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आजादी ढोंग बनकर रह गयी है….देशद्रोही की संतान देश प्रेम के अकेले ठेकेदार बन गए

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सुब्रतो चटर्जी

जब तक फ़ासिस्ट सत्ता पर क़ाबिज़ हैं, तब तक ये सच नहीं बदलेगा. आज जब देशद्रोही लोगों के संतान देश प्रेम के अकेले ठेकेदार बन गए हैं, तब यह प्रश्न पूछना समीचीन है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी को माइनस कर हम किस आज़ादी का जश्न मना सकते हैं ? नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत कुंठा, मूर्खता, आत्मश्लाघा से परिचित होते हुए भी भारत के प्रधानमंत्री होने के नाते मुझे उनसे इतनी नीचता की उम्मीद नहीं थी लेकिन वह राजनीति ही क्या जो आपके वहमों गुमां से आगे न हो !

एक मासूम की हत्या पानी के लिए जिस देश में हो जाती है, उस देश में मैं किसी तरह का उत्सव नहीं मना सकता. आज का दिन मेरे लिए उन भूलों के लिए प्रायश्चित करने का है, जिनके लिए मैं व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार नहीं हूं, लेकिन इस देश का नागरिक होने के कारण हूं. आज जब देश जश्न मना रहा है, मैं खुद को ईंद्र के विलाप करते हुए घर में पा रहा हूं.

आजन्म तिरंगा और संविधान जलाने वाले भी आज के दिन उसे सलामी देने को बाध्य हैं, यही है तिरंगे की असली ताकत. यही है आज के दिन की असल पहचान. पुरखों को गाली देने वाले भी उन्हीं की विरासत ढोने को बाध्य हैं और जो मूर्ख ये मानते हैं कि भारत राष्ट्र की अवधारणा को कुछ अनपढ़ टुच्चे सत्ता का बेजा इस्तेमाल करके आमूल चूल बदल देंगे और भारत को एक सर्व धर्म संगम स्थली, आधुनिक, प्रगतिशील राष्ट्र बनने की प्रक्रिया को गाय और गोबर से ढंक देंगे, उनके लिए भी यह दिन एक रिमाइंडर है कि इतना भी आसान नहीं है प्रेम पर घृणा का आधिपत्य स्थापित करना.

आप सब जैसे मैं भी अपने देश की व्यवस्था की त्रुटियों से अवगत हूं लेकिन मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि टू नेशन थियोरी की घृणित पुनरावृत्ति इन समस्याओं का समाधान है. जब हम धर्म के नाम पर किसी को वोट देते हैं या किसी पार्टी विशेष को हिंदू या मुस्लिम हितों के रक्षक के रूप में देखते हैं तो हम उसी थियोरी को आगे बढ़ाते हैं, नतीज़ा ये होता है कि फासिस्ट सत्ता में आते हैं चोर दरवाजे से और भूख, ग़रीबी, नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे मुद्दे संवाद से गायब हो जाते हैं और हम बातें करते हैं धर्म की, धार्मिक उन्माद की, लोगों के भोजन और जीवनशैली की, जिसका कोई सारोकार देश की समस्याओं से नहीं है.

बिकने की होड़ लग जाती है. लेखक बिकते हैं, पत्रकार बिकते हैं, नेता बिकते हैं, सबकुछ बिकता है इसलिए कि बाज़ारवाद की संस्कृति में बिकाऊ होना ही आपकी पहचान है. सबसे दुःखद होता है तथाकथित भारतीय मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों का बिकना. जब कोई स्वघोषित कवि या साहित्यकार खुलेआम किसी पार्टी के लिए वोट मांगता दिखे तो उस बिकाऊपन के लिये एक नये शब्दकोश की ज़रूरत होगी.

यही सबसे खतरनाक है. आपका दिमाग और आपकी रुह अगर किसी राजनीतिक दल के घृणित मेनिफेस्टो के हाथों गिरवी है तो आप सिर्फ और सिर्फ अंधेरा ही फैलायेंगे. अंत में इतना ही कहना चाहूंगा कि लड़िये, इस मानसिक दासता के विरुद्ध लड़िये. स्काईप पर बैठकर पश्चिमी सभ्यता को गाली देना दोगलापन है. उसी तरह सिर्फ भगवा पहनकर वंदे मातरम बोलने को देशभक्ति समझना भी दोगलापन है. किसी भी व्यक्ति या संस्था का पांच हज़ार सालों पुरानी भारतीय संस्कृति का अकेला झंडाबरदार कहना भी दोगलापन है. ऐसे दोगलेपन से बचिए. मानसिक स्वतंत्रता के बिना हर स्वतंत्रता अधूरी है.

