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आरएसएस के दिमाग का किवाड बंद है और उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता – मधु लिमये

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[ मधु लिमये विख्यात स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता थे. 1979 में जनता पार्टी में विभाजन के तुरंत बाद मधु लिमये ने ये लेख लिखा था, जो आज सर्वाधिक प्रासंगिक है. वे चार बार बिहार के मुंगेर और बांका संसदीय क्षेत्रों से लोकसभा के लिए चुने गए. पाठकों के लिए प्रस्तुत है वह लेख, जिसमें उन्होंने आरएसएस का वैचारिक पोस्टमार्टम किया है. ]

मैंने राजनीति में 1937 में प्रदेश किया. उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी, लेकिन चूंंकि मैने मैट्रिक की परीक्षा जल्दी पास कर ली थी, इसलिए कॉलेज में भी मैंने बहुत जल्दी प्रवेश किया. उस समय पूना में आरएसएस और सावरकरवादी लोग एक तरफ और राष्ट्रवादी और विभिन्न समाजवादी और वामपंथी दल दूसरी तरफ थे.

मुझे याद है कि 1 मई, 1937 को हम लोगों ने मई दिवस का जुलूस निकाला था. उस जुलूस पर आरएसएस के स्वयंसेवकों और सावरकरवादी लोगों ने हमला किया था और उसमें प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सेनापति बापट और हमारे नेता एस.एम. जोशी को भी चोटें आयी थी. तो उसी समय से इन लोगों के साथ हमारा मतभेद था.

हमारा संघ से पहला मतभेद था राष्ट्रीयता की धारणा पर. हम लोगों की यह मान्यता थी कि जो भारतीय राष्ट्र है, उसमें हिन्दुस्तान में रहनेवाले सभी लोगों को समान अधिकार हैं लेकिन आरएसएस के लोगों और सावरकर ने हिन्दु राष्ट्र की कल्पना सामने रखी. जिन्ना भी इसी किस्म के सोच के शिकार थे – उनका मानना था कि भारत में मुस्लिम राष्ट्र और हिन्दु राष्ट्र, दो राष्ट्र हैं. और सावरकर भी यही कहते थे.

दूसरा महत्वपूर्ण मतभेद यह था कि हम लोग लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे और आरएसएस के लोग लोकतंत्र को पश्चिम की विचारधारा मानते थे और कहते थे कि वह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है. उन दिनों आरएसएस के लोग हिटलर की बहुत तारीफ करते थे.

गुरूजी संघ के न केवल सरसंघचालक थे, बल्कि आध्यात्मिक गुरू भी थे. गुरूजी के विचारों में और नाजी लोगों के विचारों में आश्चर्यजनक साम्य है. गुरूजी की एक किताब है ‘वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ जिसका चतुर्थ संस्करण 1947 में प्रकाशित हुआ था. गुरूजी एक जगह कहते हैं, ‘हिन्दुस्तान के सभी गैर-हिन्दु लोगों को हिन्दु संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिन्दु धर्म का आदर करना और हिन्दु जाति और संस्कृति के गौरव- गान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नहीं लाना होगा. एक वाक्य में कहें तो वे विदेशी हो कर रहना छोड़े, नहीं तो उन्हें हिन्दु राष्ट्र के अधीन होकर ही यहां रहने की अनुमति मिलेगी- विशेष सुलुक की तो बात ही अलग, उन्हें कोई लाभ नहीं मिलेगा, उनके कोई विशेषाधिकार नही होगें- यहां तक की नागरिक अधिकार भी नहीं.’

तो गुरूजी करोडों हिन्दुस्तानियों को गैर-नागरिक के रूप में देखना चाहते थे. उनके नागरिकता के सारे अधिकार छीन लेना चाहते थे. और यह कोई उनके नए विचार नहीं हैं. जब हम लोग कालेज में पढ़ते थे, उस समय से आरएसएस वाले हिटलर के आदर्शों पर ले चलना चाहते थे. उनका मत था कि हिटलर ने यहूदियों की जो हालत की थी, वही हालत यहां मुसलमानों और इसाइयों की करनी चाहिए.

