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अधर्म का नाश होजाति का विनाश हो (खंड-1)-(अध्याय-46)

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संजय कनौजिया की कलम”✍️
जो अधर्म की गति पर अंकुश तो लगातीं थी परन्तु अधर्म का नाश नहीं कर पाईं..यही वह दौर रहा जहाँ धर्म को लेकर विद्वानों में चर्चाएं शुरू हो गईं, तर्क संगत बहसें होने लगी..
क्योकि ईश्वर के अस्तित्व को जैन धर्म भी स्वीकारता था..तो दूसरी और सनातनी पक्ष भी ईश्वर के अस्तित्व को ज्यादा ही तरजीह देता था..जैन तीर्थकरों को ईश्वर की श्रेणी में रखकर उपदेश देता था तो सनातन देविये आधार पर बहुत ही मजबूती से अपनी बात को रखता था, जैन में तीर्थकर गुरु या भगवान कहलाते थे, तो सनातन गुरु के स्थान पर ऋषिमुनियों को स्थान देकर अध्यात्म के आधार पर ईश्वर से जुड़कर ऋषियों के सन्देश को ईश्वर का आदेश बतलाते थे..उस काल के शुरूआती दौर में लेखन कार्य में जैन धर्म अग्रणी था, लेकिन सनातन पंथ के ब्राह्मण अनुचित और गैर अनुचित प्रयोग तक ही सीमित रहा करते थे और इसी अधार पर किसी नतीजे पर पहुंचा करते थे..तब जैन धर्म के आगम ग्रंथों की भाषा प्राचीन साहित्यों की अर्ध-मागधी से शुरू हुई और और बाद में अधिकतम साहित्य प्राकृत भाषा में लिखे गए..और उसी दौरान स्थानीय स्तर पर पाली भाषा का भी उदय हो चुका था..पाली भाषा के उदय के दो सदी बाद, सनातनी ब्राह्मणों ने अर्ध-मागधी, प्राकृत और पाली भाषाओँ के मिश्रण को समाहित कर बहुत ही चतुराई से एक नई भाषा में तब्दील कर, संस्कृत भाषा को अस्तित्व में लाये थे, और इसी संस्कृत में वेद लिखे जाने लगे थे..सही मायनो में संस्कृत का अर्थ संस्कारिक बताया गया है..जो अन्य भाषाओँ के उचित गहरे, शब्द या वाक्य को लेकर थे, सभी भाषाओँ और जैन धर्म के साहित्यों द्वारा, जैसे व्याकरण-विज्ञान-आयुर्वेद-नाट्य कला-रस और गुणों-अध्यात्म शास्त्र-कथा शाश्त्र-न्याय शाश्त्र-गणित शाश्त्र-भूगोल शाश्त्र-नीति शाश्त्र आदि सभी दृष्टियों को समाहित कर संस्कृत भाषा को अस्तित्व में लाया गया था..ईसा से करीब 563 वर्ष पूर्व कपिलवस्तु की रियासत में राजा शुद्धोधन के परिवार में, जहाँ की स्थानीय भाषा पाली चली आ रही थी, एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम सिद्धार्थ गौतम रखा गया था..सिद्धार्थ की शिक्षा राजशाही रही, जहाँ उन्होंने रणकौशल के गुणों सहित अर्ध-मागधी, प्राकृत, पाली सहित संस्कृत को भी पढ़ा-लिखा और समझा.. सिद्धार्थ ने शादी के बाद अपनी पत्नी यशोधरा और नवजात शिशु को त्याग कर संसार को दुखों से मुक्ति दिलाने हेतू, ईश्वर की खोज में निकल गए..वर्षों की कठोर तपस्या के बाद भी वह ब्राह्मणो के बनाये ईश्वर के दर्शन तो वह नहीं कर पाए, परन्तु बिहार के बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें दिव्यज्ञान की प्राप्ति हुई जहाँ तत्वों के बदल जाने से उनका पुनर्जन्म हुआ और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए, और 80 वर्ष की उम्र तक जिए ऐसी ही जानकारी मिलती है कुछ विद्वानों व इतिहासकारों ने उन्हें 90 वर्ष के बाद ही उनके निर्वाण का जिक्र किया है..!
