लाल बहादुर सिंह
यह स्वागत योग्य है कि उच्चतम न्यायालय ने “समाजवादी” तथा “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को संविधान से हटाने की याचिकाओं को कल खारिज कर दिया है और कहा है कि ये शब्द संविधान में बने रहेंगे। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने आजाद भारत के नये संविधान को भारत की जनता को समर्पित किया। यह हमारे महान स्वतंत्रता आंदोलन से निकले मूल्यों का दस्तावेज है।
75 साल के इसके इतिहास में वैसे तो तमाम समयों पर इसकी मूल भावना के विपरीत अनेक सरकारों ने आचरण किया है, जिनमें एक उल्लेखनीय घटना 1959 में केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार की अवैध बर्खास्तगी थी। लेकिन इनमें दो काल खंड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जून 75 से मार्च 77 तक 19 महीने का निरंकुश आपातकाल, दूसरा 2014 से अनवरत जारी मोदी का अघोषित फासिस्ट राज।
डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में चेतावनी दी थी कि देश में राजनीतिक लोकतंत्र तो आ गया है, लेकिन सामाजिक आर्थिक लोकतंत्र नहीं आ पाया तो राजनीतिक लोकतंत्र भी खतरे में पड़ जाएगा। उन्होंने यह भी सचेत किया था कि संविधान चाहे जितना अच्छा हो अगर उसको लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं तो संविधान सफल नहीं हो सकता। उनकी यह दोनों बातें अक्षरशः सत्य साबित हुई हैं।
आपातकाल के दौर का इतिहासकार पत्रकार रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘भारत नेहरू के बाद’ में विशद वर्णन किया है।इसकी पृष्ठभूमि में गुजरात के छात्रों का नव निर्माण आंदोलन था। दरअसल वहां की कांग्रेस सरकार आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई थी। राज्य के मुख्यमंत्री चिमन चोर के नाम से मशहूर हो गए थे। कॉलेज मेस के बढ़े चार्ज से शुरू होकर चिमन भाई पटेल की भ्रष्ट सरकार को बर्खास्त करने की मांग को लेकर एक बड़ा छात्रांदोलन खड़ा हो गया जिसके दबाव में अंततः चिमन पटेल को इस्तीफा देना पड़ा।
गुजरात से प्रेरणा लेकर बिहार के छात्रों ने भी 1972 में गठित अपने राज्य की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। छात्र संगठनों ने छात्र संघर्ष समिति नाम का मोर्चा बनाया जो तेजी से पूरे प्रदेश में फैल गया। जगह जगह छात्र सड़कों पर उतरने लगे।
अंततः 18 मार्च 1974 का वह ऐतिहासिक दिन आया, जो आंदोलन में एक अहम मोड़ साबित हुआ। छात्र संघर्ष समिति ने विधानसभा कूच का नारा दिया। पुलिस ने रोकने की कोशिश किया। जगह-जगह छात्रों और पुलिस के बीच हिंसक झड़पें हुई।3 छात्रों की जान चली गई।आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया। छात्र पूरे राज्य में सड़कों पर उतर आए। छात्रों ने जयप्रकाश नारायण से आंदोलन के नेतृत्व की अपील किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। और फिर तो जैसा कहा जाता है, बाकी इतिहास है।
जेपी आजादी की लड़ाई विशेषकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के हीरो थे। उन्होंने नेहरू के आमंत्रण के बावजूद उनके मंत्रिमंडल में शामिल होने की बजाय बाहर रहना पसंद किया था। जेपी के नेतृत्व ग्रहण करने के बाद आंदोलन एक नए राजनीतिक धरातल पर पहुंच गया। जिसकी अंतिम परिणति इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल लगाने में हुई। लाखों की संख्या में विरोधी राजनीतिक नेता कार्यकर्ता जेलों में डाल दिए गए। मौलिक संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए। देश के संविधान में ऐसे बदलाव किए गए जो कार्यपालिका को निरंकुश अधिकारों से लैस करते थे।
बहरहाल आज मोदी राज में संविधान के लिए जो चुनौती है, वह बुनियादी तौर पर बिल्कुल अलग स्तर की चुनौती है। आज संविधान की मूल भावना और बुनियादी मूल्यों को ही बदलने की कोशिश हो रही है। यह कुछ संशोधन करने का मामला नहीं है या महज कार्यपालिका द्वारा कुछ निरंकुश अधिकार प्राप्त कर लेने का मामला नहीं है जैसा कि इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल के दौरान हुआ था, बल्कि यह संविधान की बुनियाद को ही बदलने का मामला है।