नाजी पार्टी के विचारों के प्रति गुरूजी की कितनी हमदर्दी है, यह उनकी ‘वी’ नामक पुस्तिका के पृष्ठ 42 से, मैं जो उदाहरण दे रहा हूंं, उससे स्पष्ट हो जाएगा – ‘जर्मनी ने जाति और संस्कृति की विशुद्धता बनाये रखने के लिए सेमेटिक यहूदियों की जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को स्तंभित कर दिया था. इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है. जर्मनी ने यह भी दिखला दिया कि जड़ से ही जिन जातियों और संस्कृतियों में अंतर होता है, उनका एक संयुक्त घर के रूप में विलय असंभव है. हिन्दुस्तान में सीखने और बहस करने के लिए यह एक सबक है.’

आप यह कह सकते हैं कि वह एक पुरानी किताब है – जब भारत आजाद हो रहा था, उस समय की किताब है. लेकिन इनकी दूसरी किताब है ‘ए बंच आफ थॉट्स’ में से उदाहरण दे रहा हूंं, उसके ‘लोकप्रिय संस्करण’ से, जो नवंबर, 1966 में प्रकाशित हुआ. इसमें गुरूजी ने आंतरिक खतरों की चर्चा की है और तीन आंतरिक खतरे बताये हैं. एक हैं मुसलमान, दूसरे हैं ईसाई और तीसरे हैं कम्युनिस्ट. सभी मुसलमान, सभी ईसाई और सभी कम्युनिस्ट भारत के लिए खतरा हैं, यह राय है गुरूजी की. इस तरह की इनकी विचारधारा है.

गुरूजी के साथ, मतलब आरएसएस के साथ, हमारा दूसरा मतभेद यह है कि गोलवलकर जी और आरएसएस वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं और मेरे जैसे समाजवादी वर्ण-व्यवस्था के सबसे बडे दुश्मन हैं. मैं अपने को ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था का सबसे बडा शत्रु मानता हूंं. मेरी यह निश्चित मान्यता है कि जब तक वर्ण-व्यवस्था और उसके ऊपर आधारित विषमताओं का नाश नहीं होगा, तब तक भारत में आर्थिक और सामाजिक समानता नहीं बन सकती है. लेकिन गुरूजी कहते हैं कि ‘हमारे समाज की दूसरी विश्ष्टिता थी वर्ण-व्यवस्था, जिसे आज जातिप्रथा कह कर उपहास किया जाता है.’

आगे वे कहते हैं कि ‘समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गयी थी, जिसकी पूजा सभी को अपने-अपने ढंग से और अपनी अपनी योग्यता के अनुसार करनी चाहिए. ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था, क्योंकि वह ज्ञान-दान करता था. क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था, क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था. वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नही था, क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शुद्र भी, जो अपने कला-कौशल से समाज की सेवा करता था. इसमें बडी चालाकी से शूद्रों के बारे में कहा गया है कि वे अपने हुनर और कारीगरी के द्वारा समाज की सेवा करते हैं. लेकिन इस किताब में चाणक्य के जिस अर्थशास्त्र की गुरूजी ने तारीफ की है, उसमें यह लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करना शुद्रों का सहज धर्म है. इसकी जगह पर गुरूजी ने चालाकी से जोड़ दिया- समाज की सेवा.

हमारे मतभेद का चौथा बिंदु है भाषा. हम लोग लोक भाषा के पक्ष में है. सारी लोकभाषाएं भारतीय है. लेकिन गुरूजी बीच में सुविधा के लिए हिंदी को स्वीकारा, लेकिन अंतिम लक्ष्य यह है कि राष्ट्र की भाषा संस्कृत हो. ‘बंच आफ थॉट्स’ में उन्होंने कहा है, ‘संपर्क भाषा की समस्या के समाधान के रूप में जब तक संस्कृत स्थापित नहीं हो जाती, तब तक सुविधा के लिए हमें हिन्दी को प्राथमिकता देनी होगी.’ सुविधा के लिए हिन्दी, लेकिन अंत में वे संपर्क-भाषा चाहते हैं संस्कृत.