चन्द्रगुप्त मौर्या के शासनकाल में, यूनानी भाषा का भी उच्च कोटि के विद्वानों में लेखन हेतू, लेकिन सीमित चलन रहा था और दूसरी ओर यूनानी दार्शनिक और विद्वानों ने भी लेखन के जरिए मगध राज्य की संस्कृति-धर्म-संस्कारों-भाषा आदि पर खूब लिखा..इसका कारण सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर की बेटी हेलेन से, सम्राट चन्द्रगुप्त ने विवाह कर लिया था..चन्द्रगुप्त के शासन में, जैन धर्म चरम पर था..यह क्रम बिन्दुसार के राजा होने तक चलता रहा, उसके बाद सम्राट अशोक का शासन काल में बौद्ध धर्म देश-दुनियां में स्थापित हो चला था..जिसका जिक्र में इसी खंड-1 के मध्य, संक्षिप्त रूप से पहले ही दर्शा चुका हूँ..सनातन पंथ या यूँ कहें कि संस्कृत भाषा के अस्तित्व में आ जाने के बाद वैदिक पंथ भी, शनै: शनै: अपनी परम्परा को आगे बड़ा रहा था, लेकिन काल्पनिक व पाखण्ड से भरे अवैज्ञानिक इस पंथ को, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म अपने वैज्ञानिक आधार के तर्कों के आगे पनपने में रूकावट थे..लेकिन बौद्ध धर्म के कारण फिर जैन धर्म भी सिकुड़ने लगा क्योकिं जैन धर्म में अहिंसा का स्थान चरम पर रहता था अतः जैन धर्म के नीति-नियम लोगों को सरल ना लगने लगे..हॉलांकि बौद्ध धर्म में भी अहिंसा का कोई स्थान ना था बावजूद बौद्ध धर्म का मार्ग, उस दौर के लोगों को सरल लगने लगा था तथा स्वयं सम्राट अशोक बौद्ध हो जाने से एक भिक्षु के रूप में इसका प्रचार प्रसार करते थे..उनका प्रचार संगठन बहुत मजबूत था एवं सत्ता द्वारा बौद्ध धर्म को हर कोण से संसाधनों की मदद मिलती थी.. ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा छल से वृहदत्त मौर्या की हत्या के बाद स्वयं राजा बन जाना और बौद्ध धर्म को खत्म हेतू अत्याचारों का भी, में इसी खंड के मध्य में संक्षित रूप से दर्शा चुका हूँ..वैदिक पंथ के अस्तित्व में आने के उपरांत तेजी से संस्कृत भाषा में, पुराण-निषद-उप निषद-आदि शास्त्रों का लेखन शुरू हो गया था..शासन के संसाधनों का सहयोग मिलने लगा था..उसी दौर में मनुस्मृति भी अस्तित्व में आ गई थी, और मनुस्मृति अनुसार ही नियम कायदे निर्धारित होना शुरू हो गए थे, यानी ब्राह्मणवाद ने अपनी पकड़ मजबूत बना डाली थी..!
अद्वैत वेदांत के प्रेणता, संस्कृत के विद्वान, निषद-उप-निषद आदि शास्त्रों के व्याख्यता और वैदिक पंथ के प्रचारक, जिनका नाम शंकर था, और इनको वैदिक परम्परा का आदि शंकराचार्य बनाया गया..वैदिक परम्परा अनुसार इसको शिव का अवतार भी माना जाता है..आदि शंकराचार्य ने लगभग पूरे भारत की यात्रा की, इनके जीवन का अधिकाँश भाग उत्तर भारत में बीता था..जहाँ चार पीठों की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य था..इन्होने कई ग्रन्थ लिखे, किन्तु उनका दर्शन उप-निषद ब्रह्मसूत्र और गीता पर लिखे उनके भाष्यों में मिलता है..आदि शंकराचार्य ने चारो मठो के अलावा पूरे देश में बारह ज्योतिर्लिंगों की भी स्थापना की थी..ये चार मठ आज भी शंकराचार्य के नेतृत्व में वैदिक परम्परा का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं…..

धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)


	
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