अग्नि आलोक

जाति व्यवस्था ने देश के बहुसंख्यकों को मनुष्य होने का दर्ज़ा ही नहीं दिया

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अमिता शीरीं

सुजाता गिडला की यह किताब रेखांकित किये जाने के योग्य है। सत्यम और मंजुला के जीवन-वृत्त को पढ़ कर हम यह पाते हैं कि देश में हर जगह से कहीं ज़्यादा आंध्र के समाज में दलितों और औरतों ने संघर्ष किया और आज भी कर रहे हैं। 

ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था ने लंबे समय से देश के बहुसंख्यकों को मनुष्य होने का दर्ज़ा ही नहीं दिया। हालांकि, सवर्णों के अमानवीय अत्याचारों के ख़िलाफ़ दलितों का विरोध कोई नई बात नहीं है, लेकिन उनके संघर्षों का दस्तावेजीकरण बहुत कम हुआ है। लेकिन दलित साहित्य के विस्तार ने इस परिस्थिति को बदला है। अब यह वंचित समुदाय भी सवर्णों की इस अमानवीय व्यवहारों का प्रतिरोध करते हुए अपने व्यक्तिगत-पारिवारिक-सामाजिक अनुभवों को कलमबंद करना शुरू किया है। दलित लेखकों द्वारा रची जा रहीं दास्तानें उस हिदू धर्म के ब्राह्मणवादी दर्शन के ख़िलाफ़ एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रतिरोध है, जिसके मूल में असमानता, दलितों और औरतों के प्रति अमानवीयता है।

अपने शिल्प और कथ्य के जरिए दलित लेखकों की आत्मकथाओं ने दलितों के रोज़मर्रा का जीवन व सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत किया है। ये उनके प्रति-सांस्कृतिक नॅरेटिव गढ़ने में सफ़ल साबित हुए हैं। इसी श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण उदाहरण है सुजाता गिडला की चर्चित किताब ‘एंट्स अमंग एलिफ़ेन्ट्स, अनटचेबल फैमिली एंड द मेकिंग ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’। यह एक पारिवारिक मौखिक इतिहास है। 

सुजाता जाति व्यवस्था से आक्रांत भारतीय समाज के हाशिये पर फेंक दिए गए ‘अछूत’ परिवार में पैदा हुईं। उनका लालन-पालन आंध्र प्रदेश के एक छोटे से कस्बे कनिकेद में एक दलित ईसाई परिवार में हुआ। उन्होंने वारंगल के रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में फिजिक्स में स्नातकोत्तर किया। वारंगल उन दिनों क्रांतिकारियों का गढ़ हुआ करता था। उसी दौरान एक सवर्ण शिक्षक द्वारा पक्षपात के ख़िलाफ़ आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण पुलिस ने सुजाता को गिरफ्तार किया और गंभीर यातनाएं दी। लगभग 3 महीने जेल में रहने के बाद उन्होंने वारंगल से मास्टर्स की डिग्री हासिल की तथा आईआईटी, मद्रास में रिसर्च एसोसिएट के बतौर काम करने लगीं। आगे का जीवन जीने के लिए 1990 में वह अमेरिका चली गईं। वहां उन्होंने बैंक ऑफ़ न्यूयॉर्क में नौकरी की। फिर 2009 में वैश्विक मंदी के चलते उनकी नौकरी चली गयी। इसके बाद से वह न्यूयॉर्क सबवे में बतौर कंडक्टर काम करती हैं।

करीब 26 साल की उम्र में अमेरिका जाने के बाद उनके मित्रों ने जब पूछा कि ‘अछूत’ का क्या मतलब होता है तो इसी शब्द का अर्थ समझाने के क्रम में वह अपनी जिंदगी के पन्ने पलटने लगीं। उन्होंने मित्रों को समझाया कि भारत एक ऐसा देश है, जहां आप बिना जाति के रह ही नहीं सकते। किसी न किसी रूप में जाति आपके अस्तित्व के साथ चिपकी ही रहती है। उससे भी ज़्यादा जाति के दुष्चक्र में कहीं आप ‘अस्पृश्य’ घर में पैदा हो गए तो सारी जिंदगी एक ‘बदनुमा’ दाग की तरह चिपकी रहती है। 