हमारे लिए यह शुरू से मतभेद का विषय रहा. महात्मा गांधी की तरह, लोकमान्य तिलक की तरह हम लोग लोक भाषाओं के समर्धक रहे. हम किसी के ऊपर भी हिन्दी लादना नहीं चाहते. लेकिन हम चाहते हैं कि तमिलनाडु में तमिल चले, आंध्र में तेलुगु चले, महाराष्ट्र में मराठी चले, पश्चिम बंगाल में बंगला भाषा चले. अगर गैर-हिन्दी भाषी राज्य अंगरेजी का इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो वे करें. हमारा उनके साथ कोई मतभेद नहीं लेकिन संस्कृत इने-गिने लोगों की भाषा है, एक विशिष्ट वर्ग की भाषा है. संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने का मतलब है देश में मुट्ठी भर लोगों का वर्चस्व, जो हम नहीं चाहते.

पांचवी बात, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में संघ-राज्य की कल्पना को स्वीकार किया गया था. संघ-राज्य में केन्द्र के जिम्मे निश्चित विषय होंगे, उनके अलावा जो विषय होंगे, वह राज्यों के अंर्तगत होगे. लेकिन मुल्क के विभाजन के बाद राष्ट्रीय नेता चाहते थे कि केन्द्र को मजबूत बनाया जाये, इसलिए संविधान में एक समवर्ती सूची बनायी गयी. इस समबर्ती सूची में बहुत सारे अधिकार केन्द्र और राज्य दोनों को दिये गये और जो वशिष्ट अधिकार है, वह पहले तो राज्य को मिलनेवाले थे, लेकिन केन्द्र को मजबूत करने के लिए केन्द्र को दे दिये गये. बहरहाल, संघ राज्य बन गया. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आध्यात्मिक गुरू गोलवलकर – इन्होंने हमेशा भारतीय संविधान के इस आधारभूत तत्व का विरोध किया.

ये लोग ‘ए यूनियन ऑफ स्टेट्स ’ संघराज्य की जो कल्पना है, उसकी खिल्ली उडाते हैं और कहते हैं कि हिन्दुस्तान में यह जो संघराज्यवाला संविधान है, उसको खत्म कर देना चाहिए. गुरूजी ‘बंच आफ थॉट्स’ में कहते हैं, ‘संविधान का पुनरीक्षण होना चाहिए और इसका पुनः लेखन कर शासन की एकात्मक प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए.’ गुरूजी एकात्मक प्रणाली यानी केन्द्रनुगामी शासन चाहते हैं. वे यह कहते हैं कि ये जो राज्य वगैरह हैं, यह सब खत्म होने चाहिए. इनकी कल्पना है कि एक देश, एक राज्य, एक विधायिका और एक कार्यपालिका. यानी राज्यों के विधानमंडल, राज्यों के मंत्रिमंडल सब समाप्त. यानी ये लोग डंडें के बल पर अपनी राजनीति चलायेंगे. अगर डंडा इनके हाथ में आ गया राजदंड, तो केन्द्रनुगामी शासन स्थापित करके छोडेंगे. 

इसके अलावा स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रीय झंडा था तिरंगा. तिरंगे झंडे की इज्जत के लिए, शान के लिए सैकडों लोगों ने बलिदान दिया, हजारों लोगों ने लाठियांं खायीं. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कभी भी तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज नही मानता. वह तो भगवा ध्वज को ही मानता था और कहता था, भगवा ध्वज हिन्दु राष्ट्र का प्राचीन झंडा है. हमारा वही आदर्श है, हमारा वही प्रतीक है.

