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*लेखन- भाषण का नहीं, हमारे आचरण का अनुकर्ता बनता है बच्चा*

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    राजेंद्र शुक्ला, मुंबई 

      जब शिशु बड़ा होता है और धीरे-धीरे बातों को समझने लायक जाता है, यहीं से उसका वास्तविक शिक्षण प्रारम्भ होता है।इस अवस्था में परिवार ही उसकी प्रवेशिका होती है, जिससे वह सब कुछ सीखता है। इसलिए परिवार का वातावरण उचित होना चाहिए।

       परिवार की व्यवस्था इस प्रकार की हो, कि बच्चा हर प्रकार की अच्छी आदतों का अनुकरण कर सके, जो उसके निर्माण में सहायक हो। इस अवस्था में माँ को बहुत बड़ी भूमिका निभानी पड़ती है। प्रगति का घोसला छोटी-छोटी आदतों के तिनकों से बुनकर  होता है। देखने में ऐसी आदतें छोटी भले ही हों, परन्तु इनका प्रभाव बच्चों के कोमल मन पर बहुत अधिक पड़ता है। 

     इन छोटी-छोटी आदतों में सर्वप्रथम है-नियमित दिनचर्या।प्रतिदिन समय पर उठना, शौच, स्नान, मंजन, सफाई आदि की नियमित आदत बच्चों में तथा पूरे परिवार में डालनी चाहिए। इसके साथ ही समय विभाजन से कई तरह के अन्य कार्य करने का यहाँ तक कि मनोरंजन-विश्राम का भी पर्याप्त समय मिल जाता है। बच्चों को समझाया जाए कि नियमित दिनचर्या के क्या लाभ हैं और अनियमितता से क्या हानियाँ होती हैं?

       इन बातों को बच्चों के मन पर अच्छी प्रकार बैठा देना चाहिए कि ये छोटी-छोटी आदतें उनके जीवन की नियमित दिनचर्या बन जाएँ। बच्चों में ऐसी भावना भरनी चाहिए कि वह अपने से बड़ों का सम्मान करें, उनसे शिष्टाचार के साथ बातें कर सकें।

       इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि परिवार में भी इसी के अनुकूल वातावरण बनाया जाए, क्योंकि बच्चा बन्दर की तरह नकलची होता है। जैसा स्वयं हम व्यवहार करते हैं, उसी का अनुकरण बच्चा भी करता है। इसलिए उसकी भावनाओं को उभारने के लिए उसी प्रकार के वातावरण का निर्माण करना चाहिए, जिसकी हम बच्चे से अपेक्षा करते हैं। 

      हमारी भारतीय परम्परा अपने से बड़ों का चरण स्पर्श द्वारा अभिवादन करने ही रही है। यह भावना बच्चों में भी भरनी चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि बड़े लोग भी बच्चों या अपने से छोटे-बड़ों से वैसा ही व्यवहार करें जैसी वे बच्चों से अपेक्षा करते हैं।

       बड़ों को भी बच्चों के साथ शिष्टाचार के साथ पेश आना चाहिए। व्यवहार में नम्रता-शीलता-सज्जनता का पुट रहना आवश्यक है। बच्चों का अपमान न किया जाए, उनके स्वाभिमान को ठेस न पहुँचाई जाए। अबोध बालक से भी ‘आप’ का सम्बोधन किया जाए। यदि ‘आप’ नहीं तो कम से कम ‘तुम’ तो कहा ही जाए। ‘तू’ के शब्द को असभ्य माना जाए। 

      कन्या या पुत्र में कोई अन्तर न समझा जाए, दोनों के साथ एक-सा व्यवहार किया जाए। बच्चों में धार्मिक भावनाओं का समावेश किया जाना चाहिए ताकि वे धर्म के मूल्यों को समझ सकें, उनमें ईश्वर के प्रति श्रद्धा व विश्वास बढ़ सके, इससे वे बड़े होकर अनीतिगामी न हो सकेंगे।

      इसके लिए प्रारम्भ से ही उन्हें सामूहिक प्रार्थना का अभ्यास मंत्रोच्चारण या कोई भावनापूर्ण प्रार्थना करने की आदत प्रात: एवम सायं डालनी चाहिए। साथ ही साथ उन्हें प्रार्थना के तथा गायत्री मंत्र के लाभों के बारे में भी बताया जाए।

      मिल-जुलकर खेलने तथा रहने की बच्चों में तीव्र भावना  होती है, यह भावना बनी रहे इसके लिए उचित वातावरण का होना आवश्यक है। मिल-बाँटकर खाने, एक ही खिलौने से मिल जुलकर खेलने की आदतों को बढ़ावा देना, परस्पर मिलकर काम करने की परम्परा डालने से उनमें विश्व मैत्री की भावना का विकास हो सकता है।

       कभी-कभी माता-पिता, बच्चों की छोटी-छोटी बातों से तङ्ग आकर अकारण ही उन्हें झिड़क देते हैं। इससे बच्चों के मन में हीन भावना घर कर जाती है, जो उनके विकास में बड़ी बाधा पहुँचाती है । अत:  बच्चे बेकार के कामों में न उलझे रहें, इसके लिए उनमें रचनात्मक  कार्यों के प्रति आकर्षण पैदा किया जा सकता है, जिससे वे  क्रियाशील रहें। 

      उन्हें ऐसी प्रेरणा दी जाए ताकि वे अपना कार्य स्वयं कर सकें, समय का उपयोग समझ सकें। (चेतना विकास मिशन).

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