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कनक तिवारी की लिखी किताब-‘आदिवासी उपेक्षा की अंतर्कथा:ब्रिटिश हुकूमत से21वीं सदी तक!

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मुझे यह पत्र लिखने के लिए भाई विनोद कोचर जी का आभार।।।

आदरणीय कनकजी,

     आपकी लिखी किताब,

 -‘आदिवासी उपेक्षा की अंतर्कथा:ब्रिटिश हुकूमत से21वीं सदी तक!’ में प्रोफेसर नंदिनी सुंदर  द्वारा लिखी गई भूमिका को आद्योपांत पढ़ने के दौरान, यकबयक मेरी यादों की कोठरी से निकलकर एक घटना मेरे जेहन में घूमने लगी जिसका ताल्लुक1989में हुए लोकसभा चुनाव से है।

          उस समय के युवा नेता कंकर मुंजारे लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे और मैं उनका मुख्य चुनाव प्रचारक था।

         बालाघाट जिले के परसवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में स्थित एक आदिवासी बहुल ग्राम चांगोटोला में मैं जनसभा में भाषण दे रहा था और मेरे भाषण के निशाने पर थे-चांगोटोला के धनाढ्य,जो मेरे ही जैन समाज के थे और  जिन्होंने  आदिवासियों के शोषण से किस तरह से बेशुमार दौलत कमाई?,यही मेरे भाषण का विषय था।

       भाषण समाप्त होते ही मेरे पास,सभा में उपस्थित आदिवासियों के आवेदन पर आवेदन आना शुरू हो गए जिनमें शोषक व्यापारियों के नामोल्लेख के साथ,

उन्होंनेअपनी शोषणकथा का उल्लेख किया था।

      चुनाव में कंकर मुंजारे की जीत तो हुई लेकिन वे सारी शोषण कथाएं विस्मृत कर दी गईं।

     तब मुझे कलियुगी विश्वामित्र की एक काल्पनिक कथा याद आ गई जो सत्ता रूपी मेनका को पाने के लिए ही चुनाव लड़ने के पहले शोषितों और पीड़ितों के मसीहा बनने का नाटक करते हैं और चुनाव जीतते ही शोषक व भ्रष्ट व्यवस्था के पुर्जे बन जाते हैं।इन्हीं जैसे लोगों को चेताने के लिए ही शायद महाकवि दिनकर ने ये लिखा था कि:-

इस उपवन की पगडंडी पर,

बचकर जाना परदेसी!

यहाँ मेनका की चितवन पर,

मत ललचाना परदेसी!

   आपकी जिस किताब को आद्योपांत पढ़ने के बाद ही प्रोफेसर नंदिनी जी सुंदर ने ये भूमिका लिखी है जो आपकी पुस्तक को पढ़ने के लिए बेचैन करने वाली है।वैसे तो ये किताब उन सभी नौजवानों द्वारा पढ़ी जानी चाहिए जो सामाजिक और आर्थिक विषमता व अन्याय के खिलाफ लड़ रहे हैं लेकिन विशेष तौर पर आदिवासी युवाओं द्वारा ये पुस्तक जरूर पढ़ी जानी चाहिए।

   मुझे पक्का यकीन है कि आप अपनी लेखनी के जरिये जो मशाल जला रहे हैं उसका प्रकाश जरूर फैलेगा।

 सादर प्रणाम आपको, आदरणीय

                            –विनोद कोचर

कनक तिवारी

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