जिस तरह संघ-राज्य की कल्पना को गुरूजी अस्वीकार करते थे, उसी तरह लोकतंत्र में भी उनका विश्वास नहीं था. लोकतंत्र की कल्पना पश्चिम से आयात की हुई कल्पना है और पश्चिम का संसदीय लोकतंत्र भारतीय विचार और संस्कृति के अनुकूल नहीं है, ऐसी उनकी धारणा है. जहां तक समाजवाद का सवाल है, उसको तो वे सर्वथा परायी चीज मानते थे और कहते थे कि यह जितने ‘इज़्म’ हैं यानी डेमोक्रेसी हो या समाजवाद, यह सब विदेशी हैं और इनका त्याग करके हमको भारतीय संस्कृति के आधार पर समाज रचना करनी चाहिए.

जहां तक हमारे जैसे लोगों को सवाल है, हम लोग तो संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, समाजवाद में विश्वास रखते हैं और यह भी चाहते हैं कि शांतिपूर्ण ढंग से और महात्मा जी के सृजनात्मक सिद्धांत को अपना कर हम लोकतंत्र की प्रतिष्ठापना करें, सामाजिक संगठन करें और समाजवाद लायें.

जब कांग्रेस के एकतंत्रीय शासन के खिलाफ हमारी लडाई चल रही थी, तो हमारे नेता डॉ. राममनोहर लोहिया कहते थे कि जिस कांग्रेस ने चीन के हाथ भारत को अपमानित करवाया, उस कांग्रेस को हटाने के लिए और देश को बचाने के लिए हमको विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों के साथ तालमेंल बैठाना चाहिए. इस विषय पर डाक्टर साहब से मेरी बहुत चर्चा होती थी. दो साल तक बहस चली. आखिर तक मैं यह कहता रहा कि आरएसएस और जनसंघ के साथ हमारा तालमेल नहीं बैठेगा.

अंत में डाक्टर साहब ने कहा कि ‘मेरे नेतृत्व को तुम मानते हो या नहीं ?’ मैंने कहा – ‘हां, मैं मानता हूं.’ वे बोले, ‘क्या यह जरूरी है कि सभी प्रश्नों पर तुम्हारी और मेरी राय मिले या सभी प्रश्नों पर में तुमको सहमत करूं ? एक-आध प्रश्न ऐसा भी रहे जो हम दोनों के बीच मतभेद का विषय हो. और मैं तो इस तरह का तालमेल चाहता हंू एक बडे दुश्मन को हराने के लिए, तो इस मामले में तुम मान जाओ, इसको ‘ट्रायल’ दे दो. हो सकता है, मेरी बात सही निकले, यह भी हो सकता है, तुम्हारी बात सही निकले लेकिन मेरी यह मान्यता रही है कि अंत में आरएसएस और डॉ. राममनोहर लोहिया की विचारधारा में संघर्ष हो कर रहेगा.’

जब इंदिरा गांधी ने हमारे उपर इमरजेंसी लादी या वह तानाशाही की ओर बढ़ने लगी, संजय को आगे बढ़ाने लगी, मारूती कांड हुआ तो यह बात सही है कि इमरजेंसी के खिलाफ लडने के लिए लोगों ने इन लोगों के साथ तालमेल बिठाया. लोकनायक जयप्रकाश जी कहते थे कि ‘एक पार्टी बनाये बिना हम लोग इंदिरा को और तानाशाही को नहीं हटा सकते. चौधरी चरण सिंह की भी यही राय थी कि एक पार्टी बने.’

हम लोग जब जेल में थे, यह पूछा गया था कि एक पार्टी बनाने के बारे में और चुनाव लड़ने के बारे में आपकी क्या राय है ? मुझे याद है कि मैंने यह संदेश जेल में भेजा था कि मेरी राय में चुनाव लड़ना चाहिए. चुनाव में करोड़ों लोग हिस्सा लेंगे. चुनाव एक गतिशील चीज है. चुनाव अभियान जब जोर पर आएगा, तो इमरजेंसी के जितने बंधन हैं, वह सब टूट जाऐंगे और लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करेंगे. इसीलिए मेरी राय थी कि चुनाव लड़ना चाहिए. अब चूंकि लोकनायक जयप्रकाश नारायण और सभी लोगों की यह राय थी कि एक पार्टी बनाए बिना हम लोगों को सफलता नहीं मिलेगी, तो हम लोगों ने भी इसके लिए मान्यता दे दी थी.

