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राजनीतिक दंभ से शुरू की गई चुनावी यात्रा बुरी तरह विफल हो गई

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प्रफुल्ल कोलख्यान

दुनिया में भारत की स्थिति का निर्णय भारत के अंदर की स्थिति से होता है। पिछले दिनों नरेंद्र मोदी के शासन-काल में ‘विश्व-गुरु’ बनने की भ्रामक वाग्मिता का  ऐसा आकाशी वातावरण बनाने की कोशिश लगातार की गई कि जमीनी हकीकत को पहचानने की अधिकतर लोगों की आंख ही मारी गई। यह सब भारत की किसी वैज्ञानिक या बौद्धिक उपलब्धि के परिप्रेक्ष्य के साथ नहीं हो रहा था। न इन सब का कोई वैश्विक असर होना था, न हो रहा था। लेकिन देसी मीडिया के सहारे ‘अपने मुंह, मियां मिट्ठू’ बनने का बड़ा असर हिंदी जनता और हिंदुत्व की राजनीति पर जरूर पड़ रहा था।

अंदर से जाति-विभाजित, विषमता-ग्रस्त हिंदू जनता को हिंदुत्व के पक्ष में एक-बद्ध करने की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के तहत हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था को आच्छादित करते हुए, सनातन में आस्था और विश्वास को राजनीतिक एवं राष्ट्रीय आस्था और विश्वास का विषय बनाये जाने की रणनीतिक कोशिश की गई। आर्थिक, शैक्षणिक एवं अन्य कारणों से वर्ण-व्यवस्था में अपेक्षाकृत सम्मानजनक स्थिति में पहुंच चुकी जाति या जातियों से जुड़े हुए व्यक्तियों के मन में वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत ‘स्थाई सम्मान’ के भ्रम का राजनीतिक वातावरण बना दिया गया। 

इस तरह और तरकीब से जातियों के नेता के मन में ‘नव-कुलीनतावाद’ का जन्म हो चुका था। इस ‘नव-कुलीनतावाद’ में भी ‘वृद्ध-कुलीनतावाद’ के सारे दोष स्वतः समाहित थे और गुण न्यूनतम। जातियों के ‘नव-कुलीनतावादी’ नेता अपने पीछे अपनी जाति के वोटों को जमा करते हुए अपनी जाति के लोगों में सामाजिक सम्मान और राजनीतिक शक्ति का आश्वासन रचने में सफल होते गये। ‘स्थाई सामाजिक सम्मान’ और राजनीतिक शक्ति की तलाश में लगाई गई आबादी का स्वागत करने के लिए भारतीय जनता पार्टी तैयार थी। 

हालांकि, भारतीय जनता पार्टी की यह तैयारी राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के एजेंडे में फिट नहीं बैठती थी, लेकिन सत्ता और सत्ता-जन्य ‘सुख-सुविधा’ के मोह ने राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के ‘सांस्कृतिक-मुंह’ में ताला जड़ दिया। ‘स्थाई सामाजिक सम्मान’ की तलाश में लगी आबादी को भारतीय जनता पार्टी ने ‘स्थाई संसदीय बहुमत’ की गारंटी मानकर विपक्ष-मुक्त राजनीति की तरफ बढ़ने के लिए अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू कर दी। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी अपनी ‘स्थाई संसदीय बहुमत’ से संपुष्ट होकर हिंदुत्व के नव-दिगंत की राजनीतिक यात्रा की आभासी-चर्या में लग गई तो दूसरी तरफ ‘नव-कुलीनतावाद’ के मोह में पड़े नेताओं और फंसी हुई जनता को दूर-दूर तक ‘स्थाई सामाजिक सम्मान’ का दर्शन नहीं हो रहा था, अकुलाहट बढ़ रही थी। राजनीतिक शक्ति के एहसास के पहले सामाजिक सम्मान का एहसास होना स्वाभाविक होता है। बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में सामाजिक-सम्मान की पुरानी दशा एक अ-स्वाभाविक और अ-विश्वसनीय कथा ही बांच रही थी। कहना न होगा कि इस बीच ‘स्थाई बहुमत’ के जुगाड़ से हिंदुत्व की राजनीति भारत-सत्ता के शिखर तक पहुंचने में बहुत हद तक सफल तो हो गई थी, लेकिन अब ‘नव-कुलीनतावाद’ का मोह फटने लग गया था। कहना जरूरी है कि ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की फसल भारतीय जनता पार्टी काट चुकी थी।

