छुटकी पेट में थी, जब वो बॉम्बे (मुंबई) चले गए। एक रोज फोन आना बंद हुआ। फिर खबर मिलनी बंद हो गई। सब कहते हैं, तीज-व्रत करो, मन्नत मांगो- पति लौट आएगा। सूखे पड़े गांव में बारिश भी आ गई, लेकिन वो नहीं आए। मैं वो ब्याहता हूं, जो आधी विधवा बनकर रह गई।
भरे-पूरे परिवार में रहती सुमनलता के चेहरे पर बात करते हुए थकान है, और झाइयां हैं जो जागी हुई रातों का हिसाब देती है। इंटरव्यू के दौरान आंसू घुमड़ने पर वो मुंह नहीं घुमातीं, बल्कि नजरें मिलाए रखती हैं, मानो पूछती हों, क्या तुम्हारी रिपोर्ट उन तक भी पहुंचेगी! दरवाजे से निकलते हुए वो ये पूछ भी लेती हैं।
लगभग 25 साल की सुमन की चुनरी में इंतजार के पांच साल बंधे हैं। दक्षिणी राजस्थान में बड़ी आबादी उनकी भी है, जिन्होंने 15- 20 या इससे भी ज्यादा सालों से पति को नहीं देखा। घरवाला कमाने-खाने के लिए गया तो बाल काले थे, पीठ सीधी। अब बाल चांदी और कमर झुककर कमान हो गई। ब्याहता के सारे शौक मर गए, लेकिन उम्मीद का तारा अब भी टिमटिमाता है।
इंटरनेशनल स्तर पर काम करने वाले NGO फिरंग लहजे में चुभलाते हुए इन्हें ‘हाफ विडोज’ कहते हैं, यानी वो औरतें जो शादीशुदा होकर भी विधवा की तरह जी रही हैं। ऐसी ही महिलाओं के हालात रिपोर्ट करने के लिए सबसे पहले हम रेलमगरा के पछमाता गांव पहुंचे।
दोपहर का वक्त। पड़ोसन ने रोककर कहा कि पहले बींदणी को ‘तैयार’ होने दो। हम दालान में बैठे थे, तभी बींदणी ‘सुमनलता’ आईं। गहरे हरे घाघरे पर सफेद चुनरी, गले में मंगलसूत्र के साथ लाल मोतियों की माला। बाद में पता लगा कि वो एक्स्ट्रा मंगलसूत्र है- ताकि पति सलामत रहे- भले लौटे, न लौटे। चाय के लिए मनुहार के बीच सुमन एकदम चुप हैं। मैं उन्हें दूसरे कमरे में ले जाती हूं, तब जाकर वो बोलना शुरू करती हैं।
महिला का नाम सुमनलता है। वो राजस्थान के राजसमंद की रहने वाली हैं। सुमनलता के पति 2016 में मुंबई काम करने के लिए गए थे, लेकिन वो आज तक नहीं लौटे।
छोटी बेटी 2 महीने की पेट में थी, जब वो गए। पहले-पहल खूब फोन करते थे। फिर एक रोज कहा कि मोबाइल खराब हो गया है। नया लेकर कॉल करूंगा। 2016 बीत रहा था। वही आखिरी बार मैंने उनकी आवाज सुनी। साल बीता। नया साल आया। पांच कैलेंडर बदल गए, लेकिन वो नहीं लौटे।
बेटी अब पांच साल की हो गई। घर के लोग उसे फोटो दिखाकर बताते हैं कि ये तेरे पापा हैं। वो पापा के बारे में सवाल करती है। पूछती है, वो कब आएंगे! घरवाले तो बच निकलते हैं, लेकिन मेरी तो बेटी है, मैं कैसे बचूं!
कभी प्यार से समझा देती हूं, कभी गुस्से में हाथ उठ जाता है। कई बार रोने भी लगती हूं, लेकिन छिपकर। यहां सबके सामने रोना अच्छा नहीं मानते। सूखी हुई आवाज में ये बताते हुए सुमन एकदम से भरभरा जाती हैं, लेकिन आंखों में आंखें डाले हुए।
उन्हें रोता और फुसफुसाकर बात करता देख मैं समझ जाती हूं कि बहुत-से सवाल अनकहे छूटेंगे। चुनरी में लगे गोटे से खेलते हुए सुमन शादी के बाद का वक्त याद करती हैं। वे बताती हैं कि पहला करवाचौथ खूब हंसी-खुशी मना था। पति दिनभर साथ रहे। तोहफे भी दिए।
अब भी करवाचौथ करती हैं- मेरे सवाल पर कहती हैं- हां, क्योंकि सब कहते हैं कि ऐसे ही वो लौटेंगे। मन नहीं करता, लेकिन सब करती हूं। पांच सालों में हंसना भूल गई, लेकिन करवाचौथ और तीज कोई भूलने नहीं देता।
पति की कोई खोज-ढूंढ?