लेकिन मैं कहना चाहता हुं कि यह जो समझौता हुआ था, वह दलों के बीच में हुआ था – जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, संगठन कांग्रेस, भालोद और कुछ विद्रोही कांग्रेसी. आरएसएस के साथ ना हमारा कोई करार हुआ, न आरएसएस की कोई शर्त मानी गई. बल्कि जेलों में हमारे बीच मनु भाई पटेल का एक परिपत्र प्रसारित किया गया था, उससे तो हमें यह पता चला कि चौधरी चरण सिंह ने 7 जुलाई, 1976 को आरएसएस की सदस्यता और जो नयी पार्टी बनेगी उसकी सदस्यता, इन दोनों में मेल होगा या टकराव, इसकी चर्चा उठायी थी. जनसंघ के उस समय के कार्यकारी महासचिव ओमप्रकाश त्यागी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘नयी पार्टी जो शर्त लगाना चाहे लगा सकती है. फिलहाल आरएसएस के ऊपर तो पाबंदी है, आरएसएस को भंग किया जा चुका है, इसलिए आरएसएस का तो सवाल ही नहीं उठता.’

बाद में जब हम लोग पार्टी का नया संविधान बना रहे थे, तो हमारी संविधान उपसमिति ने एक सिफारिश की थी कि ऐसे किसी संगठन के सदस्यों को, जिसके उद्देश्य, नीतियों और कार्यक्रम जनता पार्टी के उद्देश्य नीतियों और कार्यक्रम से मेल नहीं खाते, पार्टी का सदस्य नहीं बनने देना चाहिए. इसका विरोध करने की किसी को भी कोई आवश्यकता नहीं थी, यह तो एक बिलकुल सामान्य बात थी. लेकिन यह विचारणीय बात है कि अकेले सुंदरसिंह भंडारी ने इसका विरोध किया. बाकी सभी सदस्यों ने – इनमें रामकृष्ण हेगडे भी थे, श्रीमती मृणाल गोरे थी, श्री बहुगुणा थे, श्री वीरेन शाह थे और मैं स्वयं था – मिल कर एक राय से यह प्रस्ताव लिया था कि हम सुंदरसिंह भंडारी का विरोध करेंगे.

1976 के दिसंबर महीने में इस पर विचार करने के लिए जब बैठक हुई, तो अटल जी ने जनसंघ और आरएसएस की ओर से एक पत्र लिखा था राष्ट्रीय समिति को, जिसमें उन्होने यह चर्चा की थी कि कुछ नेताओं में इस पर आपसी रजामंदी थी कि आरएसएस का सवाल नहीं उठाया जा सकता. लेकिन कई नेताओं ने मुझे बताया कि इस तरह कि कोई रजामंदी नहीं थी और इस तरह का कोई वचन नहीं दिया गया था, क्योंकि उस समय तो आरएसएस सामने था ही नहीं. मैं यह कहना चाहता हूं कि मैं उस वक्त जेल में था और अगर ऐसा कोई गुप्त करार था भी, तो मैं उसका भागीदार नहीं हुं.

जनता पार्टी का जो चुनाव घोषणा-पत्र बना, मैं बिल्कुल सफाई के साथ कहना चाहता हुं, उस पर आरएसएस की विचारधारा का जरा भी असर नहीं था, बल्कि एक-एक मुद्दे को सफाई के साथ स्पष्ट किया गया था. क्या यह बात सही नहीं है कि जनता पार्टी का चुनाव घोषणा-पत्र धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और गांधीवादी मूल्यों पर आधारित समाजवादी समाज की चर्चा करता है – उसमें हिन्दु राष्ट्र का कहीं कोई उल्लेख नहीं. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की- समान अधिकार की चर्चा और यह भी कहा गया है कि उनके अधिकारों की पूरी रक्षा की जायेगी. और गुरूजी तो कहते हैं कि जो अल्पसंख्यक लोग हैं उनको नागरिकता के भी अधिकार नहीं रहने चाहिए. उनको हिन्दु राष्ट्र के बिलकुल अधीन होकर रहना पडेगा.