एक तरफ ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की सफलता के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व के नव-दिगंत की राजनीति की आभासी यात्रा में मग्न थी, दूसरी तरफ राहुल गांधी के नेतृत्व में ‘पॉलिटिकल इंजीनियरिंग’ की वास्तविक यात्रा ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू हो गई। कहना न होगा कि ‘आभासी’ का कोई भी रूप ‘वास्तविक’ के किसी भी रूप के सामने टिक नहीं सकता है। राहुल गांधी के नेतृत्व में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कन्या कुमारी से 7 सितंबर 2022 को शुरू होकर 19 जनवरी 2023 को जम्मू कश्मीर में पूरी हुई। यह यात्रा पूरी तरह से पद-यात्रा थी, जो कठिन प्राकृतिक परिस्थिति में सफलतापूर्वक संपन्न हुई। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की सफलता से उत्साहित होकर राहुल गांधी के नेतृत्व में फिर (14 जनवरी 2024 मणिपुर – 20 मार्च 2024 मुंबई) ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ भी सफलतापूर्वक संपन्न हुई। सामने 2024 का आम चुनाव था। 

भारत जोड़ो यात्राओं के सारे अनुभव और अन्य स्रोतों से उपलब्ध समस्त राजनीतिक सूझ न्याय-पत्र में सिमटकर आ गया। चुनाव में जनता के सामने रखे गये कांग्रेस के घोषणा पत्र को न्याय-पत्र का नाम दिया गया था। यह घोषणा पत्र, न्याय-पत्र इतना प्रभावशाली था कि नरेंद्र मोदी अपनी गारंटीवाले घोषणा पत्र को तो जैसे भूल ही गये। वे अपने चुनाव प्रचार के दौरान न्याय-पत्र की जितनी भी निंदा हो सकती थी, जिस-जिस तरह से हो सकती थी करते रहे। भाषा और लोकतंत्र की मर्यादा और केंद्रीय चुनाव आयोग की पक्षपातपूर्ण कार्रवाइयां अपनी जगह, विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के घटक दलों के महत्त्वपूर्ण नेताओं, दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल, झारखंड के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेन को जेल में रखे जाने, कांग्रेस के बैंक खाता को अवरुद्ध करने, चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के द्वारा अकूत धन के इस्तेमाल होने आदि की बात अपनी जगह।

तमाम चुनावी शोर और मीडिया पराक्रम के बावजूद 4 जून 2024 को सामने आया चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी के अनुकूल नहीं था। गठबंधन के साथ 400 के पार और अकेले दम पर 370 के पार जाने के राजनीतिक दंभ से शुरू की गई चुनावी यात्रा बुरी तरह विफल हो गई। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) 293 और भारतीय जनता पार्टी अकेले दम 240 पर सिमट गई। अकेले दम बहुमत (272) की संख्या तक नहीं पहुंच पाई। हां, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), खासकर चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल यूनाइटेड के सांसदों के समर्थन के सहारे ही सही नरेंद्र मोदी ने इस बार भी सत्ता-अधिकार जरूर हासिल कर लिया। खंडित जनादेश के चलते नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने कई राजनीतिक चुनौतियां हैं। कहना जरूरी है कि 2024 में ‘स्थाई सामाजिक सम्मान’ और उस का राजनीतिक उत्पाद ‘स्थाई संसदीय बहुमत’ दोनों का भ्रम एक साथ टूट गया। 

‘स्थाई सामाजिक सम्मान’ की आभासी हलचल की जगह अब सामाजिक-न्याय और आर्थिक-न्याय की वास्तविक हलचल का राजनीतिक दौर सामने है। सब से पहले तो व्यवस्था में विश्वास का लौटना जरूरी है। ताजा मामला तो ‘राष्ट्रीय प्रवेश सह पात्रता परीक्षा’(NEET) पेपरलीक से पैदा हो गया है। वैसे, पिछले दिनों के विभिन्न परीक्षाओं के पेपरलीक से इस पेपरलीक के भी जुड़ जाने के कारण युवाओं के मन में खासकर और आम लोगों के मन में भी व्यवस्था पर विश्वास का आधार दरक जरूर गया है। व्यवस्था पर दरकते हुए विश्वास के कारण देश का सामान्य माहौल भयानक खतरनाक होता जायेगा और सत्ता की ‘महत्वाकांक्षाओं’ और जनता की जरूरत की ‘आपराधिक उपेक्षाओं’ पर शीघ्र काबू पाने की सार्विक और सफल कोशिश करने में सत्ता की विफलता सभी प्रकार के अन्याय और वैषम्य की परिस्थिति को बेकाबू बना देगी। 

