अग्नि आलोक

मदमस्त दरबारी, पर्यटक राजा : धूमधड़ाके से बजा रहे, संविधान का बाजा

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बादल सरोज

इधर आरिफ मृदंग बजा रहे हैं, उधर रिरिजु सुप्रीम कोर्ट को तुरही सुना रहे हैं। सबके सब लोकतंत्र की छाती पर पाँव रखे संविधान का बाजा बजा रहे हैं। उधर राजा पर्यटन पर है। अभी तक 66 देशों का पर्यटन कर चुका है, जिनमें से कई में अनेक अनेक बार की गयी यात्राओं का जोड़ शामिल नहीं है। इन दिनों वह धुंआधार देशाटन पर है। प्रमुदित, उत्फुल्लित, आल्हादित, बालसुलभ उत्साह से उत्साहित होकर दिन में 7 बार परिधान बदल रहा है। राजतंत्र के जमाने के राजा एक ही मुद्रा में बैठकर तैलचित्र बनवाते थे, मरे हुए शेर के ऊपर पाँव रखकर फोटो उतरवाते थे। उन्ही की नक़ल करने की कोशिश में वह नारद स्वयंवर काण्ड दोहरा रहा है। कभी हाथ फैला कर अभिराम मुद्रा में पोज दे रहा है, कभी युवा उत्साही पर्यटकों की तरह सूरज को हथेली में लेकर, तो कभी ऊंचे पर्वतीय शिखर पर हाथ रखकर फोटो सेशन कर रहा है। उसके अलावा फोटो फ्रेम में कोई और न आये, इसके लिए बच्चों की तरह बिफर रहा है, नजदीक आने वालों को दुत्कार-फटकार कर किनारे कर रहा है। देश और उसकी प्रजा भले किसी हाल में हो, घटना-दुर्घटना, मौक़ा-बेमौका हो या फिर  काल या अकाल हो ; राजा के लिए वह पर्यटन और नयी-नयी पोशाकों के रैम्प शो और फोटो सत्रों का अवसर ही होता है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक राजा मोरबी में हुयी करीब डेढ़ सौ गुजरातियों की स्तब्धकारी मौत – सांस्थानिक हत्याओं – के बाद 24 घंटे छुपे रहने के बाद वहां के लिए निकल चुका है। हर जगह की तरह यहां भी लाशों और घायलों से भरे अस्पताल को सजाया जा रहा है, उसके टाइल्स बदले जा रहे हैं, रंग रोगन किया जा रहा है ताकि राजा का शोकाभिव्यक्ति पर्यटन ठीक-ठाक हो सके। शोक, वेदना और पीड़ा के इन पलों में वह कपडे बदल सके और उसके फोटो सेशन के लिए समुचित चकाचौंध हो सके। यह अलग बात है कि अपने पूर्ववर्ती राजाओं की तरह बुद्धि-विवेक दरिद्र यह राजा भी असली बात भूल गया है कि वह जितनी बार कपडे बदल रहा होता है, दरअसल उतनी ही बार खुद को पहले से भी ज्यादा निर्वस्त्र और नग्न कर रहा होता है। वह यह सच भी भूल रहा है कि यह नग्नता की ग्लानि होती है, जो बार-बार परिधान बदलने को विवश करती है, मगर जाती उसके बाद भी नहीं है। 

राजशाही की यह कुरूपता सिर्फ रूप में नहीं है, सार में है और  अब धीरे धीरे तेज होती हुयी व्यवहार में भी आने लगी है। 

राजा समय-समय पर प्रजा को अपने राजत्व की याद दिलाता रहता है। उन्हें बताता रहता है कि वे उसका नमक खा रहे हैं — नमक की याद का कोहराम मचाने के लिए अपने चारण, भाट और दरबारियों को भी लगाए रखता है। हाथ नचाकर- नचाकर   “कितने दूँ, 50 हजार करोड़ ? 70 हजार करोड़ ? चलो 75 हजार करोड़ दिए”, कहकर  वह यदा-कदा अपनी दरियादिली भी दिखाता रहता है। बोलने को ढपोरशंख की तरह जितने मांगे जाते हैं, उसका दोगुना बोलता है – देता अठन्नी भी नहीं है।  मगर राजा सिर्फ मसखरा नहीं है, वह कटखना भी है। वह अपने पैने दाँतों से अब तक रचे-बने सब कुछ की क़तर ब्यौंत कर देना चाहता है। 

“जैसे जाके नदी नाखुरे, तैसे ताके भरिका, जैसे जाके बाप महतारी, तैसे ताके लरिका” की तर्ज पर जैसा राजा है, वैसे ही उसके दरबारी और जमींदार है। झक्की और आभासीय सत्ता के मद में सचमुच मदमस्त। एक सनकी जमींदार केरल में है, जो डॉन क्विक्जोट और साको पांजा, शेखचिल्ली और मुंगेरीलाल की तरह टीन की तलवारों को जन की ऊर्जा से लबालब सूरज और पनचक्कियों के ऊपर भाँजता रहता है और ऐसा करते में खुद पर खुद ही मुग्ध होकर खुद ही को निहारता रहता है। वह अकेला नहीं है – मुम्बई में बैठे उसके बिरादरों से लेकर अलग-अलग प्रदेशों की राजधानियों के राजभवनों में बैठे  उसके सहोदर-सहोदरायें भी यही सब दोहराते रहते हैं। 