जनता पार्टी ने विकेंद्रीकरण की बात और गुरूजी तो घोर केन्द्रीकरणवादी थे. वे तो राज्यों को ही समाप्त करना चाहते हैं. राज्य विधान मंडलों को ही समाप्त करना चाहते हैं. राज्य के मंत्रिमंडलों को समाप्त करना चाहते हैं लेकिन जनता पार्टी ने तो विकेंद्रीकरण की चर्चा की. यानी राज्यों की स्वायत्तता पर जनता पार्टी आक्रमण नहीं करना चाहती. समाजवाद की चर्चा की गयी, समाजिक न्याय की चर्चा की गयी, समानता की चर्चा की गयी. क्या जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में यह कहा था कि वर्णव्यवस्था रहेगी और शुद्रों को दूसरों की सेवा में ही अपना जीवन बिताना चाहिए ? जनता पार्टी ने तो यह कहा था कि पिछडों को हम लोग पूरा मौका देंगे, इतना ही नहीं, विशेष अवसर देंगे और यह कहा था कि उनके लिए सरकारी सेवाओं में 25 से 33 प्रतिशत तक आरक्षण किया जायेगा.

हां, यह बात सही है कि आरएसएस के लोगों ने दिल से इस चुनाव घोषणा-पत्र को नहीं स्वीकारा. मेरी यह शिकायत रही और कुशाभाऊ ठाकरे को एक पत्र में मैंने कहा भी था कि मेरी तरफ से शिकायत यह है कि चर्चा के दौरान आप बहुत जल्दी चीजों को मान जाते हैं लेकिन दिल से नहीं मानते इसलिए आपके बारे में शक पैदा होता है. यह मैंने उनको बहुत पहले कहा था, और मेरे मन में आरएसएस के बारे में शुरू से संदेह रहे. डॉक्टर साहब के जमाने से रहे. लेकिन इसके बावजूद तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए हम लोगों ने जरूर उनसे तालमेल किया.

लोकनायक जयप्रकाश जी की यह इच्छा थी कि एक पार्टी बने, तो चंूकि चुनाव घोषणा-पत्र में किसी तरह का समझौता नहीं किया गया था, इसलिए हमने इस बात को स्वीकार कर लिया. लेकिन साथ-ही-साथ मैं कहना चाहता हूं कि मैं शुरू से इसके बारे में बिल्कुल स्पष्ट था अपने मन में कि अगर जनता पार्टी को एकरस होकर, एक सुसम्बद्ध पार्टी के रूप में काम करना है, तो दो काम अवश्य करने पडेंगे. नंबर एक, आरएसएस वालों को अपनी विचारधारा बदलनी पडेगी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की कल्पना को स्वीकारना पडेगा. नंबर दो, आरएसएस के परिवार के जो संगठन हैं- जैसे भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, इन संगठनों को अपना अलग अस्तित्व समाप्त करना पडेगा और जनता पार्टी के समानधर्मी संगठनों के साथ अपने को विलीन करना पडेगा. इसके बारे में मैं शुरू से ही स्पष्ट था और चंुकि मुझे जनता पार्टी के मजदूर और युवा संगठनों की देख-रेख का भार दिया गया था, मैंने यह लगातार कोशिश की कि विद्यार्थी परिषद अपने अस्तित्व को मिटाये, भारतीय मजदूर संघ अपने अस्तित्व को मिटाये.

