सुमित कटारिया
यशपाल सिंह की कृतियों में जो सबसे अधिक पठनीय व चर्चित कृति रही है वह ‘दादा कॉमरेड’। ‘दादा कॉमरेड’ उपन्यास में गढ़े गए किरदार और उनके संवाद इसकी प्रासंगिकता आज भी बनाए हुए है जो पाठकों को संदेश के साथ-साथ कई सबक भी देते है। यह उपन्यास एक गुप्त साम्यवादी संगठन की गतिविधियों को बखूबी दर्शाता है। इसके मूल में कांग्रेस व साम्यवादी, गांधीवाद व समाजवाद, हिंसा व अहिंसा, आज़ादी व गुलामी, राजनैतिक संगठनों व सार्वजनिक जीवन में स्त्री-पुरुष संबंधों का चित्रण है। यशपाल सिंह का यह उपन्यास वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशन को अब 82 वर्ष हो चुके है। जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा तो कई बिंदुओं ने ध्यान आकर्षित किया। बदलते समय के साथ बदलाव के बिंदुओं ने सबसे अधिक आकर्षित किया। उपन्यास में कई खामियों पर भी दृष्टि गई लेकिन जो इस उपन्यास के मूल में अंतर्निहित तथ्य दिखा वह महत्वपूर्ण है- “परिवर्तन या बदलाव।” इसलिए उपन्यास के इन्ही बिंदुओं पर यह लेख केंद्रित है।
1941 के दौर में सक्रिय राजनीतिक संगठनों की कार्यप्रणाली से नाखुश कई संगठन ऐसे भी थे जो गुप्त रहकर भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे। ये संगठन अपनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए लूट, डकैती, हिंसा का सहारा लेते थे। लेकिन ये सब वो अंग्रेजों से भारत की आज़ादी के लिए करते थे। इनकी संख्या भी कम थी। साम्यवाद या समाजवादी मूल्यों या विचारधारा को मानने वाले ये क्रांतिकारी राजनीति और समाज में अपना प्रभाव बना रहे थे। इन्हें एक नायक के तौर पर देखा जाता था जो अपनी जान की परवाह न करते हुए जनता के शोषण के खिलाफ और भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष के मैदान में डटे हुए थे। लेकिन इन्हें आशानुरूप सफलता नहीं मिल पा रही थी। पकड़े जाने पर वर्षों कैद, उम्रकैद या फांसी की सजा भी औपनिवेशिक सरकार और उनकी अदालत मुकर्रर करती थी। गुप्त रहकर काम करना और संगठन के सदस्य बनाना आसान काम नहीं था। इन्हीं सब तथ्यों को देखते हुए कुछ सदस्य अपनी नीतियों व कार्यशैली में बदलाव चाहते थे। इन्हीं बिंदुओं का प्रतिनिधित्व उपन्यास में हरीश करता है जो भारत में एक सफल क्रांति के लिए जनता के बीच में रहकर, लूट और हिंसा छोड़ कर जनता को उनके शोषण के प्रति जागरूक कर लामबंद करने की नीति पर अमल करने की हिमायत करता था। बदलते दौर में नीतियों व कार्यप्रणाली में बदलाव की आवश्यकता पर हरीश अपने संगठन को विचार विमर्श करने की राय रखता था। लेकिन बाकी साथी उससे अंततः सहमत नहीं होते और हरीश को ही दशकों से अनुसरण की जा रही विचारधारा से विमुक्त होने का आरोपी बना देते है और संगठन से बाहर का रास्ता दिखा देते है।
