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रोजगार सृजन का सबसे आसान और सीधा रास्ता है थैलीशाहों पर संपत्ति कर तथा उत्तराधिकार कर

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प्रो. प्रभात पटनायक

प्रोफेसर प्रभात पटनायक ने अर्थशास्त्र के गूढ़ नियमों की बेहद सरल व्याख्या द्वारा समझाया है कि भारत में बेरोजगारी का कैसे समाधान हो सकता है। उन्होंने इसके लिए बड़े पैमाने पर सरकारी खर्च/ सार्वजनिक निवेश बढ़ाने पर जोर दिया है। उनका मानना है कि ऐसा करने में संप्रभु सरकार को वैश्विक वित्तीय पूंजी और देशी कॉर्पोरेट घरानों द्वारा वित्तीय घाटे पर लगाई बंदिश की बिल्कुल परवाह नहीं करनी चाहिए और ऐसे किसी डिक्टेट को मानने से इंकार कर देना चाहिए। उन्होंने इस बात की जोरदार वकालत की है कि सरकार को इस वित्तीय घाटे की भरपाई कॉर्पोरेट तथा धनाढ्य तबकों पर संपत्ति कर और उत्तराधिकार कर लगा कर करना चाहिए, ताकि समाज में आय की भयावह ढंग से बढ़ती गैरबराबरी को रोका जा सके।उन्होंने स्पष्ट किया है की इससे निजी निवेश पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा, वरन बाजार में मांग बढ़ने से वह और बढ़ेगा। उन्होंने यह भी साफ किया है कि इस कराधान से पूंजीपतियों की मूल संपदा भी कम नहीं होगी क्योंकि कर के बराबर मुनाफा सरकारी खर्च बढ़ने से वे कमा लेंगे। नीचे प्रस्तुत है उनके लेख का भावानुवाद ( यह लेख 9 जून, 2024 के पीपुल्स डेमोक्रेसी से साभार लिया गया है।) :

अर्थशास्त्र में दो तरह के सिस्टम के बीच फर्क किया जाता है, एक वह जहां बाजार में मांग की कमी हो, दूसरा वह जहां संसाधन की कमी हो (इसे हम सरल ढंग से आपूर्ति की कमी वाला सिस्टम कहेंगे)। पहले सिस्टम में उत्पादन में वृद्धि हो सकती है अगर कुल मांग में वृद्धि हो, जाहिर है ऐसे सिस्टम में कोई अभाव- जनित महंगाई नहीं होगी। दूसरे सिस्टम में उत्पादन की कमी कई कारणों से हो सकती है, मसलन, या तो सिस्टम के उत्पादन की पूरी क्षमता भर उत्पादन हो रहा हो- अर्थात और अधिक उत्पादन की क्षमता सिस्टम में न हो, अथवा किसी ऐसी लागत सामग्री का अभाव हो जो उत्पादन के लिए अनिवार्य है या खाद्यान्न की कमी हो अथवा श्रम शक्ति की कमी हो, जाहिर है ऐसे सिस्टम में मांग बढ़ने पर उत्पादन नहीं बढ़ सकता, ऐसी स्थिति में अभाव- जनित महंगाई बढ़ जाएगी।

पूंजीवाद आमतौर पर, युद्ध के दौर को छोड़कर, मांग की कमी वाला सिस्टम है, जबकि समाजवाद, जैसा सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोप में था, वह आपूर्ति की कमी वाला सिस्टम था। मांग की कमी वाले सिस्टम में अगर कुल मांग बढ़ती है तो उत्पादन बढ़ेगा, फलस्वरूप रोजगार भी बढ़ेगा।

भारत में आज के दौर में इस फर्क को ध्यान में रखना जरूरी है, जब यहां बेरोजगारी एक गंभीर सामाजिक मुद्दा बन गई है, जब इसकी भयावहता हालिया चुनाव में भाजपा को लगे झटके के पीछे प्रमुख कारक रही, और जब इसका उन्मूलन आज सर्वोच्च प्राथमिकता का विषय बन गया है।

