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भारतीय संसद और जनतंत्र का सबसे काला दिन

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मुनेश त्यागी 

       आज भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन किया गया जिसमें कहा गया है कि नया संसद भवन भारत के विकास पथ को लगातार मजबूत करेगा और लाखों लोगों को सशक्त बनाएगा। यहां पर यह स्मरणीय है कि इस उद्घाटन के मौके पर भारत के 21 विपक्षी दलों ने इस मौके का बहिष्कार किया और अपना विरोध दर्ज कराया।

     इस उद्घाटन के मौके पर देखा गया कि वहां पर अग्रिम पंक्ति में साधु संतों की भीड़ है जिन से नरेंद्र मोदी हाथ जोड़कर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे। इस मौके पर खासतौर से देखा गया कि यहां पर धर्मांध और अंधविश्वासी साधु संतों की भीड़ थी। इस मौके पर वहां पर प्रगतिशील वैज्ञानिक, प्रोफेसर, राजनेता, वकील, जज, इंजीनियर टेक्नीशियन किसान और मजदूरों के प्रतिनिधि मौजूद नहीं थे।

      यहीं पर देखा गया की राजदंड और धर्म दंड का विशेष रूप से प्रदर्शन किया गया। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत के तत्काल प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा संसद का उद्घाटन किया गया था तो उसमें उस समय के सभी जातियों, धर्मों और वर्गों के तमाम विशेषज्ञ और प्रगतिशील बुद्धिजीवी और राजनेता मौजूद थे।

     मगर आज उद्घाटन के लिए सरकार द्वारा इस देश को सक्षम और आधुनिक बनाने वाले प्रगतिशील वैज्ञानिकों, प्रोफेसरों, तकनीशियनों इंजीनियरों को, इस देश को मजबूत और सक्षम बनाने वाले किसानों और मजदूरों को, इस देश की न्यायिक  प्रणाली को आधुनिक बनाने वाले न्यायाधीश और वकील मौजूद नहीं थे। यह सब देख कर ऐसे लगा कि जैसे यह भारत के जनतंत्र का और संसद के इतिहास का सबसे काला दिन है।

      संसद के उद्घाटन के मौके पर अनेकों पुजारियों और धर्मांधों को देखकर लगा कि जैसे हमारी वर्तमान सरकार ज्ञान विज्ञान और विवेक को त्याग कर अंधविश्वासी, धर्मांध और पेट के पुजारी पंडों की शरण में पहुंच गई है। यहां पर सवाल उठता है कि आखिर प्रधानमंत्री इन अंधविश्वासी और धर्मांध लोगों को बुलाकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?

       इस सब को देख कर लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री और वर्तमान सरकार का, आधुनिकतम शिक्षा, ज्ञान और विज्ञान में कोई विश्वास नहीं है। वह भारत में फिर से धर्मांधता और अंधविश्वास का साम्राज्य कायम करना चाहती है। इस मौके पर इन धार्मिक और धर्मांध लोगों का उपस्थित होना भारत के मूलभूत सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर करारा कुठाराघात है और वह भारत में फिर से धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को मिट्टी में मिलाने को आतुर है।

      इस मौके पर सबसे ज्यादा खलने वाली बात भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को न बुलाना है। आखिर क्या कारण है कि भारत के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रथम नागरिक को इस मौके पर नहीं बुलाया गया? क्या यह इस सरकार की औरत विरोधी, दलित विरोधी और वंचित वर्ग विरोधी मानसिकता का परिचायक नहीं है? आखिर ऐसा करके यह सरकार देश की जनता को क्या संदेश देना चाहती है?