लेकिन ये लोग अपनी स्वायत्ता की चर्चा करने लगे. वस्तुतः ये लोग हमेशा नागपूर के आदेश से चलते हैं, एक चालकानुवर्तित्व का सिद्धांत मानते हैं. मैं गुरूजी का ही उदाहरण देता हूं. गुरूजी ने यह कहा कि हम लोग इस तरह का मन बनाते हैं कि वह बिलकुल अनुशासित होता है और जो हम लोग कहेंगे वही सब लोग मानते हैं. इनके संगठन का एक ही सूत्र है – एकचालकानुवर्तित्व. ये लोकतंत्र को नहीं मानते. बहस में भी इनका विश्वास नहीं. इनकी कोई आर्थिक नीति नहीं है. उदाहरण के लिए गुरूजी ने अपने ‘बंच आफॅ थॉट्स’ में इस बात पर खेद प्रकट किया है कि जमीदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया है. जमींदार के खत्म होने पर गुरूजी को बडी तकलीफ है, बडी पीड़ा है लेकिन गरीबों के लिए उनके मन में दर्द नहीं है.

मैंने आरएसएस वालों से कहा कि आपको हिन्दु संगठन की कल्पना छोड़ कर सभी धर्मों के और सभी संप्रदायों के लोगों को अपनी संस्था में स्थान देना पडेगा. आपके जो वर्ग-संगठन हैं, उनको जनता पार्टी के दूसरे वर्ग. संगठन के साथ मिला देना पडेगा तो उन लोगों ने कहा कि यह इतना जल्दी कैसे होगा. बड़ी दिक्कतें हैं, लेकिन हम धीरे-धीरे बदलना चाहते हैं. वे इस तरह की गोलमोल बातें करते रहते थे. उनके आचरण को देखकर मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उसको बदलना है नहीं. खासकर 1977 के जून के विधानसभा चुनावों के बाद जब उनके हाथ में चार राज्यों और एक केन्द्रशासित प्रदेश का शासन आ गया तथा उत्तर प्रदेश और बिहार में उनको बहुत बडी हिस्सेदारी मिल गयी, तो इसके बाद वे सोचने लगे कि अब हमको बदलने की क्या जरूरत है ? हम लोगों ने चार राज्यों को फतह कर लिया है, धीरे-धीरे अन्य राज्यों को करेंगे, फिर केन्द्र भी हमारे हाथ में आयेगा. बाकी जो नेता है वे बुड्ढें नेता हैं, आज नहीं तो कल मर जायेंगे और किसी नये नेता को हम बनने नहीं देंगे. इसलिए आपने देखा होगा ‘आर्गनाइजर’, ‘पांचजन्य’ आदि सभी अखबारों में जनता पार्टी के किसी भी नेता को उन्होंने नहीं बख्शा. मेरे उपर तो उनका विशेष अनुग्रह रहा है, विशेष कृपा रही है. मुझे गाली देने में अपने अखबारों का जितना स्थान उन्होंने खर्च किया, उतना तो शायद इंदिरा गांधी को भी गाली देने के लिए नहीं किया होगा.

एक अरसे तक इनलोगों से मेरी बातचीत होती रही. एक दफा तो मुझे याद है मेरे घर में, बंबई में बाला साहब देवरस आये. फिर उसके बाद 71 के चुनाव के बाद एक दफा मैं उनसे मिला. इमर्जेन्सी के पहले एक दफा माधवराव मुले से मेरी बातचीत हुई. चौथी बार माधवराव मुले और बाला साहब देवरस से मई 1977 में मेरी बात हुई थी. तो ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी, लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनके दिमाग का जो किवाड है, वह बंद है और उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता. बल्कि आरएसएस की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देते हैं. पहला काम वह यही करते हैं कि बच्चों की, युवकों की विचार प्रक्रिया को ‘फ्रीज़’ कर देते हैं – जड़ बना देते हैं. उसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं कर पाते, तो कोशिश मैंने की.