क्योंकि सरकारी सेवाओं समेत सेवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार में सचेतन ढंग से कटौती हुई है, जहां पूंजी की कमी की कोई भूमिका नहीं है। इसलिए हम आपूर्ति की किसी कमी को बेरोजगारी के मौजूदा स्तर के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।

ठीक इसी तरह बेरोजगारी का मौजूदा स्तर किसी ऐसी लागत सामग्री की कमी के कारण नहीं है जो उत्पादन के लिए अनिवार्य है। खाद्यान्न की भी कोई कमी नहीं है, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि मोदी सरकार जो गरीबों को विपक्ष द्वारा दी जा रही आर्थिक मदद को ” रेवड़ी ” कह कर मजाक उड़ाती है, वह कुछ चुनावी फायदे की उम्मीद में बड़ी तादाद में लाभार्थियों को मौजूदा स्टॉक से 5 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह अनाज मुफ्त देती रही है। यह सच है कि भारत इस समय अपने कम हो गए खाद्यान्न भंडार को फिर से भरने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार से गेहूं खरीदने की तैयारी में है। लेकिन इसके पीछे कारण कुप्रबंधन है न कि देश में अनाज की कोई वास्तविक कमी है।

इसलिए भारत में इस समय जो भारी बेरोजगारी है वह मांग की कमी के कारण है। इसके उन्मूलन के लिए जरूरी है की कुल मांग बढ़ाने के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं, जिसमें सरकारी खर्च/निवेश की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होगी।

बड़ी तादाद में सरकारी पद खाली पड़े हैं,शिक्षा क्षेत्र में तो स्टाफ की इतनी कमी है कि अचरज होता है, जाहिर है इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ रहा है। यहां तक कि सशस्त्र बलों में भी जो नियमित भर्ती होती थी, वह नहीं हो रही है जिसकी वजह से अग्निवीर जैसी तरह तरह की योजनाएं लागू की जा रही हैं। संक्षेप में, रोजगार देने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की बजाय, यह विडंबना है कि सरकार रोजगार में कटौती कर रही है, इसका कारण यह लगता है कि वह वित्तीय दबाव में है। आइए इस मामले को थोड़ा और बारीकी से देखते हैं।

जिस मूलभूत फर्क की हमने ऊपर चर्चा की, वह मांग की कमी और आपूर्ति की कमी वाले दो सिस्टम के बीच थी। आपूर्ति की कमी, जो अभी हमने देखा कि हमारे यहां नहीं है, को छोड़कर और दूसरी कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे एक संप्रभु राज्य पर वस्तुगत वित्तीय बंदिश कहा जा सके। ऐसी कोई भी वित्तीय बंदिश राज्य पर अंतर्राष्ट्रीय पूंजी और उसके स्थानीय सहयोगी, घरेलू कारपोरेट वित्तीय समूह द्वारा थोपी गई चीज है। यह राज्य की किसी वस्तुगत सीमा का नहीं, वरन उसकी स्वायत्तता के क्षरण का प्रतिबिंब है।

मांग की कमी वाले किसी देश में राज्य की खर्च करने की क्षमता की कोई वस्तुगत सीमा नहीं है, यह तथ्य अर्थशास्त्र के साहित्य में 90 साल पहले ही कैलेकी और कीन्स की सैद्धांतिक क्रांति द्वारा स्थापित कर दिया गया था। फिर भी वह गलत सिद्धांत जिसे 9 दशक पहले ही खारिज कर दिया गया था, उसे फिर आज राज्य की वस्तुगत सीमा के बतौर पुनर्जीवित किया जा रहा है जबकि वह दरअसल राज्य पर बड़े पूंजी घरानों द्वारा थोपी गई बंदिश है।

बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए सबसे बड़ी जरूरत यह है कि राज्य वैश्विक तथा देशी बड़ी पूंजी की सनक की गुलामी के जुए को उतार फेंके, उसे पुनः जनता की सेवा के संकल्प को हासिल करना होगा तथा उसके अनुरूप काम करना होगा।