गिडला अपनी किताब में लिखती हैं कि उन्हें किसी ने नहीं बताया कि वे ‘अछूत’ हैं। उन्हें केवल यही पता था कि वे लोग ईसाई हैं। जब वे आईआईटी, मद्रास में पढ़ने के लिए आयीं तो वहां उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण ईसाई से हुई। उन्हें आश्चर्य हुआ कि आखिर धर्म और जाति के बीच क्या रिश्ता है? जाति और सामाजिक दर्जे का क्या संबंध है? संपत्तिशाली लोग और जाति के बीच क्या रिश्ता है? आखिर वे लोग दलित ईसाई बने तो कैसे? इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने के क्रम में गिडला ने अपने परिवार का इतिहास खंगालने का निश्चय किया। 

सुजाता ने अपनी मां मंजुला से अपने पूर्वजों के बारे में जानना चाहा। उनकी मां अक्सर अपने भाई के.जी. सत्यमूर्ति के बारे में उन्हें बताया करती थीं। वे शिवसागर नाम से कविताएं लिखते थे। तेलुगू साहित्य में उनका जाना-पहचाना नाम हैं। वह एक क्रांतिकारी थे और हथियारबंद संघर्ष में विश्वास करने वाले एक समूह पीपुल्स वॉर के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। 

सुजाता गिडला व उनकी किताब का मुख पृष्ठ

के.जी. सत्यमूर्ति यानि सुजाता के मामा, सुजाता के हीरो थे। उन्होंने आजीवन दलितों और शोषितों के मुद्दों के लिए संघर्ष किया। सुजाता की किताब ‘एंट्स अमंग एलिफैन्ट्स’ में दो कहानियां सामानांतर रूप से चलती हैं। एक, उनके मामा सत्यमूर्ति के जीवन की और दूसरी, उनकी मां मंजुला के जीवन संघर्ष की कहानी। हालांकि इसका बड़ा हिस्सा मामा के जीवन संघर्ष का है। सुजाता विस्तार व सिलसिलेवार ढंग से के.जी. सत्यमूर्ति के जीवन और बतौर दलित कम्युनिस्ट उनके संघर्ष के बारे में बताती हैं। 

इस कहानी को जानने के लिए सुजाता ने मुख्य रूप से अपने मामा और मां से घंटों बातचीत की। इस पूरी बातचीत को उन्होंने रिकॉर्ड किया। इसी को आधार बनाकर उन्होंने इस किताब को लिखा। उन्होंने एक ऐसी कहानी कही जो इतिहास की किताबों में नहीं मिलती, जो सवर्णों की गाथाओं में नहीं मिलती। 

इन दोनों जीवनकथाओं में कई सारे चित्र एक साथ नज़र आते हैं। इनमें आज़ादी के पहले और बाद के आंध्र प्रदेश का समाज नज़र आता है। इन कहानियों में इस समाज के भीतर रहने वाली जातियों ख़ास तौर पर दलित और सवर्ण जातियों के बीच संघर्ष दिखाई देते हैं। इसके अलावा इन कहानियों में भयंकर गरीबी और जातीय असमानताओं के बीच औपनिवेशिक काल में कम्युनिस्ट पार्टी के संघर्ष के दृश्य भी दिखते हैं। उनकी ताकत भी नज़र आती है तो दलितों के संदर्भ में उनकी कमज़ोरियां भी दिख जाती हैं। 

आंध्र प्रदेश के समाज में बड़ी संख्या में दलितों ने मिशनरियों के संपर्क में आने के बाद ईसाई धर्म अपनाया। लेकिन जातियों में विभक्त हिंदू समाज उन्हें भी जाति के निगाह से ही देखता है और उन्हें ‘अछूत’ मानता है। 