यह बात बहुत साफ तौर पर प्रधानमंत्री की सलाहकार समिति के बिबेक देबरॉय ने कहा था कि एक संविधान की औसत उम्र 17 साल होती है और यहां हमारे संविधान को 73 साल हो चुके हैं, इसलिए मामला कुछ संशोधनों का नहीं है, बल्कि बैक टू बेसिक्स जाना होगा, मूल सिद्धांतों को बदलना होगा।
हमारे संविधान की जो मूल भावना है कि यह एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र है उसे बदलने की बात है। कहा जा रहा है कि यह संविधान औपनिवेशिक है। इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है, यह पुराना पड़ चुका है। इसलिए इसे खारिज करके एक बिल्कुल नए भारतीय संविधान की रचना करना है।
बहरहाल लोकसभा चुनाव के नतीजों ने ऐसा चाहने वालों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। आरएसएस- भाजपा के लोग जो 400 सीटें जीतकर संविधान बदलने का ख्वाब देख रहे थे, उसे जनता ने चकनाचूर कर दिया और वे अयोध्या में ही अपना चुनाव हार गए। दरअसल यह चुनाव एक तरह से संविधान पर जनमत संग्रह था। एक तरफ लोग संविधान की रक्षा के लिए, आइडिया ऑफ इंडिया को बचाने के लिए खड़े थे दूसरी ओर प्रधानमंत्री के संवैधानिक पद पर बैठकर मोदी कह रहे थे कि उनके लिए राम ही आइडिया ऑफ इंडिया थे। जाहिर है यह एक बेहद गंभीर बात थी और धर्मनिरपेक्षता के उसूल का खुला उल्लंघन था।
बहरहाल लोकसभा चुनाव नतीजों ने यह सुनिश्चित कर दिया कि अब संघ भाजपा संविधान को बदल नहीं पाएंगे। उसकी मूल आत्मा और बेसिक स्ट्रक्चर के साथ छेड़ छाड़ संभव नहीं होगी। इस चुनाव में एक तरह से यह सवाल दांव पर था कि भारत एक सेकुलर लोकतांत्रिक राष्ट्र रहेगा या सनातन धर्म और फासीवाद के रास्ते पर चलेगा।
मोदी राज में आर्थिक सामाजिक लोकतंत्र और न्याय की धज्जियां उड़ चुकी हैं। आज भारत दुनियां के सर्वाधिक गैर बराबरी वाले देशों में है। देश के ऊपरी 1% लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 22.6% है और 10%के पास 57% है। जबकि सबसे नीचे के 50% से अधिक आबादी के पास 13% से भी कम है। कुल धन संपदा ऊपरी 1% के पास 40.1% है। इसके पीछे जो कारण हैं वे बहुत स्पष्ट हैं उत्तराधिकार में मिली संपत्ति, क्रोनी कैपिटलिज्म, ऊपर वालों पर टैक्स का बहुत कम होना, उच्चतर टेक्नोलॉजी जिससे पूंजीपतियों का मुनाफा तो बढ़ रहा है लेकिन तमाम लोग बेरोजगार हो रहे हैं।
उधर सरकार शिक्षा स्वास्थ्य आदि पर बहुत कम खर्च कर रही है जिससे निचले तबकों की कमाई उसी में लग जा रही है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि अमीरों की संपत्ति पर बड़े पैमाने पर टैक्स लगाया जाय और उसे लोक-कल्याणकारी मद में खर्च किया जाय।
आज स्थिति यह है कि भारत में 271 खरबपति हैं जिनमें से 94 खरबपति केवल 2023 में जुड़े हैं। नए खरबपतियों की यह संख्या अमेरिका को छोड़कर दुनिया में सर्वाधिक है। भारत के सबसे धनी अंबानी अदानी जिंदल जैसे लोग अब दुनिया के सबसे बड़े अमीरों एलन मस्क जैसों की कतार में आ गए हैं। आज भारत में ब्रिटिश राज से भी अधिक गैर बराबरी है। यह हाल तब है जब हमारे देश में जीडीपी विकास दर 8% है और 2027 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की बात चल रही है।
देश में 1991 में एक खरबपति से बढ़कर 2022 में 162 खरबपति हो गए और कुल राष्ट्रीय आय में उनका हिस्सा 1%से बढ़कर 25% पहुंच गया। यह इस बात को दिखाता है बड़े व्यापारिक घरानों और सरकार के बीच गहरा गठजोड़ कायम हो चुका है और संपत्ति का अभूतपूर्व संकेद्रण हो चुका है। मोदी राज में क्रोनी पूंजीपतियों और सत्ता शीर्ष का गठजोड़ अपने चरम पर पहुंच चुका है। जिस व्यक्ति के घोटालों के खिलाफ अमेरिका तक की कोर्ट से वारंट जारी हो चुका है, वह भारत में सत्ता संरक्षण में निश्चिंत और निर्द्वंद्व है। उस पर संसद में बहस तक की इजाजत नहीं दी जा रही है।
एक ओर आर्थिक सत्ता का यह अभूतपूर्व संकेद्रण है, दूसरी ओर हमारी विराट आबादी न्यूनतम नागरिक अधिकारों, शिक्षा स्वास्थ्य, रोजगार से वंचित है। जबकि प्रो. प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2% सुपर टैक्स अगर 167 सबसे बड़े धनवानों पर लगा दिया जाय, तो यह संपूर्ण राष्ट्रीय आय का 0.5% हो जाएगा और इससे सबके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण की व्यवस्था हो सकती है।