एक ऐसे सिस्टम में जहां मांग की कमी है, बड़े पैमाने पर सरकारी खर्च से बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकता है, भले ही यह खर्च वित्तीय घाटे के माध्यम से किया जा रहा हो। इसका जो सबसे नुकसानदेह असर है, वह यह नहीं है कि यह निजी निवेश को हतोत्साहित करेगा, साथ ही इसके खिलाफ किए जा रहे दूसरे बकवास दावे भी सच नहीं हैं, लेकिन इसकी मुख्य बुराई यह है कि यह अनायास ही देश में आय की असमानता को बढ़ा देगा।

अगर सरकार 100 रुपए खर्च करती है और ऐसा वित्तीय घाटे द्वारा करती है अर्थात कर्ज लेकर, तो इसका अंतिम नतीजा यह होगा कि अपने इस तरह खर्च द्वारा वह पूंजीपतियों के हाथ 100 रुपए दे रही है ( क्योंकि मेहनतकश लोग जितना कमाते हैं, करीब-करीब वह पूरा खर्च कर देते हैं। उदाहरण के लिए इस मामले में सरकार ने जो 100 रुपया खर्च किया, वह मजदूरों को मिला, उन्होंने उसे पूरा खर्च कर दिया, इस तरह वह 100 रुपया पूंजीपतियों के पास पहुंच गया।) और फिर सरकार उसे पूंजीपतियों से उधार लेती है।

इसे आसानी से समझा जा सकता है अगर हम समूची अर्थव्यवस्था को 3 अलग-अलग हिस्सों में बांट दें-सरकार, श्रमिक और पूंजीपति। (सरल ढंग से समझने के लिए हम मान लेते हैं की यह एक बंद अर्थव्यवस्था है जिसमें बाहर से कोई लेनदेन नहीं हो रहा है।)

सामान्य गणितीय समझ के अनुसार तीनों हिस्सों के घाटे का कुल योग हमेशा शून्य होगा क्योंकि बाहर से तो कोई लेनदेन हो नहीं रहा है। इसमें श्रमिक आमतौर पर जो कमाता है उसका तो लगभग पूरा उपभोग कर लेता है, इसलिए उनका घाटा या मुनाफा शून्य है, अगर सरकार घाटे में है, तो इसका अर्थ यह है की पूंजीपतियों को स्वतः ही सरकार के घाटे के बराबर मुनाफा हासिल हो गया, बिना कुछ करे धरे।

मान लीजिए शुरू में सरकार ने बैंक से 100 रुपए उधार लेकर खर्च किया, तो लेनदेन के चक्र के अंत में वह पूंजीपतियों से सौ रुपए के उनके सरप्लस को, जो उन्हें अनायास मिल गया है, उनसे उधार लेकर बैंक का उधार चुकता कर सकती है। पूंजीपतियों के सरप्लस का स्रोत है सरकार द्वारा खर्च से पैदा हुई उनके सामानों की बढ़ी मांग। यह उनकी बचत और संपत्ति में अनायास हुई वृद्धि है। इसलिए यह संपत्ति की गैरबराबरी को बढ़ाने में योगदान करती है।

धन की ऐसी गैरबराबरी को बढ़ने से रोकने के लिए सरकार को उनसे 100 रुपए टैक्स के रूप में ले लेना चाहिए, अपने खर्च के बराबर पूंजीपतियों से टैक्स लेकर सरकार को अपने घाटे की भरपाई कर लेना चाहिए, इससे पूंजीपतियों के पास शुरुआत में जो संपत्ति थी, उसमे भी कोई कमी नहीं होगी।

इस तरह यह स्पष्ट है कि पूंजीपतियों पर टैक्स लगाकर वसूले गए धन को खर्च कर सरकार रोजगार पैदा कर सकती है और इससे पूंजीपतियों को भी कोई नुकसान नहीं होगा क्योंकि उनके पास शुरू में जितना धन था उसमे कोई भी कमी नहीं आएगी।

राज्य को, अगर वह रोजगार बढ़ाना चाहता है, तो अपना खर्च बढ़ाने का साहस करना चाहिए और इन कदमों के खिलाफ घरेलू और विदेशी पूंजीपति जो भी बाधाएं खड़ी करें ( मसलन पूंजी पलायन आदि ), उनका सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