अपनी मां और मामा से बात करके सुजाता को पता चला कि उनके पूर्वज पहले जंगलों में रहने वाले आदिवासी थे। उनकी मां के परदादा वेंकेटास्वामी और परदादी अतचम्मा खम्मम जिले के जंगलों में रहते थे। उन्हें खेती के बारे में नहीं पता था और न ही जाति के बारे में कोई जानकारी थी। जंगल की उपज जैसे कंद-मूल, फल और शहद आदि पर ही उनकी जनजाति जिंदा रहती थी। सुजाता के मुताबिक वे हिंदू नहीं थे। उनकी यह कहानी जानना बेहद रोचक है कि किस तरह जंगल में रहने वाली एक जनजाति जंगल से बाहर कर दी गई और बाहर आने पर तथाकथित सभ्य समाज उनके साथ कैसा सुलूक करता है। इन कहानियों में यह भी दर्ज है कि हिंदू धर्म कैसे उन्हें अस्पृश्य दलित का दर्ज़ा दे देता है।

सुजाता बताती हैं कि औपनिवेशिक काल में टीक प्लान्टेशन के लिए अंग्रेजों ने उनके पूर्वजों को जंगल से बाहर खदेड़ दिया था। यह बात 19वीं सदी के पहले दशक के आसपास की है। जंगल के बाहर आकर उनका समूह एक बड़ी झील के किनारे बस गया। यहीं पर उन्होंने खेती सीखी और अपनी मेहनत से झील के किनारे का हिस्सा जोत-बो कर हरा भरा कर दिया। यहां वे अपने खाने से ज़्यादा अनाज उपजाने लगे। अपनी इस नई बसाहट को उन्होंने अपने एक देवता के नाम पर शंकरपादु रखा। यहां भी उनके मां के परदादा-दादियों की कोई जाति नहीं थी, लेकिन ज़मींदारों की नज़र उन पर पड़ी तो उन्होंने उनकी ज़मीन धोखे से हथिया ली और उन्हें उनकी ही ज़मीन में बेगार बना दिया। इस तरह वे हिंदू समाज में दाखिल हुए और उन्हें सबसे निचला मुकाम ‘अछूत’ का हासिल हुआ। शंकरपादु पोलुकोंदा में अछूतों का एक मोहल्ला बन गया और तभी से शुरू हुआ दलित के रूप में उनका अंतहीन संघर्ष। 

किताब में दर्ज है कि एक बार यानादी जनजाति के एक अपराधी को गांव वालों ने आश्रय दे दिया। पुलिस उसका पीछा कर रही थी। उसने पूरे गांव को तबाह कर दिया और गांव के सारे पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया। गांव वाले इस बात से अंजान थे कि अपने लोगों को कैसे छुड़ाया जाय। इसी समय वे उस इलाके में सक्रिय कनाडा के मिशनरियों के संपर्क में आये। उन मिशनरियों ने उन्हें जेल से छुड़ाया। उनके बच्चे मिशनरी स्कूलों में पढ़ने लगे। मंजुला के दादा प्रसन्नाराव के परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया और हिंदू समाज की नजर में वे ‘अछूत क्रिश्चियन’ बन गए। मिशनरियों के संपर्क में ही प्रसन्ना राव पढ़ने लगे और आगे चलकर उनकी पत्नी मरियम्मा और वह शिक्षक बन गए। मिशनरियों ने उन्हें लंगोट की जगह कमीज़ पैंट और मरियम्मा को साड़ी-ब्लाउज पहनना सिखाया। इस तरह दलितों को शिक्षित करके एक सम्मानजनक जीवन प्रदान करने में मिशनरियों की एक बड़ी भूमिका रही है। 

प्रसन्ना राव व मरियम्मा को तीन बच्चे हुए– सत्यमूर्ति, मंजुला और कैरी। 1941 में मरियम्मा की मौत हो गई। उस वक्त सत्यमूर्ति की उम्र दस साल, कैरी की 7 साल और मंजुला की उम्र केवल 4 साल थी। कर्ज के बोझ से लदे हुए प्रसन्ना राव भी तीनो बच्चों को छोड़कर भाग खड़े हुए। 

यहीं से उन तीनों के दुखद दिनों की शुरूआत हुई। अपने नाना-नानी के पास और अन्य रिश्तेदारों के यहां बेइन्तहां गरीबी में अपमानजनक जीवन बसर करते हुए उन्होंने अपनी पढ़ाई की। एक तरफ़ बेपनाह ग़रीबी थी तो दूसरी तरफ़ अछूत ईसाई होने का दंश। एक बार गोल्ला जाति के लड़के ने सत्यमूर्ति को इसलिए पीट दिया क्योंकि उसने अछूतों के लिए निर्धारित लंगोट न पहन कर निकर पहन रखा था। अपमान की परतें सत्यमूर्ति के ज़हन में परत-दर-परत जमती गई। शायद यही कारण था कि सत्यमूर्ति जीवन भर दलितों और शोषितों के जीवन को बदलने की लड़ाई लड़ते रहे। 