हरीश के संवाद बदलते दौर का प्रतिनिधित्व करते थे जो वर्षों से अनुसरित नीतियों और कार्यप्रणाली के इतर थे जिन्हें कॉमरेड दादा और बाकी साथी समझने में कठिनाई का सामना करते हैं और बदलाव के उपाय, सुझावों और नीतियों को अपनाना उनके लिए क्रांतिकारी पथ से हटने जैसा था। हरीश कार्य करने के तरीके पर अपनी बात कहता है कि “अब तक हमारी अधिकतर शक्ति डकैती करने में और कुछ राजनैतिक हत्याओं में काम आई है। परंतु हमारा उद्देश्य तो यही नहीं! हमारा उद्देश्य तो है, इस देश की जनता का शोषण समाप्त कर उसके लिए आत्मनिर्णय का अधिकार प्राप्त करना! स्वराज्य का अर्थ आखिर है क्या? अब तक हमारा संपूर्ण प्रयत्न रहा है गुप्त समितियां बनाने में। जनता से दूर गुफाओं में और तहखानों में बंद रह कर हम न तो जनता का सहयोग पा सकते है और न उनका नेतृत्व कर सकते है। यह पिस्तौल, रिवाल्वर बम एक तरह से हमारी क्रांति के मार्ग में रुकावट ही नहीं बन रहे बल्कि यह हमें खाये जा रहे हैं।… हमें अपना टेक्निक (तरीका) बदलना चाहिए… बजाए सहादत के, परिणाम की ओर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए गहरी स्टडी (अध्ययन) की जरुरत है! हमें देखना चाहिए रूस ने क्या किया?…” डकैती, राजनैतिक हत्या, हिंसा और गुप्त समितियों से इतर हरीश के संवाद के माध्यम से लेखक यशपाल क्रांति के नए तरीकों को खोजने की ओर आग्रह कर रहे है। शोषण के खिलाफ संघर्ष में कार्यक्रम में तकनीकी बदलाव के लिए गहन अध्ययन निसंदेह आवश्यक है। संघर्ष के पुरातन तरीकों से आगे बढ़कर समय की मांग के साथ बदलाव तो करने ही पड़ते है। लेकिन नए तरीकों को खोजें कैसे इसके लिए हरीश का गहन अध्ययन की आवश्यकता पर बल है। स्वयं की गतिविधियों की समीक्षा कर क्रांति के नए उपायों की खोज की जानी चाहिए। वहीं दूसरी तरफ रूस की ओर देखने को भी महत्वपूर्ण मानते है। अर्थात भूतकाल में हुई सफल क्रांति से सबक लेने की ओर लेखक इंगित करते है। यहां केवल किताबी अध्ययन नहीं बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं के अध्ययन की ओर लेखक का इशारा है।
“मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि उद्देश्य को ध्यान में रखकर आंदोलनों को अपने कार्यक्रम में परिवर्तन करना पड़ता है। रूस में भी पहले स्वतंत्रता के आंदोलन ने आतंकवादी कार्यों का रूप लिया था उस समय रूस में आम जनता का आतंकवादियों के कार्यों से कोई संबंध नहीं था। लेनिन ने रूस के क्रांतिकारियों की इस कमजोरी को समझा। उसने क्रांतिकारियों को अपनी शक्ति राजनैतिक हत्याओं में नष्ट न कर सर्वसाधारण जनता के जीवन के प्रश्नों को लेकर जनता में चेतना और अधिकार की भावना पैदा करने के लिये कहा…” समय के साथ कार्यक्रम में बदलाव और आंदोलन के उद्देश्य को ध्यान में रखने को लेकर हरीश का यह संवाद बखूबी दर्शाता है। आज के परिप्रेक्ष्य में भी यह उतना ही प्रासंगिक है जितना 1940 के दशक में जब आज़ादी के लिए क्रांतिकारी सशस्त्र हिंसा को अवश्यंभावी मानते थे। वर्तमान दौर में भी सशस्त्र क्रांति के विचार में विश्वास रखने वाले संगठन है। उनके अपने तर्क हो सकते है। लेकिन वो जनता से कटे हुए है। जनता के बीच उनका संपर्क नहीं है। जब जनता से उनका संपर्क ही नहीं तो उनके विचार जनता में कैसे प्रसारित होंगे। गोली बंदूक और हिंसा से राजनैतिक परिवर्तन और सत्ता प्राप्ति तो हो सकती है। लेकिन सांस्कृतिक सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन के लिए तो जनता के बीच में रहकर कार्य करना ही पड़ेगा। वैचारिक प्रसार प्रचार के नए तरीके ईजाद करने होंगे। जिसका उदाहरण हरीश संवाद में रूस का है जहां लेनिन ने हिंसा नहीं बल्कि जनता में चेतना और अधिकार की भावना को प्रबलित किया।