हां, ससुर जी गए थे बॉम्बे। 20 दिन रहे। थाने में फोटो भी दिया, फिर लौट आए। अब सब चुपचाप हैं। दोपहर में, देर रात जब भी दरवाजे पर खड़का होता है, मैं एकदम से देखने लगती हूं। लगता है, शायद वो लौट आए हों।
सुमन के पति जाते हुए अपने सारे कागजात भी लेते गए। अब आधार नंबर के सहारे वो खोज-ढूंढ कर रही हैं, लेकिन इतने सालों में कुछ पता नहीं लग सका।
लौट आएंगे तो क्या वापस उनके साथ हंसी-खुशी रह सकेंगी?
तो क्या करूंगी। उन्हें बाहर कैसे निकाल सकूंगी। साथ में तीन बच्चे भी हैं। फोटो या नाम से ही सही, इनके पास पिता तो है। वो तो चाहिए।
फोटो मांगने पर सुमन एक सूटकेस खोलकर उसमें से कागज उलटने-पलटने लगती हैं। फिर दीवार पर लगी तस्वीर की तरफ इशारा करके कहती हैं- यहीं है वो, शादी की फोटो। लड़का छींट का लाल साफा बांधे हुए है। तस्वीर धुंधला हो चुकी है, लेकिन धूल की हल्की परत भी नहीं। सुमन शायद रोज सुबह-शाम उसे पोंछती हों।
बाहर निकलते हुए सुमन की सास मिलती हैं। तीखे तेवरों वाली इस महिला से जब मैं बेटे की बात पूछती हूं तो सपाट आवाज में कहती हैं- काम-धंधे में लगा होगा। फोन कैसे करेगा!
आगे हमारी मुलाकात होती है रेलमगरा की श्यामा से। बोलने-चालने में लगभग शहरी श्यामा हंसते हुए बात करती हैं तो लगता है, गुनगुना रही हों। लेकिन छूटी हुई दुल्हनों का जिक्र उन्हें एकदम से बदल देता है।
श्यामा नाम की ये महिला सिंगल माइग्रेशन के मुद्दे पर एक्सपर्ट की तरह बोलती है। इसकी एक वजह ये भी है कि लंबे समय तक उन्होंने भी अकेलेपन का दर्द झेला।
वो याद करती हैं- बेटी तब छोटी थी। वो बाहर जाते तो 10-15 बिस्किट-नमकीन के पैकेट रखकर जाते। महीनेभर बाद जब सामान खत्म हो जाता, मेरे पास 5 रुपए भी नहीं होते थे कि उसके लिए बिस्किट या टॉफी खरीद सकूं। पीहर जाने के लिए किराया जुटाने को कभी नरेगा में मिट्टी उठाती, कभी दूसरों के खेत में काम करती।
कहने को सास-ससुर के साथ थी, लेकिन किसी ने लाड़ से भरकर सिर पर हाथ नहीं रखा। हर वार-त्योहार इतनी खरीद-फरोख्त होती, लेकिन किसी ने नहीं पूछा कि तुझे भी कुछ चाहिए क्या। कपड़े पुराने होकर फटने जैसे हो जाते, मैं वही पहनती रहती। मन रोता, लेकिन मैं गाय-उपला, बर्तन-भाड़े करती रहती।
साल 2002 की बात है। तब हमारे पास मोबाइल नहीं था। पड़ोस के नंबर पर कभी-कभार उनका फोन आता। मैं भागकर जाती, लेकिन कुछ कह नहीं पाती थी। रोते हुए हिचकियां बंध जाती। बस, इतना ही पूछ पाती थी कि कब लौटोगे।
विदेशियों की गहमागहमी वाले जयपुर से महज 6 घंटे की दूरी पर बसे राजसमंद की महिलाओं का दर्द कम ही लोग जानते हैं। ऐसे में हैरानी नहीं कि सरकारी योजनाओं से भी वे गायब हैं।
अकेली औरत जानकर कभी किसी ने परेशान भी किया?