डरबन सिंह लिखते हैं – 15 अगस्त,  आज स्वतंत्रता दिवस है लेकिन किसके लिये ? उनके लिये जो आजादी की लड़ाई में शहीद हो गये या उनके लिये जो अंग्रेजों की दलाली करते थे, जेल से छूटने के लिये बार बार माफी मांगते थे, या उनके लिये जो हंसते-हंसते फांसी के फन्दे पे लटक गये लेकिन माफी नहीं मांगी. या उनके लिये जो आज भी छत विहिन हैं और भूखे पेट सोने को विवश हैं. जो दिल्ली की सड़कों पर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा बेचकर रात की रोटी का जुगाड़ करते हैं.

पिछले साल 14 अगस्त की शाम को दिल्ली की सड़कों से गुजर रहा था. देखा की दिल्ली की सड़कें सज रही थी. बांस बल्ली से रास्ता घेरा जा रहा था. पूरी दिल्ली को राजपथ और जनपथ में बांटा जा रहा था. रात 12 बजे लौट रहा था तब भी ठेकेदार मजदूरों से काम करा रहा था.

मैं रूक कर एक मजदूर पूछ लिया – ‘अरे भाई कब तक काम करोगे ? खाना सोना नहीं है ?’ पहले वो कुछ बोले नहीं लेकिन जब हमने बिहारी भोजपुरी में पूछा कि – ‘राउर लोग कउनी जग्गह से आईल बानी’.’ तो उसमे से जो थोड़ा पढा लिखा लग रहा था बोला – ‘बिहार से.’ मैंने फिर पूछा – ‘बिहार में कवन जिला.’ बोला – ‘मधुबनी.’ बात शुरू हुई. पता चला कि ठेकेदार इन सबको एडवांस रूपया देकर लाया है. ये मजदूर नहीं, आजाद भारत के बंधुआ गुलाम आज भी हैं. इनके लिए 15 अगस्त और 26 जनवरी का क्या मतलब है ?

आजादी ढोंग बनकर रह गयी है. एक तरफ अंबानी अडानी जो 14 हजार करोड़ के बंगले मे अय्याशी कर रहे हैं और दूसरी तरफ ये बंधुआ मजदूर घर से हजारों किलोमीटर दूर आजादी के जश्न मनाने वालों के लिये राजपथ / जनपथ बनाने के लिये रातभर जग रहे हैं. पंडित नेहरू का भाषण ‘Tryst with Destiny’ का यही मतलब था. पंडित जी दूरद्रष्टा भी थे.

उन्होंने कहा था कि इस देश में फासिज्म आ सकता है और जब
भी आयेगा, मिडिल वर्ग ही उसका कारण होगा. सभी सामंत, शोषक, जमीन पर कब्जा, अधिकारी, नेता इत्यादि इसी मध्य वर्ग से ही हैं. हिटलर जो सभ्य समाज के लिये कलंक था, आज उसके अनुयायी लोकतंत्र के खामियों के चलते इस देश पर 2014 में 31% और 2019 में 38% वोट पाकर कब्जा कर लिया है.

टाटा, अडानी और अंबानी के रहमोकरम पे देश है. 69% लोग को शासन सत्ता के बल पर दबाया जा रहा है. नितीश की तरह जो दलाल बन गया उसको ताज और जो स्टेन स्वामी की तरह जो विरोध किया जेल या जेल में ही हत्या. यही तो हिटलर भी करता था. लल्लू जगधर के नेता राम विलास पासवान, मेघवाल, मायावती, अठावले, मौर्या, कुशवाहा और उदित राज जैसे दलित पिछड़ों के दलाल, उस भागवत जो मनुवादी व्यवस्था का पोषक है, की दलाली कुर्सी के लिये कर रहे हैं.