हरीश ने जब क्रांतिकारियों के गुप्त संगठन को छोड़ दिया तब वह सुल्तान नाम से और अपना तेजाब से चेहरा जला कर और सामने दांत तुड़वाकर जनता के बीच कार्य करने लगा। वह मज़दूरों को लामबंद करने, जनता को जागरूक करने और पूंजीपतियों द्वारा मज़दूरों व जनता के शोषण के खिलाफ हड़ताल व आंदोलन करने लगा। उसने लोगों को जागरूक कर एक हड़ताल की और जो सफल भी रही। यहीं कॉमरेड दादा जो कि हिंसक तरीके से आज़ादी और पूंजीपतियों के शोषण के खिलाफ संघर्ष को उचित मानते थे, का संवाद जो हरीश के संदर्भ में था कि “समय बदल गया है कितनी जल्दी!… हरी ठीक कहता है, बजाय जल की धरा को घुमाकर नाव के नीचे लाने के नाव को ही उस ओर घसीटना चाहिए… मेरा मतलब है जनता की जलधारा से।” यहां हम देख सकते है कि हरीश के तरीके से कॉमरेड दादा भी प्रभावित हुए और बदलते समय के साथ बदलाव होना चाहिए। इस विचार पर अमल करने लगे। लेखक यशपाल ने दर्शाया है कि “हड़ताल में मज़दूरों की जीत हो गई। उत्साहित हो दूसरी मिलों और कारखानों के मज़दूरों ने भी मज़दूर सभाएं बनानी शुरू कर दी। कई मिलों में और कारखानों के क़्वार्टरों में रात्रि पाठशालायें जारी हो गई।” यहां लेखक का बल एकता पर है। जब मज़दूर या जनता जागरूक हो और एकबद्ध या संगठनबद्ध हो तब उनका शोषण करना आसान नहीं।
हरीश का एक संवाद जो अदालत में जज के समक्ष उन्होंने दिया वह अदालत और न्याय की प्रक्रिया पर भी सवाल खड़ा करता है। जिसमें बदलाव की ओर लेखक ध्यान आकर्षित करते है। “…इस अदालत की दृष्टि में हम अपराधी होंगे परंतु जो नये मनुष्य मात्र को एक सामान समझता है और जो न्याय प्रत्येक मनुष्य को उसके परिश्रम पर अधिकार देकर दूसरे के परिश्रम को छीनने का अधिकार नहीं देता, उस न्याय की दृष्टि में हम निर्दोष है। हमें पूर्ण विश्वास है, न्याय की यह धारणा जो कुछ व्यक्तियों के ऐशो-आराम के अधिकारों की रक्षा के लिए जनता को जीवन के अधिकारों और उपायों से वंचित कर देती है, एक दिन बदलेगी और हमारा बलिदान इस प्रयत्न में सहायक होगा।” आज भी हम देखते है जहां निर्दोष व्यक्ति केवल किसी जुर्म के शक के बिना पर जेलों में कैद है और अदालतों में न्याय के लिए गुहार लगाते रहते है। राजनैतिक कैदियों को केवल शक के आधार पर ही जेलों में कैद करके रखा गया है। रिहाई की आस में राजनैतिक कैदियों की उम्र खप जाती है लेकिन रिहाई और न्याय नहीं मिलता। वहीं अमीरों या रसूखदारों के लिए न्याय के दरवाजे खुले रहते है जबकि गरीबों की तो न्याय तक पहुंच ही नहीं है या पहुंचने ही नहीं दिया जाता। व्यवस्था ही कुछ ऐसी है। खैर, अंततः शोषण के खिलाफ संघर्षरत हरीश और बाकी आंदोलनकारियों और हड़तालियों को फांसी की सजा सुनाई जाती है और वे नारा लगाते है ” इंकलाब ज़िंदाबाद! दुनिया के मेहनत करने वाले ज़िंदाबाद! संसार से शोषण का नाश हो!”
अतः यशपाल सिंह कृत यह उपन्यास वर्तमान में भी प्रासंगिक है जो समाज के कई पहुलओं को छूता है और कई दिशाओं में सोचने की ओर अग्रसर करता है। यहां मैंने उपन्यास के एक प्रमुख पात्र के मर्म को समझने का प्रयत्न किया है। यह न केवल कॉमरेडों, राजनैतिक कार्यकर्ताओं बल्कि जो भी इस उपन्यास को पढ़ेगा उसे यह अवश्य ही जीवन और विचारों में बदलाव के प्रति अग्रसर करेगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)