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पत्रकारिता का पतन कब का हो चुका था,  ताबूत में कील अब गड़ी

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प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता

      इतिहास ज्यादातर व्यक्ति केंद्रित भले ही होता हो पर व्यक्ति पर टिप्पणी करने से इतिहास की चीज़ों के बाकी सतहों का ठीक से पता नहीं चल पाता है. ये बात ध्यान में रखनी चाहिए.

          मुद्दा एनडीटीवी के ज़रिए भारतीय मीडिया को समझने का होना चाहिए. रवीश उस पूरी यात्रा में एक स्तंभ हैं. ऐसे कई स्तंभ भारतीय पत्रकारिता में रहे. इसलिए मीडिया की बहसें एक व्यक्ति के इर्द गिर्द न होकर मीडिया व्यवहार की होनी चाहिए जिसमें बड़े नाम वैसे ही आएं जैसे नदी में नाव आती है. चर्चा नदी की, पानी की उसके बहाव की हो तभी दुनिया समझ में आती है. अगर यह बात ठीक लगे तो आगे पढ़ें वर्ना स्क्रोल कर के आगे बढ़ें.

भारत में जितने भी न्यूज़ टीवी के चैनल आए उन्हें मूल रूप से दूरदर्शन का शुक्रिया अदा करना चाहिए. आप पूछ सकते हैं मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं. जो मीडिया और खास कर टीवी मीडिया को समझते हैं उन्हें ये पता है कि कोई भी टीवी चैनल बिना आर्काइव के खड़ा नहीं किया जा सकता है.

        आर्काइव यानि कि पुराना फुटेज. नब्बे के दशक के अंत तक यह पुराना फुटेज और आर्काइव सिर्फ और सिर्फ डीडी के पास था. फिर ये प्राइवेट चैनलों तक पहुंचा कैसे. इसकी कथा शुरू होती है द वर्ल्ड दिस वीक से. 

         द वर्ल्ड दिस वीक एक कार्यक्रम होता था जो रात के ग्यारह बजे आता था जिसमें अंग्रेजी में दुनिया की खबरें होती थीं. इसमें ज्यादातर फुटेज अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों के होते थे और साथ में देश की खबरों के लिए डीडी के कैमरामैन द्वारा जुटाए गए फुटेज.

        लंबे समय तक चले इस कार्यक्रम के दौरान प्रणय राय की साख बनी और उन्होंने अपने प्रोडक्शन हाउस न्यूडेल्ही टेलिविजन के लिए ये आर्काइव धीरे धीरे जुटा लिया. चूंकि वो डीडी के लिए ही प्रोग्राम बना रहे थे तो डीडी ने उन्हें आर्काइव कॉपी करने दिया. सरकारी बाबू को क्या पता कि प्रोफेसर के दिमाग में क्या चल रहा है. वैसे भी कार्यक्रम डीडी पर ही जाता था.

एग्जैक्टली यही काम बाद में आज तक वालों ने किया जब वो डीडी मेट्रो के लिए आधे घंटे का न्यूज टीवी शो बना रहे थे. ज़ी टीवी में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वहां ऐसा कोई आदमी नहीं था जिसने डीडी के साथ कोई काम किया हो. ज़ी टीवी इसलिए इतिहास में याद रखा जाएगा. वो अपने किस्म का पायनियर चैनल था जो बाद में बर्बाद हो गया सत्ता से खुल कर निकटता करने के चक्कर में.

       इस कड़ी में सबसे ताजा लाभ उठाया राजीव शुक्ला की पत्नी के चैनल न्यूज २४ ने जिन्हें रोज़ाना नाम का कार्यक्रम मिला. जाहिर है उन्होंने भी फुटेज लिया ही होगा ढेर सारा. 

आप पूछेंगे कि बाकी लोग यानि कि स्टार, इंडिया टीवी इन्हें फुटेज कहां से मिला होगा. बाकी एजेंसियों से लिया गया और नब्बे के दशक के बाद सब चैनलों ने फुटेज इकट्ठा भी किया. जो नहीं मिला खरीद लिया गया. 

         अब आगे ये हुआ कि एनडीटीवी ने जब चैनल खोला तो उसमें नब्बे प्रतिशत एलीट लोग ही नियुक्त हुए थे. राजदीप, अर्णब ऑक्सफोर्ड से थे. बरखा कोलंबिया स्कूल से थीं और उनकी मां खुद ही बड़ी पत्रकार थीं अंग्रेजी की. सोनिया सिंह जिनका विवाह बाद में आरपीएन सिंह के साथ हुआ वो राजनीतिक रूप से सक्रिय थे कांग्रेस में….(वो बहुत बाद में बीजेपी में गए). इसी तरह आप अंग्रेजी के सारे लोगों की पृष्ठभूमि देखेंगे तो पाएंगे कि वो या तो दून स्कूल, स्टीफंस या फिर लंदन या अमेरिका के यूनिवर्सिटियों से पढ़ कर लौटे लोग थे जिन्हें प्रोफेसरी करने में रूचि नहीं थी और वो पत्रकारिता में आना चाहते थे. 

इसमें एक अपवाद हीरामन तिवारी रहे (जो ऑक्सफोर्ड से आए थे ) और हिंदी में एंकरिंग करते थे लेकिन जल्दी ही जेेएनयू में प्रोफेसर बने तो उन्होंने एनडीटीवी छोड़ दिया. शुरूआती दौर में सिर्फ राज्यों के रिपोर्टर ही ऐसे थे अंग्रेजी में जो एलीट क्लास के नहीं थे. या क्या पता हों भी. 