यह सब  अयोग्यों के जिम्मेदारी के पदों पर बैठने की त्रासदी या व्यक्ति विशेषों की नासमझी भर नहीं है। यह सोचे-समझे तरीके से विधिसम्मत, संविधान आधारित लोकतंत्र को पूरी तरह उलट कर राजतंत्र की बहाली की सोची-समझी योजना पर सुव्यवस्थित तरीके से किया जा रहा अमल है। संविधान सहित सारी संवैधानिक संस्थाओं की ऐसी-तैसी करके, उन्हें ख़त्म करना है। जिन्हे फिलहाल खत्म करना मुश्किल है, उन्हें हास्यास्पद और दिखावटी  बनाकर रख देना है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर विराजी द्रौपदी मुर्मू जब देश के नागरिको को याद दिलाती हैं कि वे “गुजरात (पढ़ें : मोदी) का नमक खा रहे हैं”, तब वे इसी आख्यान को आगे बढ़ा रही होती हैं। जब विधि और न्यायमंत्री रिरिजू  दावा ठोकते हैं कि “सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों  में जजों की नियुक्ति करना सरकार का काम है”, तब वे संविधान द्वारा स्थापित लोकतंत्र के तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र स्तम्भ न्यायपालिका के ढाँचे को ढहाने के लिए फावड़े और बेलचे उठाने का एलान कर रहे होते हैं। संसद अप्रासंगिक बना दी गयी है – उसकी बैठके होती कम हैं, टलती ज्यादा हैं। कानूनों को बनाने और बिना बनाये ही बदलने का काम लोकसभा और राज्यसभा के बाहर ही कर लिया जा रहा है। निर्वाचन आयोग को राजवचन-निर्वहन आयोग बनाकर रख दिया गया है —  चुनाव की तारीखें अब राजा के पर्यटन कार्यक्रम की तारीखों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जाती हैं — बाकी फैसले भी उसी की भृकुटियों के उतार-चढ़ाव को हिसाब में रखकर  लिए जाते हैं। 

यह अनायास नहीं है। लोकतंत्र से नफ़रत और राजशाही से प्रेम मौजूदा सत्तासीन गिरोह के डीएनए में है। उनके एकमात्र विचारक और आराध्य सावरकर जिस हिन्दुत्व की बात करते थे और उसे एक ख़ास किस्म की शासन प्रणाली बताते थे, वह “अतीत की गौरवशाली शासन प्रणाली (राजतंत्र) की बहाली ” के वैचारिक दृष्टिकोण पर ही आधारित थी। उन्होंने और उनके नेतृत्व में चलने वाली हिन्दू महासभा ने तो “नेपाल के राजा को हिन्दुस्तान का राजा बनाने की मांग तक उठायी थी।” आरएसएस के सरसंघचालकों ने भी हमेशा लोकतंत्र को मुंडगणना कहकर धिक्कारा और इसे अभारतीय प्रणाली कहकर स्वीकार करने से मना किया। वे और आगे बढ़ कर  मुसोलिनी की इटली और हिटलर की जर्मनी को आदर्श बनाने तक पहुँच गए थे। अब सरकार में पहुँचने के बाद ठीक उसी दिशा — लोकतंत्र की समाप्ति और राजशाही के नए संस्करण की कायमी — में बढ़ने की मुहिम तेज की जा रही है।  

मगर जैसा कि लगभग सभी भाषाओं और सभ्यताओं में समान रूप से मिली कहानी में लिखा है, यह राजा भी वैसा ही है। पूरी तरह निर्वसन और नंगा। अडानी-अम्बानी और अमरीकी ठगों द्वारा तैयार की गयी नयी-नयी पोशाकों में वह जितना इतराता है, उतना ही अपनी नंगई को उघारता है। इस कहानी की तरह बस किसी मासूम बच्चे के “राजा तो नंगा है” कहने भर की जरूरत है कि पल भर में सारा तिलिस्म ढह जाएगा और कहानी के राजा की तरह यह राजा भी इतिहास के कूड़ेदान में धकेल दिया जाएगा। ठीक यही काम, राजा को निर्वस्त्र और नंगा बताने का काम, इस देश का मेहनतकश अवाम और उसके संगठनों द्वारा किया जा रहा है। यह आवाज जितनी बुलंद होगी, दक्षिण की दिशा में फिसलन पर धकेला जा रहा इतिहास उतनी ही जल्द पूरब की ओर करवट लेकर नया सूरज उगायेगा।  

*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 9425006716)*

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