इसलिए रोजगार के विस्तार के लिए सबसे पहले जरूरी है कि सरकारी क्षेत्र में जो भी पद खाली पड़े हैं, स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय के अध्यापकों तथा स्वास्थ्यकर्मी और नर्सिंग स्टाफ समेत, पहले भरे जाएं। दूसरे इस बात की भी जरूरत है कि इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर नए पद सृजित किए जाएं। उदाहरण के लिए शिक्षा इस देश में पतन के गर्त में है। यहां जरूरत है कि योग्य स्टाफ के समुचित विस्तार द्वारा शिक्षा क्षेत्र का पुनरोद्धार किया जाय। तीसरे मनरेगा (MNREGA) की मौजूदा सीमाओं को हटाकर इसे सार्वभौम और मांग आधारित बनाते हुए इसका दायरा बढ़ाया जाए, इसे शहरी क्षेत्र तक विस्तारित किया जाय, अभी दी जा रही मामूली मजदूरी को समुचित स्तर तक बढ़ाया जाए।

यह खुद ही अर्थव्यवस्था में तमाम तरह के सामानों की मांग पैदा करेगा। इसे आंशिक रूप से मौजूदा क्षमता के और अधिक इस्तेमाल तथा और अधिक रोजगार सृजन के द्वारा किया जाएगा और आंशिक रूप से नई उत्पादक इकाइयों की, सर्वोपरि लघु उद्योग सेक्टर में, स्थापना द्वारा किया जायेगा ( जिनके लिए समुचित लोन की व्यवस्था अवश्य की जानी चाहिए।) दूसरे शब्दों में सरकार द्वारा रोजगार सृजन निजी क्षेत्र में भी अतिरिक्त रोजगार पैदा करेगा। (जिसे मल्टीप्लायर-गुणन प्रभाव के रूप में जाना जाता है।)

जैसा कि ऊपर चर्चा की गई, सरकारी खर्च में होने वाली सारी वृद्धि को पूंजीपतियों तथा आम तौर पर धनिक तबकों पर टैक्स बढ़ाकर पूरा किया जायेगा। ऐसे टैक्स उनकी आमदनी पर लगाए जा सकते हैं अथवा उनकी कुल संपत्ति पर। इन दोनों में से उनकी संपत्ति पर टैक्स लगाना बेहतर है, जिसमें रियल स्टेट और वह नगद पैसा शामिल है जिस पर कोई खास प्रत्यक्ष आय नहीं हो रही है क्योंकि तब यह तर्क भी कोई नहीं दे पाएगा कि इस टैक्स से उत्पादक निवेश पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

यह भी जरूरी है कि संपत्ति कर के साथ-साथ उतराधिकार कर भी लगाया जाय ताकि संपत्ति कर से बच निकलने की किसी चालाकी पर रोक लग सके। यह सचमुच स्तब्ध करने वाला है कि भारत में न संपत्ति कर लागू है, न ही विरासत कर, जबकि नव उदारवादी युग में संपत्ति की असमानता आसमान छूने लगी है। बहरहाल, इस निंदनीय तथ्य से यह भी पता लगता है कि भारत में संपत्ति कर और उत्तराधिकार कर लगाने की विराट संभावना मौजूद है।

बड़े थैलीशाहों पर संपत्ति कर तथा उत्तराधिकार कर के जरिए धन जुटाकर सरकार द्वारा किए जाने वाले खर्चों में वृद्धि करना, अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन का सबसे आसान और सीधा रास्ता है। इसके जरिए एक ही तीर से कई निशाने लगाए जा सकते हैं इससे रोजगार में बढ़ोत्तरी होगी तथा संपत्ति की गैरबराबरी पर अंकुश लगेगा जो की जनतंत्र के लिए आवश्यक है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर भर्तियां होने तथा नए रोजगार सृजन से इन क्षेत्रों में सुधार होगा, जबकि इस समय इनका हाल बहुत ही बुरा है।”

( 9 जून, 2024 के पीपुल्स डेमोक्रेसी में अंग्रेजी में प्रकाशित प्रो. प्रभात पटनायक के लेख का अनुवाद लाल बहादुर सिंह ने किया है।)

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