सत्यमूर्ति के परिवार के लोग माला जाति के थे। सुजाता अपनी किताब में एक जगह कहती हैं कि समूची माला जातियों का जीवन चींटियों के समान था। वे बताती हैं कि जब सत्यमूर्ति आंध्र क्रिश्चियन कॉलेज में गए तो वहां भी उनकी स्थिति हाथियों के बीच चींटी के समान थी। छात्र जीवन में वह अन्याय के ख़िलाफ़ आंदोलनों में शामिल रहीं। 

छात्र जीवन में ही सत्यमूर्ति उर्फ़ सत्यम कांग्रेस के आंदोलन के संपर्क में आए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को गांधी द्वारा वापस लिए जाने के बाद गांधी से उनका मोहभंग हुआ। बाद में वह कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए और उनकी गतिविधियों में शामिल हुए। तेलंगाना आंदोलन के किस्से उन्हें सशस्त्र बगावत में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करते रहे। लेकिन सशस्त्र लड़ाई त्याग देने और चुनाव में हिस्सा लेने के बाद कुछ घटनायें ऐसी हुईं कि उनका सीपीआई से भी मोहभंग हो गया। 

एक और रोचक घटना का ज़िक्र सुजाता अपने मामा के हवाले से करती हैं। पहले चुनाव के समय कम्युनिस्ट के पक्ष में निकाली गई एक रैली में एक ज़मींदार का एक बंधुआ मजदूर भी हिस्सा लेता है। ज़मींदार के विरोध करने पर कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने उस बंधुआ मजदूर को ज़मींदार को सौंप दिया कि उसे अपने ‘मालिक’ की इजाज़त के बगैर रैली में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा दलित मुद्दे पर उचित ध्यान न देने के कई उदाहरण सुजाता विस्तार से देती हैं। 

सीपीआई के बाद सत्यम सीपीएम में शामिल हुए और फिर बंगाल में नक्सलबाड़ी विद्रोह के आगाज के बाद सत्यम आंध्रप्रदेश में सशस्त्र क्रांति का बिगुल छेड़ने वाली पार्टी पीपुल्स वॉर से जुड़ गए। बार-बार मतभेद होने के बावजूद सत्यम ने कभी भी संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा और आजीवन कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहे। वर्ष 2012 में सत्यम का निधन हो गया। 

सत्यम के साथ-साथ ही चलती है सुजाता की मां मंजुला की कहानी। बच्चों को छोड़ कर जाने के बाद उनके पिता प्रसन्नाराव द्वितीय विश्वयुद्द में सेना में भर्ती हो गए। लौट कर आने के बाद बच्चों को ख़ासतौर पर मंजुला को पढ़ाने का अपनी पत्नी को दिया वादा पूरा करते हैं। कॉलेज में पढ़ते वक्त और नौकरी के दौरान भी मंजुला भयंकर गरीबी और जातिगत अपमान झेलती हैं। लेकिन उनके पिता ने उनकी पढ़ाई में व्यवधान नहीं आने दिया। सवर्ण शिक्षकों के हाथों लगातार तिरस्कृत होने के बावजूद उनकी पढ़ाई जारी रही। यहां तक कि उनके पिता अपनी जमापूंजी लगा कर मंजुला को पढ़ने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस भेजते हैं, जहां मंजूला ने उच्च शिक्षा हासिल की।

आगे चलकर उनके सहपाठी रहे प्रभाकर राव से उनकी शादी हुई। सुजाता बहुत संवेदना से अपनी माँ के जीवन के अंतहीन संघर्षों का विवरण देती हैं। इन सबके बीच उनके तीनों बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं तथा अमेरिका व कनाडा में बस जाते हैं। 

इस किताब का सार यह है कि चाहे समाज में हों या कम्युनिस्ट राजनीति में, दलित-बहुजनों को लगातार अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है। 