        एनडीटीवी अंग्रेजी में नौकरी पाने का सीधा रास्ता यही था कि आपके पिता प्रभावशाली पत्रकार हों, नौकरशाह हों या फिर आप स्टीफंस, दून या ऑक्सफोर्ड या अमेरिकी विश्वविद्यालय से हों. 

        ये लोग हिंदी के लोगों से बात करना सिर्फ तब ठीक समझते थे जब चुनाव होता था और उन्हें चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए बिहार यूपी जाना पड़ता था. बाकी समय वो दिल्ली के खान मार्केट के आसपास दिखा करते थे. 

प्रणय खुद भी उसी एलीट क्लास के थे. हालांकि इस एलीट क्लास की खूबी यह थी कि वो गरीब गुर्बा की बात बहुत करता था लेकिन खुद न तो गरीब होना चाहता था और न ही गरीबों के साथ उठना बैठना चाहता था. मुझे अभी भी याद है कि लालू के एक इंटरव्यू में लालू लगातार हिंदी में जवाब दे रहे थे और प्रणय उनसे अंग्रेजी में ही पूछे जा रहे थे. 

        ऐसा नहीं है कि प्रणय को हिंदी नहीं आती होगी. मैं एक और ऐसे बंगाली को जानता हूं जो ड्राइवर, नौकर, और दुकान में हिंदी में बात करता है लेकिन दफ्तर घुसते ही हिंदी नहीं बोलता और ऐसे व्यवहार करता है मानो हिंदी आती नहीं. प्रणय राय एक क्लास है जिसे पोस्ट कलोनियल बीमारी से ग्रसित कहा जा सकता है.

        उन्होंने हिंदी के कुछ लोगों को बढ़ावा दिया या नहीं ये बहस का विषय है. उनके लिए रवीश कुमार कितने महत्व के थे इस पर भी बहस हो सकती है. मैंने रवीश कुमार को भी रिपोर्टिंग करते हुए देखा है. उनके साथ एक या दो लोग होते थे. मैंने बरखा को भी रिपोर्टिंग करते हुए देखा है. जिनके साथ आठ से दस लोगों की टीम चलती थी.

तो चैनल में ये भेदभाव हिंदी और अंग्रेजी का भी चलता था. और ये भी आम बात थी.

       भारत के नब्बे परसेंट चैनलों में नब्बे और २००-२०१० तक हिंदी के लोगों को सम्मान नहीं मिला. हिंदी के लोगों का दबदबा शुरू होता है आज तक से जो कालांतर में अन्य एंकरों तक शिफ्ट होता है. ये इस पूरी कहाना का एक ऐसा दबा छुपा सच है जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता है.

        मैंने देखा कि एनडीटीवी के कुछ पुराने कर्मचारी रवीश को कोस रहे हैं. ये सामान्य बात है. जो आदमी बड़े पद पर जाता है उसको पसंद न करने वालों की कतार लंबी होती है. आज से सात आठ साल पहले भी एनडीवी में कई लोग थे जो रवीश को नहीं पसंद करते थे और उनके प्राइम टाइम से भी चिढ़ते थे. मीडिया की बहस में ये सब गौण बातें हैं. 

प्रणय राय की रणनीति सत्ता के साथ नजदीकी की रही और ये महीन राजनीति रही. वो ब्यूरोक्रेट, नेताओं के बच्चों के जरिए सत्ता से नजदीकी रखते थे जबकि ज़ी टीवी या फिर आज तक और बाकी चैनलों ने सीधे सीधे सत्ता से दोस्ती की कि विज्ञापन दीजिए बदले में अपने मनमाफिक कवरेज लीजिए. ये आम लोगों को पता नहीं होता है.

       टीवी चैनलों में काम करने वाला लगभग हर आदमी जानता है कि हर चुनाव से पहले चैनलों से साथ राजनीतिक दलों की डील होती है. चुनाव कवरेज के नाम पर पैसे दिए जाते हैं इसलिए निष्पक्षता कौन सी चिड़िया है मुझे नहीं पता.

       एनडीटीवी का अंग्रेजी चैनल (हिंदी को इससे अलग रख रही हूं कई कारणों से)  कलोनियल मीडिया का एक बढ़िया उदाहरण था……हिंदी अलग इसलिए कि प्रणय की प्रायोरिटी में हिंदी कभी नहीं रहा.

        उनके लिए चैनल का मतलब अंग्रेजी का एनडीटीवी था एनडीटीवी इंडिया नहीं. ये बात मैं बहुत सोच समझ कर कह रहा हूं. 

अब दिक्कत ये है कि जब पोस्ट-कलोनियल चैनल खत्म हो गया है तो आगे क्या बनेगा. पोस्ट कलोनियल अवधारणाओं या संस्थानों की दिक्कत ये होती है कि आप टूटने के बाद जो नया बनाते हैं उसमें स्पष्टता नहीं होती. आम तौर पर नया करने की बजाय लोग पुराना या पीछे की तरफ लौटते हैं और वो अटक कर रह जाता है फेक नैशनलिज्म पर……………….मेरा अपना अनुमान है कि आने वाले समय में एनडीटीवी वैसा ही हो जाएगा जैसा आज तक या स्टार न्यूज़ है. 

       पत्रकारिता का पतन बहुत पहले हो चुका था. अब ताबूत में कील गड़ी है. इसमें मीडिया के व्यवहार पर बात करिए. व्यक्तिगत खुन्नस, कुंठा निकालने से आप अपने बारे में लोगों को बता रहे हैं. जिसको गरिया रहे हैं. वो अपना कर चुका है आपसे बेहतर और आपसे कहीं आगे.

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