इन सबका पुराना भाषण आप सुन लो और इनको आज देख लो, शर्म आयेगी. डाक्टर अंबेडकर अगर आज होते तो वो भी आज इन दलालों को देखकर रो देते. सत्ता के लिये ये किसी सीमा तक नीचे गिर सकते हैं. इसकी शुरूवात इनके महान नेता डाक्टर लोहिया ने ही किया था. गांधी की हत्या के बाद संघ, जनसंघ अछूत राजनीतिक दल थे. 2 सीट पाते थे. डाक्टर लोहिया पंडित नेहरू के वैचारिक विरोधी थे, उनकी नीतियों से सहमत नहीं थे लेकिन पंडित नेहरू के कद के आगे डाक्टर लोहिया का कद बौना था.

1957 का लोकसभा चुनाव मे डाक्टर लोहिया चंदौली से लोक सभा का चुनाव लड़े और जीत सुनिश्चित थी लेकिन डाक्टर लोहिया का वैचारिक मतभेद चुनाव के दो दिन पहले व्यक्तिगत स्तर पे आ गया और डाक्टर लोहिया ने कहा कि ‘देश के पीएम की कुर्सी पर एक चपरासी/ चौकीदार का बेटा बैठा है वो क्या देश चलायेगा.’
यही बात अखबारों में छपी.

चुनाव के एक दिन पहले बेनियाबाग के मैदान में पं. नेहरू की सभा थी. पं. नेहरू भाषण कर रहे थे, उसी बीच में किसी ने उनको एक अखबार में लोहिया के भाषण की कटिंग पकड़ा दी. पं. नेहरू ने देखा और अपने सदरी के पाकेट में रख लिये. पं. नेहरू ने 33 मिनट भाषण किये देश के विभिन्न सवालों पर. भाषण समाप्त करने के पहले वो अपने पाकेट से पेपर कटिंग निकाले और बोले –

‘किसी ने अखबार की कटिंग हमें दी है, जिसमें बगल वाली सीट से चुनाव लड़ रहे मेरे आजादी की लड़ाई के साथी ने मेरे बारे मे कहा है कि चपरासी / चौकीदार के खानदान का हूं और चपरासी का बेटा क्या देश चलायेगा ?’ पं नेहरू ने कहा – ‘मुझे नहीं मालूम कि मेरे खानदान में कोई चपरासी / चौकीदार था लेकिन मेरे साथी अगर सही हैं तो उनको गर्व होना चाहिये कि चपरासी का बेटा पीएम है, हमें तो है.’

डाक्टर लोहिया ने जब सवेरे अखबार में पं. नेहरू का भाषण पढा तो सिर पीट लिया. डाक्टर लोहिया ने कहा कि मैं चुनाव हार गया, और वही हुआ. बड़े आदमी की छोटी-सी गलती कभी-कभी ऐसा परिणाम देती है कि सोचा नहीं जा सकता. उसके बाद लोहिया पं. नेहरू के वैचारिक और नीतिगत विरोध छोड़कर व्यक्तिगत विरोध के स्तर पर आ गये. यहीं से जनसंघ जो गांधी हत्या के बाद अछूत थी, ने लोहिया के कंधे पर बंदूक रख कर नेहरू पर निशाना लगाने की रणनीति बनायी.

जनसंघ ने लोहिया को समझाया कि बाहर से आप कुछ नहीं कर सकते. भाषण लोहिया का और भीड़ जनसंघ की. लोहिया की सभा मे संघ और जनसंघ भीड़ लाता था. लोहिया को भ्रम हो गया कि लोग हमको सुने आते हैं. जब जनसंघ ने कहा कि आप संसद के अंदर चलकर अपनी बात रखें, हम आपकी मदद करेंगे. लोहिया ने अपने जीवन की महान गलती संसद में जाने के लिये किया और 1963 उप चुनाव में जनसंघ से समझौता करके फर्रूखाबाद से चुनाव लड़े और जनसंघ की मदद से जीते, और उसी चुनाव में जौनपुर से दीन दयाल जी हारे. लेकिन जनसंघ को लोहिया ने गांधी की हत्या से बरी कर दिया.

