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निष्फल है धर्म की बहस?

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शशिकांत गुप्ते

इनदिनों धर्म पर भ्रम पूर्ण बहस चल रही है। भ्रम पूर्ण बहस मतलब तर्कहीन बहस।तर्कहीन का मतलब बहस में विचारहीनता नहीं है,यह विचारशून्यता है?
धरम पर भरम फैलाने वाली बहस निर्रथक ही है।
इस मुद्दे पर सन 1964 में प्रदर्शित फ़िल्म संत ज्ञानेश्वर इस गीत की कुछ पंक्तियां प्रासंगिक है।गीत को लिखा है, गीतकार भरत व्यासजी ने।
जो लोग भ्रम फैला रहें हैं।
यह पंक्तियां उन लोगों के लिए जो प्रकाश के कारण बनने वाली छाँव को सच समझने की भूल करतें हैं।
छाई है छाओं और अंधेरा भटक गई हैं दिशाएं*
मानव बन बैठा है दानव किसको व्यथा सुनाएं
धर्म में प्रतिस्पर्धा करना व्यर्थ है।
कोई भी धर्म विधर्म के प्रति द्वेषभाव नहीं रखता है।
किसी भी धर्म को मानने वाला कोई व्यक्ति यदि दूसरें धर्म की आलोचना करता है तो समझलो उसकी कथनी और करनी में भिन्नता है।
धर्म,मज़हब,जाति,सामाज,
और भाषाई पहचान में चावल हंडी वाला नियम लागू नहीं होता है। जैसे एक चावन पक गया तो समझों पूरी हंडी पक गई।
धर्म सभ्यता,संकृति,मानवीय आचरण सिखाने वाला मौर्चे है।
इस संदर्भ भरत व्यास लिखित यह पंक्तियां सटीक है।कौन है ऊँचा कौन है नीचा सब में वो ही समाया
भेद भाव के झूठे भरम में ये मानव भरमाया
धर्म ध्वजा फहराते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो
धार्मिकता लेकर जो शब्दिक बहस चल रही है,यह बहस तर्क और कुतर्क के बीच सिमट कर रह जाएगी?
धर्म की व्यापकता को समझने के लिए आध्यात्म को समझना जरूरी है।
सच्चें संतो ने पहले स्वयं के आचरण को शुद्ध किया बाद में उपदेश दिए।
संत तुकारामजी कहा है,
आधी केले मग सांगितले
अर्थात पहले स्वयं ने आचरण शुद्ध लिया बाद मे लोगों से कहा।

अंत मे युग निर्माण योजना का यह स्लोगन बार बार दोहराया जाता है।
कथनी करनी भिन्न जहाँ
धर्म नहीं पाखंड वहाँ

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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