कहने की जरूरत नहीं है कि विषमताओं का प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में पड़ता है। विषमताएं बहुमुखी होती हैं। विषमताओं को अ-न्याय की जननी कहा जाना चाहिए। अ-न्याय बहु-प्रभावी होता है। अ-न्याय का कोई भी प्रतिरोध विषमताओं के प्रतिरोध के बिना कभी सार्थक दिशा में आगे बढ़ ही नहीं सकता है। यह सच है कि विषमताओं को सिर्फ आर्थिक संदर्भों से ही नहीं समझा जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि ‘अर्थ-प्रधान’ युग में आर्थिक संदर्भों के बिना विषमताओं के प्रभाव को समझना बहुत मुश्किल ही नहीं लगभग असंभव ही होता है। ‘अर्थ-प्रधान’ युग में सारे संबंधों को अंततः और निर्णायक रूप से आर्थिक-संबंध ही परिभाषित करता है।

असल में अ-विश्वास और पक्षपात का ऐसा माहौल बन गया है कि जहां पक्षपात नहीं भी होता है, वहां भी आम लोगों के मन में ‘सब कुछ’ के ठीक होने का भरोसा नहीं होता है। ऐसा माहौल बनने के पीछे के कारण बहुत अ-स्पष्ट नहीं हैं। सूचना-विस्फोट के इस बदले हुए  जमाने में अपराध को अपराध-बोध या किसी तरह की सामाजिक ग्लानि के कारण के रूप में नहीं देखा जाता है। बल्कि अब तो अपराध-क्षमता को व्यक्तिगत पराक्रम के रूप में देखा जाने लगा है। समाज में भी और राज में भी अपराधियों का वर्चस्व वैध और स्वीकार्य ही नहीं, बल्कि ‘नीचे से ऊपर तक’ सभी क्षेत्र और स्तर के ‘महा-पुरुषों’ के लिए सहायक और कार्य-सिद्धि की सब से बड़ी गारंटी होता है। 

पूर्ण रूप से न्याय-निष्ठ व्यवस्था की बात अपनी जगह, यहां तो ‘सरसों में ही भूत’ है। जिन संस्थाओं की स्थापना व्यवस्था के लिए की जाती है, यदि वही संस्थाएं अ-व्यवस्था फैलने की परवाह के बिना पक्षपात और सोद्देश्य भेदभाव के साथ काम करने लगे, तो फिर निदान की उम्मीद किस से की जाये! मीडिया में राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के आरोप-प्रत्यारोप का अंत-हीन और ‘अर्थ-पूर्ण’ सिलसिला जारी रहता है। इस में ‘सब कुछ’ होता है, बस वह नहीं होता है जो मुद्दों को स्पष्ट करे। आम लोगों को कुछ साफ-साफ समझ में आये कि पीड़ितों के लिए राहत क्या है। कारण स्पष्ट करना समस्या का निदान नहीं होता है। सत्ता की राजनीति क्या मछली के तेल में मछली को तलने की कला है? अपने ही तेल में तले जाने के लिए मछली का राजी हो जाना ही क्या लोकतंत्र के होने का लक्षण है! 

ऐसा लगता है कि सत्ता की राजनीति में लगी राजनीतिक जमात के लोगों के मन में आम लोगों के प्रति कोई लगाव और अनुराग है ही नहीं। ऐसा लगता है कि आज सत्ता की राजनीति जन-सेवा की किसी भी प्रेरणा से संबद्ध नहीं रह गई है। जन-हित न तो किसी की प्राथमिकता है, न प्रतिबद्धता है। अपवाद उभरेंगे, शोषण के लिए भी तो पोषण जरूरी ही होता है। भयानक है महसूस करना लेकिन सच है कि हृष्ट-पुष्ट गुलाम ही मालिकों के काम के होते हैं। ध्यान रहे कि सभ्यता की अब तक की लड़ाई में, अब तक सारे संघर्ष में मनुष्य स्वतंत्रता की चाह में ही शामिल रहा है। स्वतंत्रता मनुष्य की मौलिक चाह है। सभ्यता के इतिहास का अनुभव है, सत्ता की जो राजनीति मनुष्य की स्वतंत्रता अर्थात इस मौलिक चाह को सुनिश्चित करने से मुकर जाती है उस राजनीति के छिन्न-भिन्न होने में बहुत समय नहीं लगता है। 