तुलनात्मक रूप से हम पाते हैं कि उत्तर भारत की तरह ही दक्षिण के समाज में भी दलितों की जीवन-दशा ब्राह्मणवादी हिदू संस्कृति की वजह से दमित रही है। वहां भी दलितों, खासतौर पर औरतों की दशा बेहद अपमानजनक है। बेहद पढ़ी लिखी और उच्च शिक्षा में अंग्रेज़ी की लेक्चरर रहीं मंजुला अपने पति के हाथों मार खाती हैं और हर तरह के अपमान को झेलती हैं।

बहरहाल, समाज में और कम्युनिस्ट आंदोलन में दलितों की दशा को उकेर पाने में सफ़ल होने के बावजूद इस किताब में कई-कई विरोधाभास हैं। मसलन दलितों को समाज व आंदोलन में हर जगह नज़रअंदाज किया गया, लेकिन आंध्र में दलित कम्युनिस्ट आंदोलन का एक शानदार इतिहास रहा है। वहां के कम्युनिस्ट आंदोलन में बड़ी संख्या में दलितों ने हिस्सा लिया और कुर्बानियों दी है। कम्युनिस्ट आंदोलन से बहुत पहले 17वीं सदी में ही एक दलित संत पोतुलुरी वीर ब्रह्मम ने जाति-विरोधी आंदोलन किया था, जिसमें बड़ी संख्या में माला और माडिगा जाति के लोगों ने हिस्सा लिया था। 1930-50 के बीच के तेलुगू अख़बार और पुलिस की गुप्त रिपोर्ट यह हवाला देती है कि कई दलित नेता कम्युनिस्ट आंदोलन का राजनीतिक और सांस्कृतिक नेतृत्व कर रहे थे। नम्बुरी श्रीनिवास राव और बेतला यसुदास ऐसे ही कुछ नाम हैं। सत्यमूर्ति का पूरा जीवन संघर्ष इन्हीं आंदोलनों में निर्मित होता है। यह किताब दलित आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन के सकारात्मक पक्ष को मजबूती से नहीं उकेरती है।

किताब में एक अन्य विरोधाभास यह है कि पितृसत्ता के साथ संघर्ष कहीं नहीं दिखाई देता। इतने बड़े दलित कम्युनिस्ट नेता सत्यमूर्ति अपनी पत्नी की और औरतों की मुक्ति के बारे में नहीं सोचते। सत्यम की पत्नी अंत तक अपने बच्चों को गरीबी में अपने दम पर पालती हैं। सुजाता भी इस विषय में कोई रोशनी नहीं डालती हैं। स्वयं सुजाता की लेक्चरर मां अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोलती और अंत-अंत तक समझौता करती हैं। सुजाता इस विषय में भी खामोश हैं। 

इन सबके बावजूद सुजाता ने अपने परिवार का वृहद वृत्तांत लिखा है, जो मौखिक इतिहास का एक हिस्सा है। वह अपने मामा का नायकत्व चित्रण करते वक्त कुछ तथ्यों को अपूर्ण रखती हैं। जैसे कि वह बार-बार बताती हैं कि सत्यम ‘पीपुल्स वार ग्रुप’ के संस्थापक सदस्य थे। जबकि सच यह है कि जो भी आंदोलन को नज़दीक से जानते हैं, उन्हें यह पता है कि आंदोलन के दौरान किसी गुट ने भी ‘पीपुल्स वार ग्रुप’ का नाम अपने लिए इस्तेमाल नहीं किया। उन्हें यह नाम मीडिया ने दिया है। वे हमेशा खुद को सीपीआई (एम.एल. ‘पीपुल्स वार’) कहते रहे हैं।

इन सबके बावजूद सुजाता गिडला की यह किताब रेखांकित किये जाने के योग्य है। सत्यम और मंजुला के जीवन-वृत्त को पढ़ कर हम यह पाते हैं कि देश में हर जगह से कहीं ज़्यादा आंध्र के समाज में दलितों और औरतों ने संघर्ष किया और आज भी कर रहे हैं। 

(लेखिका विगत बीस वर्षों से सक्रिय सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उनकी अनेक कहानियां व कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।)

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