पहुंचे थे, जिन्हें स्पेनी कोंक्विस्टाडोर्स ने नष्ट कर दिया।
हालांकि, स्पेनियार्डों ने स्थानीय आबादी से चांदी तथा सोने की लूट की थी, इसके साथ ही उन्हें इसका भी पता चल गया था कि सोना और चांदी, बोलीविया और मैक्सिको में मिल सकते हैं। ज्यादा लोगों को इसका पता नहीं है कि बोलीविया की पोटोसी खदान और जैकाटिकस खदान में दुनिया की चांदी का करीब 80 फीसद हिस्सा पैदा होता था। (बॉर्न विद एक ‘सिल्वर स्पून’: ऑरीजिन ऑफ द वर्ल्ड ट्रेड इन 1571, डेनिस ओ फ्लिन तथा अर्तुरो गिराल्डेज़, जर्नल ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री , खंड-6, अंक-2, 1965)।
मेसो-अमेरिका की चांदी की खदानों ने ही स्पेन के युद्धों के लिए और अपने युद्धों के लिए उसके पानी के जहाज, तोपें-बंदूकें और बारूद खरीदने के लिए, पैसा मुहैया कराया था। स्पेन ने कोई अपने उद्योगों का विकास नहीं किया था। विश्व के चांदी उत्पादन पर अपने नियंत्रण के बल पर वह, दूसरे देशों से उसे जो भी चाहिए, खरीद सकता था। यही चांदी कपड़ा, मसाले, रेशम तथा चीनी मिट्टी के सामान जैसे मालों को खरीदने के लिए भारत, दक्षिण-पूर्वी एशिया तथा चीन पहुंच रही थी।
सागरों पर नियंत्रण
एक और जो बदलाव आया, सागर पर नियंत्रण के मामले में था। पुर्तगाली, वास्को डि गामा ने दक्षिण अफ्रीका के छोर–केप ऑफ गुड होप–के पास से निकलते हुए, भारत के लिए एक समुद्री मार्ग खोजा था। व्यावहारिक मायनों में इसने एशिया के साथ व्यापार पर अरबों तथा उस्मानी साम्राज्य के बोलबाले का विकल्प मुहैया करा दिया। पर बात इतने पर ही नहीं रुकी। यूरोपीयों ने समुद्र पर नियंत्रण कायम करना शुरू कर दिया। स्पेन की चांदी, जो अफ्रीकी गुलामों के सहारे खदानों से निकाली जा रही थी तथा उसके बल पर एशिया के साथ व्यापार और सागरों पर नियंत्रण, खासतौर पर तब जबकि एशिया के तथा खासतौर पर भारत व चीन के थल साम्राज्य समुद्र पर नियंत्रण की अनदेखी करते आ रहे थे, इस सब से यूरोपीय बोलबाले का आधार तैयार हो गया। इस घटनाविकास में से किसी का भी–न तो सागरों पर नियंत्रण का और न चांदी की खदानों पर नियंत्रण का–जन्म न तो वैज्ञानिक ज्ञान से हुआ था और न ही थल-आधारित साम्राज्यों के मुकाबले श्रेष्ठतर प्रौद्योगिकी से।
पश्चिम का उदय तो इसके संयोग का नतीजा था कि उसने अमेरिकी महाद्वीपों को खोजा और वहां की देशज सभ्यताओं के पास, उनके हमलों का प्रतिरोध करने के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकी का अभाव था। विज्ञान तथा गणित में मेसो-अमेरिकी सभ्यताएं उल्लेखनीय रूप से आगे थीं। नक्षत्र विद्या, गणित का उनका ज्ञान अनेक पहलुओं से यूरोपीयों से कहीं बढ़कर था। मेसो-अमेरिका के शहरों की तुलना में, पश्चिमी यूरोप के ज्यादातर शहर तो आदिम ही माने जाते। लेकिन, उनके पास तोप-बंदूक, इस्पात और घोड़े न होने का मतलब यह था कि वे सैन्य दृष्टि से मुकाबले में कहीं ठहरते ही नहीं थे। फिर भी पश्चिम और अमेरिकी महाद्वीपों की मुठभेड़ सिर्फ उनकी सभ्यताओं के विनाश तथा नरसंहार तक ही सीमित नहीं रही।