कहना न होगा कि आज राजनीति व्यापार बन गई है। व्यापार राजनीति का नजरिया बन गया है। व्यापार गलत नहीं है। लेकिन नागरिक हित के व्यापारिक इस्तेमाल से अपना व्यक्तिगत स्वार्थ साधना और अकूत धन कमाना किसी भी लोक-हितैषी विचारधारा की ‘स्वस्थ राजनीति’ का मकसद नहीं हो सकता है, मगर हो गया है। सत्ता से असहमति के निषेध और सत्ता से अनिवार्य सहमति के बिना जीवनयापन असंभव हो गया है। दुखद है कि इस दौर की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी शक्तिशालियों की ही चलती है, कानून और संविधान की नहीं। कमजोर पक्ष के लोगों को न्याय-मंदिर, अदालतों का रास्ता दिखला दिया जाता है। भगवान को याद करते हुए अपने ही ‘मन-मंदिर’ में न्याय की गुहार लगाकर खामोश बैठ रहने के अलावा ‘शक्तिहीन’ आम लोगों के पास अन्य क्या रास्ता बचता है! जो गरीब ‘पचकेजिया मोटरी’ से जिंदगी बसर करते हैं, वे व्यय-साध्य ‘न्याय-मंदिर’ तक कैसे पहुंचे! 

अपने ‘लोकेल’ से बेदखल लोक के लिए लोकल में बचता ही क्या है कि वह ‘भोकल’ हो सके! बोले, तो क्या बोले! वर्चस्वशाली लोगों से मिलते-जुलते रहने से ही जिंदगी काटने की लाचारी सिर पर लदी रहती है। ऐसे में लोकल ‘न्याय-पुरुष’ ईश्वर के रूप में प्रकट होते हैं। लोकल ‘न्याय-पुरुषों’ के आस्था-पुष्ट समर्थन को बटोरनेवाले ‘महा-पुरुष’ को आम जनता ईश्वर, अवतार आदि न माने तो क्या करे! मनुष्य की इस धरती पर ईश्वर और अवतारों की बहुत दिन नहीं चलती है। अवतार बार-बार आने की, ‘संभवामि युग, युगे’ की घोषणा जरूर करते हैं, यहां टिकने की बात तो वे भी नहीं करते हैं। आना और जाना तो अवतारों का भी लगा ही रहता है! सब दिन एक समान नहीं रहता है। यकीन नहीं! लोक सदियों से इसीलिए  तो दुहराता आया है कि “मनुज बलि नहीं होत है, होत समय बलवान! भिल्लन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बाण!” 

लेकिन अभी तो शक्तिशालियों का कारोबार ‘स्वयं-सक्षम-न्याय’ से चलता है। कमजोर के लिए ‘सब कुछ’ के स्वीकार की परिस्थिति सत्ता के शिखर से बरसते आशीर्वाद से तय होता है। लोकतंत्र में चलनेवाले ‘संत और सिपाही’ के दो-पाटन के बीच आदमी कैसे जीवनयापन करता है, किसी को क्या पता! मीडिया खासकर तरंगी और तुरंगी मीडिया को तो बिल्कुल नहीं पता! मीडिया के हिसाबी खाता में तो सब कुछ थाह में ही होता है। बाद में समझना मुश्किल हो जाता है कि “लेखा-जोखा थाहे, तो लड़िका डूबल काहे”। इसलिए 5 जून 2024 की शाम मीडिया को अपने ‘हिसाबी खाता’ के अनुमान और परिणाम में मिलान न होने का कारण समझना मुश्किल हो रहा था। हिसाब मिले या न मिले, मीडिया का खेल चलता रहता है। इस खेल को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दृश्य-प्रमाण माना जाता है। ‎लोक दृश्य-प्रमाण का क्या करे! उस के जीवन का अधिकांश अ-दृश्य शक्ति ही तय कर रही है। कई बार मीडिया की भूमिका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने सहमति के शिकारी जैसी हो जाती है।  

यकीनन, स्वतंत्रता मनुष्य की अमिट और अतृप्त मौलिक चाह है। मनुष्य की स्वतंत्रता जैसी मौलिक चाह की तृप्ति लोकतंत्र ही सुनिश्चित कर सकता है। लोकतंत्र को अ-स्थिर करनेवाली राजनीति का छिन्न-भिन्न होना तय है। 

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