संसद में डाक्टर लोहिया नेहरू पर अटैक करते समय व्यक्तिगत स्तर पर आ जाते थे लेकिन पं. नेहरू कभी भी प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करते थे, ध्यान से सुनते थे. एक बार कुछ मंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता पं. नेहरू के बंगले त्रिमूर्ती भवन पर गये. पं. नेहरू ने आने का कारण पूछा तो लोग बड़े गुस्से में बोले –

‘आप कुछ बोलते नहीं. लोहिया कांग्रेस को तो गाली देता ही है और आप पर भी व्यक्तिगत तथ्यहीन आरोप लगाता है. पानी सिर से उपर जा रहा है. आप हम लोगों को अनुमति दीजिए उनके उपर मान हानि का केश करने के लिये.’

पं नेहरू ने कहा –

‘वो विपक्ष के नेता हैं. क्षेत्र में देखते होंगे आप लोग काम नहीं ठीक से करते होंगे तो बोलते हैं. आप लोग एमपी, मंत्री हैं, ठीक से काम करके उनके आरोपों का जबाब दीजिए. और वो हमें गाली देते हैं तो हमको तो बुरा नहीं लगता. हमें जनता ने चुनकर भेजा है तो उनको भी जनता ने ही भेजा है. वो अपना काम कर रहे हैं मैं अपना. आप लोग भी अपना काम करें. रही बात उनके खिलाफ केश की तो क्या आप लोग चाहते है कि दुनियां मे यह संदेश जाय कि महान कांग्रेस के नेता पं. नेहरू एक छोटी पार्टी के नेता को बोलने नहीं देना चाहते ? यह काम मुझसे आप लोग सोच कैसे लिये ? जाइये आप लोग यहां से, मेरा समय बरबाद मत करिये.’

यह कहकर पं. नेहरु ने उन्हें भगा दिया. तो ऐसे थे पं. नेहरू.

1967 में लोहिया ने कांग्रेस विरोध के नाम पर जनसंघ के साथ मिलकर 10 राज्यों में चुनाव लड़े और सरकार बनाई और जल्दी ही उनको अपनी गलती का एहसास हो गया. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.फिर आपनी ही सरकार को गिराना शुरू किये. तब तक तथाकथित समाजवादियों को सत्ता का स्वाद मिल चुका था और वो लोहिया के कदमों पर चलने को ही आदर्श मानकर सत्ता के लिये किसी भी स्तर पल नीचे गिर सकते हैं.

लोहिया नहीं रहे। कांग्रेस पार्टी पर श्रीमती इंदिरा गांधी का कब्जा हो गया. कैसे हुआ नहीं बताना होगा. फिर आये दूसरे महान समाजवादी नेता जो कभी मार्क्स में भी विश्वास करते थे, ने भी जनसंघ को देशभक्त का सर्टिफिकेट दे दिया. लोहिया के साथी मधु लिमये, राजनरायन, आचार्य नरेन्द्र देव के शिष्य चंद्रशेखर, इंदिरा से दुःखी मोरार जी भाई, चौधरी चरण सिंह इत्यादि ने जनसंघ से मिलकर बैशाखी पर पड़े जे. पी. को आगे रखकर जनता पार्टी बनायी.

जनसंघ जनता पार्टी मे विलिन तो हुआ आपद धर्म में सरकार भी बन गयी लेकिन मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता की बात ऊठा कर जनसंघ पर दबाब डाला. संघ से नाता तोड़ने के लिये और नेताओं के आपसी कलह से जनता पार्टी नष्ट हो गयी. 1980 में फिर चुनाव हुआ. श्रीमती गांधी पुन: सरकार बनायी. पूर्व जनसंघ गांधीवादी दुपट्टे के साथ खोल बदलकर भारतीय जनसंघ की जगह भारतीय जनता पार्टी बनकर आ गयी. शराब वही बस दुकान का बोर्ड व शराब का ब्रांड बदल दिये.

एक नरम चेहरा अटल बिहारी बाजपेयी को मुखौटा बनाया. देश में घूमने के लिये और पीछे से कट्टरता के चेहरा को संगठन दे दिया. 1984 में श्रीमती गांधी की हत्या हो गयी. हत्या के परिणामस्वरूप राजीव गांधी 2/3 से ज्यादा सांसद जीता लिये और सरकार बना लिये. राजीव गांधी राजनेता नहीं थे, उनके चारों और चाटुकारों का घेरा बन गया और बोफोर्स के फर्जी साजिश के शिकार हो गये. उनको हटाने के लिये 1977 वाले फिर एक हो गये.