अमेरिकी महाद्वीपों की चांदी की खदानों ने वैश्विक व्यापार व्यवस्था खड़ी की, जिससे यूरोप के लिए वैश्विक व्यापार पर हावी होना और अपने उभार के लिए वित्त जुटाना संभव हुआ। थल साम्राज्यों द्वारा समुद्रों की अनदेखी किए जाने का नतीजा यह हुआ कि न सिर्फ वैश्विक व्यापार बल्कि सैन्य उद्देश्यों के लिए सागरों का नियंत्रण भी अब मुट्ठीभर यूरोपीय देशों के हाथों में आ गया। अब इसका इस्तेमाल औपनिवेशिक साम्राज्य खड़े करने के लिए किया जा सकता था। यही है कि यूरोपीय उपनिवेशवाद की उत्पत्ति, जिसके तहत आठ यूरोपीय देशों का सारी दुनिया पर नियंत्रण हो गया।
पूंजीवाद का इतिहास प्रबोधन, विज्ञान तथा औद्योगिक क्रांति से शुरू नहीं होता
अमेरिकी महाद्वीपों से पश्चिम की मुठभेड़ का नतीजा, इन महाद्वीपों की जनता के लिए सत्यानाशी साबित हुआ। यूरोप द्वारा ‘‘खोजे जाने’’ से पहले तक अमेरिकी महाद्वीपों की आबादी के अनुमान 20 लाख से 10 करोड़ तक जाते हैं। नरसंहार के आंकड़े भी, अमेरिकी महाद्वीपों की मूल आबादियों के अलग-अलग अनुमानों पर ही निर्भर नहीं करते हैं बल्कि इस पर भी निर्भर करते हैं कि किन संख्याओं को, नरसंहार के शिकारों की गिनती में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। क्या इस गिनती में उन लोगों को भी गिना जाना चाहिए, जो तब बीमारियों के शिकार होकर मर गए, जब उनके समाजों और उनके समाजों के उत्पादक आधार को नष्ट कर दिया गया? और उन अनुमानत: 20 से 80 लाख तक लोगों को किस गिनती में लिया जाए, जो पोटोसी की चांदी की खदानों में मारे गए थे और जिनमें खासी बड़ी संख्या मूल निवासियों की थी।
चांदी के बाद दूसरा वैश्विक माल- दास
बहरहाल, इन मुद्दों को दूसरों के लिए छोडक़र हम, इस पर लौटते हैं कि चांदी का, जो कि पहला वैश्विक माल बनी, बोलीविया में पोटोसी से लगाकर, खदानों में कैसे खनन होता था। पोटोसी की खदान को नरभक्षी पर्वत या माउंटेन दैट ईट्स मैन के रूप में जाना जाता था। खनन की नृशंस स्थितियां, जमीन के नीचे बिताए जाते दिन के बहुत ज्यादा घंटे और 14,000 फुट की ऊंचाई पर धातु को पीटने की मुश्किल, इस सब की कीमत उन मूल निवासियों को चुकानी पड़ी, जिन्हें गुलाम बनाया गया था। स्पेनियों ने इसका समाधान यह निकाला कि अफ्रीका से गुलामों का आयात कर लिया जाए। टोर्डेसिलास की संधि में अफ्रीका, पुर्तगालियों को ‘‘आबंटित’’ कर दिया गया था, इसलिए स्पेन ने अफ्रीका से गुलामों की आपूर्ति का ठेका पुर्तगालियों को दे दिया। इसे एसिएंटा डि नेग्रोस यानी कालों के लिए समझौता के नाम से जाना गया, जो ठेका बाद में जेनोइस व्यापारियों, डच, फ्रांसीसी और ब्रिटिश के हाथ में आ गया।
पुर्तगालियों ने घाना में अल मीना दुर्ग बनाया था, जहां नौकाओं से रवानगी से पहले अफ्रीकियों को रखा जाता था, जिन्हें चांदी और सोने की खदानों में काम करने के लिए अमेरिकी महाद्वीपों के लिए ले जाया जाता था। बाद में जब डचों ने अल मीना दुर्ग पर कब्जा कर लिया, पुर्तगालियों ने गुलाम हासिल करने के लिए अंगोला की ओर का रुख कर लिया।