एक बार मैंने ट्रेड युनियन कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायी. जनता पार्टी के सभी संगठनों के प्रतिनिधि उसमें आये, लेकिन भारतीय मजदूर संघ ने उसका बहिष्कार किया. इतना ही नहीं, अकारण मुझे गालियां भी दी. विद्यार्थी परिषद और युवा मोर्चा के साथ भी विलीनीकरण की बात चलायी गयी, लेकिन वे लोग हमेशा अलग रहे, क्योंकि आरएसएस अपने को ‘सुपर पार्टी’ के रूप में चलाना चाहता है. यह लोग जीवन के हर अंग को न केवल छुना चाहते हैं, बल्कि उस पर कब्जा करना चाहते हैं. जार्ज फर्नाडिस ने उसी समय लेख लिखा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में, उसमें उन्होंने इसी विचार को ले कर दत्तोपंत ठेंगडी का एक उदाहरण दिया. लेकिन दत्तोपंत ठेंगड़ी ने कहा कि पूरे समाज में हम लोग छा जाना चाहते हैं, जीवन का कोई पहलू हम लोग छोडेंगे नहीं – सब पर कब्जा करेंगे, यह कोई नया विचार नहीं है ठेंगड़ी का. यह तो ‘वी’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गुरूजी ने जगह-जगह पर कहा है. और कोई भी सर्वसत्तावादी संगठन जीवन के किसी भी पहलू को स्वतंत्र नहीं छोडना चाहता. वह कला पर छा जायेगा, संगीत पर छा जायेगा, अर्थनीति पर छा जायेगा, संस्कृति पर छा जायेगा. फासिस्ट संगठन का यही तो धर्म है.

दरअसल ये लोग हमारी जनता पार्टी पर कब्जा करना चाहते थे. ये लोग सरकारों पर कब्जा करना चाहते थे. एक साथ इन्होंने कई नेताओं को लालच दिखाया था प्रधानमंत्री बनने का. इधर ये मोरारजी भाई को भी अंत तक कहते रहे कि आप ही को रखेंगे हम लोग. ये चरण सिंह को भी बीच-बीच में कहते थे कि आप को बनायेंगे. ये जगजीवन राम को भी कहते थे कि हम आप ही को बनायेंगे. ये चंद्रशेखर को भी कहते थे. ये जार्ज फर्नाडिस को भी कहते थे. हां, उन्होंने कभी मुझे यह कहने का साहस नहीं किया.

एक दफा अटल जी से मैंने कहा, तो उन्होंने कहा, ‘नानाजी ने ना केवल तुमको, बल्कि मुझको भी कभी नहीं कहा. न वे आपको बनाना चाहते हैं, न कभी मुझको बनाना चाहते हैं. ऐसा मजाक में अटल जी ने मुझसे कहा. बहरहाल, वे मुझसे इसलिए इस तरह की बात नहीं करते थे क्योंकि मैं न किसी की वंचना करता हूं, न किसी के द्वारा वंचित होता हुं. वे सोचते हैं इसको बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता, तो इसको कहने से क्या फायदा ? यह तो और सावधान हो जाएगा.

ये लोग समय-समय पर क्या कहते हैं, उसका कोई मूल्य नहीं. क्या आरएसएस के नेताओं ने कहा है कि गुरू गोलवरकर के जो विचार हैं, उन्हें हमने त्याग दिया ? सिर्फ अटल जी कहते हैं कि राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, समाजवाद, सामाजिक न्याय आदि धारणाओं को स्वीकारना चाहिए, उसके बिना अब नहीं चला जा सकता. पर यह केवल अटल जी कहते हैं बांकि संघियों पर तो मेरा विश्वास ही नहीं. ये लोग जेल में माफी मांगते थे, रिहाई हासिल करने के लिए, बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी का अभिनंदन किया था, जब वे सुप्रीम कोर्ट में राजनारायण के केस में जीती, तो इन लोगों के वचनों पर मेरा विश्वास नहीं है. मेरी स्पष्ट राय है कि आरएसएस के नेताओं को अगर वे पार्टी से निकाल देते, राष्ट्रीय समिति से, उनके सदस्यों पर पाबंदी लगा देते और विशेषकर नानाजी, सुंदर सिंह भंडारी एंड कंपनी को पार्टी से निकाल देते, तभी में विश्वास कर सकता था.

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