     हमारे देश के संविधान में जो कानून का शासन बनाया गया है उसमें जनतंत्र, गणतंत्र धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के मूल्यों को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। मगर इस मौके पर सरकार राजदंड और धर्म दंड की बात कर रही है। आखिर ये राजदंड और धर्म दंड किस मानसिकता के परिचायक है? इससे यह साबित होता है कि यह सरकार भारत में फिर से राजशाही और धर्मांधता को बढ़ाना बढ़ावा देना चाहती है। उसका गणतंत्र और जनतंत्र के मूल्यों में कोई विश्वास नहीं है और वह भारत में फिर से राजशाही और राजा प्रजा की मन: स्थिति, कायम करना चाहती है।

      वर्तमान सरकार की यह मन:स्थिति खुलेआम और स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है कि भारत की जिस आजादी, गणतंत्र, जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के लिए भारत के जिन लाखों-करोड़ों स्वतंत्रता सेनानियों और आजादी के दीवानों और क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की गुलामी खत्म करने के लिए, अपना सब कुछ यानी जन, धन, सम्पत्ति और प्राण न्यौछावर किये थे, इस सरकार का इन मूल्यों और बलिदानों से कुछ लेना देना नहीं है। वह इस देश में एक बार पुन: राजशाही और धर्मांधता का साम्राज्य कायम करना चाहती है।

       भारत के संविधान में जनतंत्र की मूल चेतना यानी धर्मनिरपेक्षता को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। भारत के संविधान निर्माताओं ने उस समय सभी अंधविश्वासों और धर्मांधताओं का परित्याग कर दिया था और इसी कारण उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को भारत को भारत संविधान के मूल मंत्र की स्थापना की थी। मगर यह सरकार उस सर्वोपरि मूल्य पर सबसे बड़ा कुठाराघात करने पर आमादा हो गई है।

      अगर हम गौर से देखें तो धर्म के दस लक्षणों में 1धैर्य, 2सहनशीलता (क्षमा), 3 मन पर नियंत्रण, 4 चोरी न करना(धन इकट्ठा न करना) 5पारदर्शिता, 6 इंद्रिय वशीकरण, 7 सर्व हिताय बुद्धि, 8 विद्या (शिक्षा) 9 सत्य/ सच्चाई और 10क्रोध न करना, हैं। यहीं पर यह याद रखने की जरूरत है कि धर्म में अंधविश्वास, धर्मांधता पूजा पद्धति ईश्वर खुदा भगवान मंदिर मस्जिद चर्च शामिल नहीं हैं, परंतु आज की हकीकत यह है कि हमारे देश में इन तथाकथित धर्म आचार्यों ने धर्म के तमाम लक्षणों को तिलांजलि दे दी है और उन्होंने अंधविश्वास और धर्मांधता फैलाकर धर्म को धंधे में तब्दील कर इसे पेट पूजा का धंधा बना दिया है। यहीं पर यह भी एक हसीन हकीकत है कि हमारे अधिकार लेता धर्मांधता की और अंधविश्वासों की शरण में चले गए हैं।

       मोदी सरकार भी इन्हीं तमाम तरह के धर्मांधों को पूरा श्रेय और सम्मान दे रही है। यह मन: स्थिति देश के लिए बेहद खतरनाक है और दुविधा जनक है। सरकार की इस मन:स्थिति और नीति को देखकर लगता है कि जिस प्रकार उसने भारत के राष्ट्रपति को नहीं बुलाया है, विपक्षी पार्टियों से सुलह समझौते और उन्हें समझने की बात नहीं की है और जिस तरह से धर्मांध लोगों को प्रमुखता प्रदान की है और जिस तरह से राजदंड और धर्म दन्ड की पुनर्स्थापना की जा रही है, वह भारत के जनतंत्र, गणतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत है और जिस तरह से आज देश के वैज्ञानिकों, प्रगतिशील जनवादी धर्मनिरपेक्ष और बुद्धिजीवी और न्याय प्रणाली के लोगों का तिरस्कार किया गया है उससे देश की जनता, किसानों मजदूरों का समुचित विकास संभव नहीं है। सरकार की यह संविधान विरोधी कार्यप्रणाली और धर्मांध मानसिकता देश को केवल और केवल विनाश की तरफ ही ले जाएगी। 

     सच में आज का दिन, भारत के संविधान, संसद, कानून के शासन, जनतंत्र, गणतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांतों के लिए, भारत के इतिहास का सबसे काला दिन है। मन बिल्कुल परेशान और पूरी तरह से खिन्न है और हकीकत यह है कि आज कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है।

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