कैरीबियाई क्षेत्र और ब्राजील में बागान फसलें–शक्कर, कहवा, तंबाकू तथा कोको–आने के बाद, गुलामों की मांग में नाटकीय बढ़ोतरी हो गयी। खदानों के लिए अपेक्षाकृत थोड़ी संख्या में ही गुलामों की जरूरत होती थी, लेकिन गुलामों के श्रम से चलने वाले बागान या प्लांटेशन, गुलामों के लिए एक प्रमुख बाजार बन गए। जहां चांदी पहला वैश्विक माल थी, गुलाम और शक्कर, पश्चिम के उदय की कहानी का दूसरा प्रमुख हिस्सा बन गए। पुन: यह सब औद्योगिक क्रांति से ढाई सदी पहले शुरू हो चुका था।
अफ्रीका में गुलाम बनाए गए और बागानों के लिए ले जाए गए लोगों की संख्या अनुमानत: 16वीं सदी में 30 लाख, 17वीं सदी में 60 लाख और 18वीं सदी में 30 लाख और तथा कुल मिलाकर 1 करोड़ 20 लाख थी। इसमें भारत और चीन से लाए गए इंडेन्चर्ड मजदूरों को हिसाब में नहीं लिया गया है, जो दास प्रथा के खात्मे के बाद वैस्ट तथा ईस्ट इंडीज के बागानों के लिए मजदूरों का स्रोत बने थे। इसमें अफ्रीका के उस जनसांख्यिकीय पराभव को भी हिसाब में नहीं लिया गया है, जो बड़े पैमाने पर युवकों तथा युवतियों को वहां से हटाए जाने के चलते, इन समाजों की वहनीयता पर पड़ा था, जहां से इन युवाओं को ले जाया गया था। अफ्रीका का जनसांख्यिकीय पराभव, अमेरिका जितना भयानक तो नहीं था, फिर भी इसका नतीजा यह हुआ था कि उस दौर में अफ्रीकी आबादी में बढ़ोतरी नहीं हुई थी, जबकि एशिया तथा यूरोप की आबादियों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही थी।
दासों का उत्पादन
दास-श्रम, अमेरिका की बागवानी अर्थव्यवस्था की रीढ़ था। शक्कर, पहली बड़ी प्लांटेशन फसल थी। कैरीबियाई बागानों ने चांदी के बाद दूसरा वैश्विक माल पैदा किया था–शक्कर। धर्मयुद्धों या क्रूसेड्स के दौरान पश्चिम ने शक्कर का उत्पादन अरबों से सीखा था और उन्होंने बागान आधारित शक्कर के उत्पादन की पहली आजमाइश भूमध्य-सागरीय द्वीपों में और उसके बाद स्पेन तथा पुर्तगाल के तटों से दूर एटलांटिक द्वीपों में और आगे चलकर अफ्रीका के तट से दूर साओ टोम में की थी। पुर्तगाली इसे साओ टोम से, जो तब उनके नियंत्रण में था, ब्राजील ले गए। डच, जिनका थोड़े से अर्से तक ब्राजील के शक्कर पैदा करने वाले इलाकों पर नियंत्रण रहा था, उसे डच गयाना ले गए, जहां से इसे बारबडोस, जमैका के ब्रिटिश कैरीबियाई द्वीपों में और सॉन डोमनीक के फ्रांसीसी कैरीबियाई द्वीप (अब हैती) में फैला दिया गया।