1977 में भी नेता मोरारजी देसाई जो कांग्रेसी ही थे और 1989 में भी नेता वी. पी. सिंह भी कांग्रेसी ही थे. 1977 में जनसंघ जनता पार्टी में विलय होकर इंदिरा गांधी को हरायी और 1989 बीजेपी ने जनता दल से बाहर से तालमेल कर कांग्रेस को हरायी. 1977 में जनसंघ सरकार में रहकर विदेश और सूचना मंत्रालय लेकर संघ को मजबूत किया और 1989 में वी. पी. सिंह की बैशाखी बनकर सरकार को कब्जे में रखा. वी. पी. सिंह को एक तरफ बीजेपी का कंधा थो तो दूसरी तरफ उसके घोर विरोधी वामपंथियों का.

वी. पी. सिंह मंडल लाये तो बीजेपी सरकार से समर्थन वापस लेकर कमंडल लाये. यही वह समय था जब गांधी, नेहरू, अंबेडकर के सेकुलर समाज और देश में सांप्रदायिक ताकतें खुलकर सामने आ गयी. अडवाणी का रथ किसको याद नहीं. जैसे ही रथ बिहार में पहुंचा लालू ने जनता दल की आपसी द्वंद का सहारा लेकर अडवाणी को गिरफ्तार करके बंगाल के किसी गेस्ट हाऊस में डिपोर्ट कर दिया. वही हुआ जो होना था, बीजेपी समर्थन वापस ले ली और वी. पी. सिंह की सरकार धड़ाम से गिर गई.

नाईट वाच मैन के रूप में चंद्रशेखर जी की ईच्छा का भी देश ने खयाल रखा पर 50-60 सांसद की सरकार कितने दिन चलेगी ? वे भी शहीदों के लिस्ट में नाम लिखाकर चले गये. जाने का कारण समर्थक पार्टी कांग्रेस के नेता कि दो होमगार्ड के जवान द्वारा निगरानी करने के आरोप पर चंद्रशेखर ने इस्तीफा दे दिया. उनका भी उद्देश्य अकबर बादशाह उत्तराधिकारी की लिस्ट मेऔ नाम दर्ज कराना था, हो गया.

देश पुन: एक बार आम चुनाव में चला गया. चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या कर दी जाती है. सदी का दर्दनाक घटना, प्रकृति भी बेकल थी, रात को पूरे देश में आंधी तूफान के साथ बारिश. दूसरे दिन चुनाव आयोग ने आगे का चुनाव प्रक्रिया महीने भर के लिये स्थगित कर दी.

इन सब सत्ता के खेल की सतत क्रिया में वह आदमी कहीं दिखाई नही दिया जो हर साल 15 अगस्त, 26 जनवरी को मधुबनी बिहार से आकर राजपथ – जनपथ से होते हुये लालकिला तक बांस बल्लियां गाड़कर रास्ता बनाता है, जिससे लोग लालकिले से बुलेट प्रूफ में बैठे हुये देश के रहनुमा बादशाह का दर्शन और उनके शहद की चाशनी में डूबी हुई वाणी को सुन सकें, भले ही वह पूरी तरह झूठ का पुलिंदा ही क्यूं न हो !

14 अगस्त 1947, स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर तिरंगे को अपशकुन बताने वाले और पैरों से कुचलने वाले अंग्रेजों के दलालों के संघी मसीहा गोलवलकर के वंशज 75 साल बाद आज स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ मनाने का ढोंग कर रहे हैं, थू थू थू… !

सोनिया गांधी को जर्सी गाय और कांग्रेस की विधवा कहकर जलील करने वाले, ‘बेटी बचाओ, बेटी पटाओ’ का डायलाग बोलने वाले विश्व गुरू आज महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वाभिमान की बात कर रहे हैं ! गांधी का तलुआ चाटने का ढोंग कर रहे हैं और अमृत महोत्सव के बैनर से नेहरू की फोटो गायब करके अंग्रेजों के दलाल माफीबीर सावरकर को आजादी का मसीहा बता रहे है ! यह दोगलापन कहलाता है !!

प्रतिभा एक डायरी’ से साभार

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