सवाल पर गहरी काली आंखों वाली श्यामा तपाक से बोल पड़ती हैं- हां! मुझे ही क्यों, हर औरत के साथ ये होता है। अकेली पाते ही सबकी नजर बदल जाती है। गांव छोड़िए, अपने घर के मर्द भी परेशान करने लगते हैं। कभी फुसलाते हैं, और काम न बने तो जबर्दस्ती भी कर डालते हैं। औरत चुपचाप सहती रहती है कि पता चलने पर पति कहीं छोड़ न दे।
सुमन की तर्ज पर श्यामा भी बताती हैं कि गांव में छूटी हुई औरतों को रोने की इजाजत नहीं। वे आहिस्ता-आहिस्ता सिसकती हैं, लेकिन चीखकर रो नहीं पातीं कि अपशगुन न हो जाए।
दर्द की ये डोर राजसमंद के मदारी गांव तक पहुंचती है। जब हम वहां पहुंचे, शाम ढल रही थी। नारायणी गाय-गोरू के बीच व्यस्त थीं। हमें दिखाकर देर तक मवेशियों की बात करती रहीं। फिर ऐसे बताने लगीं, जैसे चेहरे के सामने कोई फिल्म चल रही हो।
कुछ इसी तरह की कहानी लाल रंग की चुनरी में लिपटी नारायणी की है। इन्हें अपने पति से मिले 22 साल हो गए। शादी हुई थी तो वे 10 साल की थीं। अब नारायणी के चेहरे पर झुर्रियां दिखाई देती हैं।
8-10 साल की थी, जब हमारी शादी हुई। वो कद में मुझसे नाटा था। सब चिढ़ाते कि बींदणी बड़ी है तो गुस्सा हो जाता। खेल-खेल में एक बार उसने मुझे जोर से मार दिया। रोने लगी तो सबने खूब लाड़ लड़ाया। उसने भी!
कितने साल हुए, पति से मिले? सवाल पर भर्राई आवाज आती है- 22 साल हो गए। इतने में सब बदल गया। दोनों लड़के जवान हो गए। एक एग्सीडेंट (एक्सीडेंट) में मर गया। एक बाकी है जो कमाने-खाने के लिए बाहर चला गया। डरती हूं कि बाप की तरह वो भी गायब न हो जाए।
गांव में तो बहुतों की खेत-बाड़ी होती है। आपके पास कुछ नहीं?
है, लेकिन जिसका घरवाला (पति) नहीं, उस औरत को कौन जीने देगा। अपने ही खेत में जाने पर पीटते हैं। बेटे को भी खूब पीटा। अब खेत भी शायद तभी मिले, जब वो लौट सकें।
‘इतने सालों में कभी कोई खबर नहीं आई?’ वो जिंदा भी हैं, या नहीं- सवाल मेरे गले तक आते-आते अटक जाता है। नारायणी जैसे मन पढ़ जाती हैं। कहती हैं- वो जिंदा हैं। बाबा लोग यही कहते हैं। वो आ जाएंगे।
पास ही में नारायणी की सास हैं, जिनकी झुर्रियां ही उनकी उम्र हैं। वो कहती हैं- इंतजार में शरीर जली हुई लकड़ी जैसा हो गया है। डरती हूं कि बेटे का मुंह देखे बिना ही न मर जाऊं।
एक NGO के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर कैलाश बृजवासी के मुताबिक रेलमगरा में हर दूसरे घर का कोई-न-कोई काम के लिए बाहर गया हुआ है। यहां महिलाओं की बड़ी आबादी है, जिन्होंने अपने पति को सालों से नहीं देखा।
इंटरव्यू का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए हमने एक NGO के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर कैलाश बृजवासी से समझना चाहा कि आखिर इसकी वजह क्या है। बकौल कैलाश रेलमगरा में माइग्रेशन की दर 49% है, यानी हर दूसरे घर से कोई-न-कोई काम के लिए बाहर गया हुआ है।
आमतौर पर ये सिंगल माइग्रेशन होता है। घर के पुरुष जाते हैं, औरतें पीछे छूट जाती हैं। शुरुआत में पति आते हैं, फिर लौटना कम होता जाता है और एकदम से बिल्कुल खत्म हो जाता है। औरतें बाल-बच्चे संभालती हैं। बूढ़े सास-ससुर को देखती हैं। मजदूरी करती हैं और सोचती रहती हैं कि पति लौटेगा तो सब अच्छा हो जाएगा। यही सोचते-सोचते बहुत-सी औरतें मर-खप गईं और जवान बींदणियां बूढ़ी हो गईं।