प्रबोधन के गर्भ से पूंजीपवाद के जन्म, वैज्ञानिक क्रांति के औद्योगिक क्रांति तक ले जाने का परंपरागत आख्यान, रंगते-चुनते हुए इस इतिहास को भी बाहर कर देता है कि कैरीबियाई क्षेत्र में बागान अर्थव्यवस्था ने, एक वैश्विक माल के रूप में शक्कर को स्थापित किया था। इसके बाद कपास का उत्पादन आया, इसका भी उत्पादन अमेरिका के दक्षिण में गुलामों से कराया जाता था और यही इंग्लैंड की कपड़ा क्रांति के पीछे था। इस कहानी में एक और वैश्विक माल, अफ्रीकी गुलामों को छोड़ ही दिया जाता है क्योंकि आखिरकार, इंसानों को माल कैसे माना जा सकता है। लेकिन, दासों के व्यापार में लगे लंदन, ब्रिस्टॉल तथा लिवरपूल के व्यापारी, जो इंग्लैंड से निकलने वाले गुलामों के 90 फीसद जहाजों के लिए जिम्मेदार थे, ऐसा नहीं सोचते थे। उनके लिए इंसानों की तिजारत भी, एक और माल की तिजारत थी। उनके लिए इंसान, उनके बही-खातों में लाभ और हानि के खानों में आने वाली प्रविष्टियां भर थे।
यूरोपीय देशों ने अफ्रीका से गुलाम हासिल कैसे किए? थोड़े से अर्से तक, स्पेनी-अमेरिकी खदानों से नयी-नयी निकली चांदी गुलामों की खरीद के लिए संसाधन मुहैया करा रही थी और बंदूकें तथा बारूद इस ‘‘व्यापार’’ में मुख्य विवशताकारी तत्व की भूमिका अदा कर रहे थे। चांदी, बंदूकें, बारूद, कपड़ा, मसाले, इस सबने सिर्फ दासों के व्यापार की फंडिंग का काम ही नहीं किया बल्कि अफ्रीका से दासों के ‘‘उत्पादन’’ का भी काम किया। यही था जिसने स्वतंत्र स्त्री-पुरुषों को दासों में बदल दिया, जिसे फ्रांसीसी एंथ्रोपॉलाजिस्ट, मीलासोक्स सोने (धन) और लोहे (बंदूकों तथा गोलियों) के ‘‘गर्भ’’ से, दासों का उत्पादन कहते हैं।
शक्कर: बाजार से वैश्विक वित्त व्यवस्था तक
शक्कर ने सिर्फ पूंजीवादी बाजार ही नहीं बनाया, स्पेनी चांदी के साथ मिलकर, उसने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था की भी नींव रखी। इसके साथ ही साथ, दास नाम की जिन्स भी चल रही थी, जिसे अफ्रीका से उठाया जा रहा था और कैरीबियाई क्षेत्र और अमेरिकी महाद्वीपों में बेचा जाता था। ब्रिटिश, डच तथा फ्रांसीसी पूंजी का विकास, उतनी ही इंसानों को बाजार के लिए माल की तरह बरतने के इस जघन्य आचार की कहानी है, जितनी कि इस तरह के श्रम से उत्पादित मालों की कहानी है। कपास भी, जो कि अंग्रेजी कपड़ा मिलों की रीढ़ था, उस दक्षिण अमेरिका के दासों के श्रम से चलने वाले बागानों से ही आता था, जिसे अमेरिकी अब भी अतीत-मोह से एंटेबेल्लम साउथ या दक्षिण ही कहते हैं।
बागान अर्थव्यस्था की नृशंसता के संबंध में हम अमेरिकी साहित्य से और कहीं आधुनिक ‘‘कपास प्लांटेशनों’’ से जानते हैं। कैरीबियाई क्षेत्र और अमेरिका में लुइसिआना के शक्कर प्लांटेशनों में दास मजदूरों की हालत तो और भी बदतर थी। दासों के व्यापार पर प्रतिबंध लगने से पहले तक, एक दास का औसत कार्य जीवन सात साल माना जाता था, जिसके बाद उसे बदलने की जरूरत होती थी। बच्चे चार-पांच साल की उम्र से काम करते थे और खेतों पर अपने मां-बाप का हाथ बंटाते थे। प्लांटेशन मालिकान के खातों में दास श्रम की गणना एकदम तथ्यात्मक होती थी तथा ‘‘वैज्ञानिक ’’ तरीके से की जाती थी: दास को रखने पर कितना खर्चा आता है और कब उसमें लगायी गयी पूंजी की कमाई इतनी हो जाती है कि, उस दास को बदलकर, नया दास लाया जा सकता है? पूंजीपति ठीक इसी तरह से तो अपने पूंजी औजारों की घिसाई या छिलाई की गणना करते हैं।