आर्थिक संकेद्रण के राजनीतिक परिणाम सुस्पष्ट हैं। आर्थिक सत्ता जिनके हाथ में केंद्रित है, वह अकूत सम्पदा उनके संरक्षक राजनीतिक आकाओं की बदौलत ही संभव हुई है। इसलिए बदले में वे उन्हीं राजनीतिक ताकतों को सत्ता में बनाए रखने के लिए सभी संभव उपाय करते है। इसमें एक प्रमुख साधन मीडिया है।पिछ्ले दस साल से हम मीडिया का जो हाल देख रहे हैं, वह इसी परिघटना का परिणाम है। मीडिया पूरी तरह से सत्ताधारी दल का भोंपू बन गया है।
दूसरा इसका सबसे गंभीर परिणाम राजनीति में धनबल का प्रभाव बढ़ने के रूप में सामने आया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस बार लोकसभा चुनाव लड़ने वालों में प्रत्येक 3 उम्मीदवारों में एक करोड़पति था, वहीं जीतने वालों में इस बार 93% करोड़पति हैं जबकि 2014 में इनकी संख्या 82% थी और 2019 में यह बढ़कर 88% हो गई थी। अब और बढ़कर 93% तक पहुंच गई है।
एडीआर (ADR) की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि एक औसत सांसद की कुल संपत्ति 15 साल में 7 गुना बढ़ गई है। यह तो खैर सांसदों की व्यक्तिगत बात है। इलेक्टोरल बॉन्ड का जो मामला सामने आया है, उससे साफ है कि कॉर्पोरेट घरानों ने तमाम पार्टियों को अकूत धन दिया है, बेशक उसका सबसे बड़ा हिस्सा शासक पार्टी को मिला है जिसने यह योजना अपने हित में शुरू किया था।
यह स्पष्ट है कि धनबल के संकेद्रण ने हमारे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए भी खतरा पैदा कर दिया है जिसकी चेतावनी अपने अंतिम भाषण में डॉ. अम्बेडकर ने दिया था कि अगर देश में सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हो पाया तो राजनीतिक लोकतंत्र भी जिंदा नहीं रह पाएगा। इस संदर्भ में उसी अंतिम भाषण में ब्रिटिश राजनीतिशास्त्री मिल को उद्धृत करते हुए कही गई एक अन्य बात भी बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था, “अपनी स्वतंत्रता कभी भी महान से महान व्यक्ति के भी चरणों में समर्पित न करें, उसे संस्थाओं को ध्वस्त करने का अधिकार न दें।”
बहरहाल देश ने कम से कम दो बार यह गलती की। पहली बार इंदिरा गांधी के समय और दूसरी बार मोदी के समय। इंदिरा गांधी के चाटुकारों ने नारा दे दिया, “इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा” इसी भावना ने अंततः देश में लोकतंत्र का अंत कर दिया और देश एक निरंकुश तानाशाही के शिकंजे में जा फंसा।इसी का और उग्र रूप हम मोदी के मामले में देखते हैं। देश की आबादी के एक अच्छे खासे हिस्से ने आंख मूंद कर मोदी के ऊपर विश्वास किया।
इसका नतीजा हमारे सामने है।मोदी ने एक एक कर सारी संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म कर उन्हें अपनी जेबी संस्थाओं में तब्दील कर दिया। इंदिरा गांधी से सीख लेते हुए एक साथ एकमुश्त विरोधियों की गिरफ्तारी न कर उन्होंने दूसरा रास्ता लिया। विपक्षी नेताओं को केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करके डराने धमकाने की कोशिश हुई। जो डर गए, उन्हें इनाम देकर पार्टी में शामिल कर लिया गया और जो तैयार नहीं हुए उन्हें तरह तरह से परेशान किया गया, कई को जेलों में डाल दिया गया।
मोदी जी ने अर्बन नक्सल का एक नया टर्म ही ईजाद कर दिया। नतीजतन बड़े पैमाने पर असहमत बुद्धिजीवी जेलों में बिना मुकदमा चलाए सड़ाये गए। फादर स्टेन स्वामी की तो जेल में ही मौत हो गई। हाल ही में जेल की लंबी प्रताड़ना झेलने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर साईं बाबा की भी मौत हो गई। उमर खालिद जैसे न जाने कितने लोग जेल में चार चार साल से पड़े हैं, उनका मुकदमा ही अभी शुरू नहीं हुआ और न उन्हें बेल मिल पा रही है।
जाहिर है देश के संविधान को कथनी और करनी (letter and spirit) में बचाने और लागू करवाने के लिए लोकतांत्रिक ताकतों को लंबी जद्दोजेहद से गुजरना है।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)