16वीं से 18वीं सदी के दौरान व्यापार का जो वैश्वीकरण हो रहा था उसमें चांदी चीन तथा भारत की ओर जा रही थी और रेशम, चीनी मिट्टी का सामान, मसाले और सूती कपड़ा, पलटकर यूरोप में पहुंच रहे थे। जहां स्पेनी चांदी पूर्व के साथ व्यापार का आधार थी, डच, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश, वैश्विक बाजारों में किस चीज की आपूर्ति कर रहे थे? डच, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश, वैश्विक व्यापार में कैसे हिस्सा लेते थे? यहां इन तीनों की, कैरीबियाई क्षेत्र के लिए दासों के मुख्य आपूर्तिकर्ताओं की भूमिका–आगे चलकर पुर्तगाल के बाद स्पेन के साथ उन्होंने दासों के लिए ठेके हासिल किए थे– ही नहीं बल्कि वैश्विक बाजार के लिए शक्कर के उत्पादकों की भूमिका भी आती थी। कैरीबियाई क्षेत्र के शक्कर के प्लांटेशन इसके पीछे थे। आगे चलकर डचों ने भी डच ईस्ट इंडीज में शक्कर के प्लांटेशन खड़े कर लिए थे, लेकिन ये प्लांटेशन उसी प्रकार ज्यादातर भारतीय तथा चीनी इन्डेन्चर्ड श्रम के आसरे थे, जैसे कि अंगरेजों ने वैस्ट इंडीज तथा मॉरीशस में भारतीय इन्डेन्चर्ड श्रमिकों के सहारे किया था।
पूंजीवाद का वास्तविक इतिहास
एरिक विलियम्स ने अपनी कृति, कैपिटलिज्म एंड स्लेवरी में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में दास व्यवस्था के ‘‘योगदान’’ पर पथप्रदर्शक अध्ययन प्रस्तुत किया है। आगे चलकर, जोसफ इनिकोरी ने, अफ्रीकन्स एंड द इंडस्ट्रिअल रिवोल्यूशन इन इंग्लेंड में उनके तर्कों को और आगे बढ़ाया है। हम में से कुछ ने अपने निष्कर्षों का संक्षेपण किया है और शक्कर तथा दास श्रम के मुद्दों पर काम कर रहे हैं और इसमें हमें अफ्रीका के साथ ब्रिटिश व्यापार में कपड़े तथा बारूद की आपूर्ति का पहलू और जोड़ने की जरूरत है। तथाकथित त्रिकोणीय व्यापार में यह मानकर चला जाता है कि त्रिकोण के यूरोप-अफ्रीका बाजू में, अफ्रीका के लिए ब्रिटिश जो भी आपूर्ति करते थे, खुद उनके उत्पादन तथा विनिर्माण से ही आता था। लेकिन, ऐसा नहीं था। अफ्रीका में दासों के कारोबार में दिए जाने वाले मालों के मूल्य का 30 से 50 फीसद तक हिस्सा, भारत के सूती कपड़ों से ही आता था। अंगरेज इस दौर में अब तक अपनी औद्योगिक क्रांति नहीं कर पाए थे, जबकि शक्कर एक प्रमुख वैश्विक माल बन चुकी थी। बारूद किसी को ब्रिटिश उत्पाद लग सकता है, लेकिन था नहीं। बारूद एक प्रमुख घटक तथा उसकी लागत का प्रमुख हिस्सा, शोरा होता था और यह भी बंगाल-बिहार से ही आता था।
पश्चिम हम से जो मनवाना चाहता है उसके विपरीत, पूंजीवाद का इतिहास प्रबोधन, विज्ञान तथा औद्योगिक क्रांति से शुरू नहीं होता है। जैसा कि मार्क्स ने दर्ज किया था, वह तो पोर-पोर से रक्त और पसीना टपकाता हुआ आता है। यही वह इतिहास है, जो वे हमसे भुलवाना चाहते हैं।